26 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद–मन की बनावट को बदलना -भाग 2
आज का ज्ञानप्रसाद स्वामी आत्मानंद जी द्वारा लिखित पुस्तक “मन और उसका निग्रह” के अध्याय 11 का द्वितीय भाग है। मनोनिग्रह की यह अद्भुत श्रृंखला आदरणीय अनिल कुमार मिश्रा जी के स्वाध्याय पर आधारित प्रस्तुति है।ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार रामकृष्ण मिशन मायावती,अल्मोड़ा के वरिष्ठ सन्यासी पूज्य स्वामी बुद्धानन्द जी महाराज और छत्तीसगढ़ रायपुर के विद्वान सन्यासी आत्मानंद जी महाराज जी का आभारी है जिन्होंने यह अध्भुत ज्ञान उपलब्ध कराया। इन लेखों का सम्पूर्ण श्रेय इन महान आत्माओं को जाता है -हम तो केवल माध्यम ही हैं।
स्वामी बुद्धानन्द जी का संक्षिप्त विवरण :
स्वामी बुद्धानन्द जी जैसी महान आत्माओं के बारे में कुछ भी लिखना हमारी समर्था तो बिल्कुल नहीं है लेकिन फिर भी कुछ साहस बटोर कर आगे कुछ पंक्तियों में इनके बारे में लिख रहे हैं। सहकर्मियों से निवेदन है कि स्वामी बुद्धानन्द महाराज के विवरण के साथ आप 36 सेकंड की वीडियो भी देख लें ताकि आपको आभास हो सके कि जिस पुस्तक का हम स्वाध्याय कर रहे हैं ,यह एक साधारण पुस्तक नहीं बल्कि एक रिसर्च प्रोजेक्ट यानि एक थीसिस है। इस तथ्य को बल देने के लिए हमने वीडियो में पुस्तक का एक पन्ना शामिल किया है जिसमें आप रेफरन्स वाले arrow को देख रहे हैं। इसका अर्थ होता है कि जो भी इस पुस्तक में लिखा जा रहा है ,उस original source का स्वाध्याय है। कहने का अर्थ यह हुआ कि अगर पुस्तक में 128 पन्ने हैं और हर पन्ने के नीचे दो रेफरन्स हों तो 256 किताबें पढ़ी गयी है। इस पुस्तक में इतना ज्ञान छिपा है। अंग्रेजी की जिस पुस्तक की सहायता हम ले रहे हैं उसका टाइटल पेज भी इस वीडियो में शामिल किया है। तो हमारे सहकर्मी जान गए होंगें कि यह एक सामूहिक प्रयास है।
श्रीमत स्वामी विराजानंदजी महाराज के एक दीक्षित शिष्य, स्वामी बुधानंद (भवानी महाराज) 1944 में मद्रास मठ में शामिल हुए और 1954 में स्वामी शंकरानंदजी महाराज से संन्यास लिया। वे वेदांत केसरी के संपादक थे, जिसके बाद, 1959 में, उन्हें USA भेजा गया, जहाँ उन्होंने स्वामी निचिलानंदजी के सहायक के रूप में रामकृष्ण विवेकानंद केंद्र न्यूयॉर्क में काम किया। 1966 तक सैन फ्रांसिस्को और हॉलीवुड केंद्रों में सहायक के रूप में भी काम किया। 1967 में वह भारत लौट आए और चंडीगढ़ आश्रम के सचिव बने। 1968 में वह “प्रबुद्ध भारत” के संयुक्त संपादक और बाद में अद्वैत आश्रम, मायावती (उत्तराखंड) के अध्यक्ष बने। 1976 में उन्हें सचिव के रूप में दिल्ली में तैनात किया गया था। वह पूज्य स्वामी वीरेश्वरानंदजी को देखने देने बेलूर मठ गए हुए थे, जब 11 नवंबर 1983 को सेवा प्रतिष्ठान हस्पताल में अचानक हृदय गति रुकने से उनका निधन हो गया।
बुद्धानंद जी एक बहुत ही अच्छे वक्ता और सशक्त लेखक थे। उन्होंने अंग्रेजी और बंगाली में कई लेख और किताबें लिखीं। उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं: “इच्छा-शक्ति और इसका विकास”, “मन और उसका निग्रह ”, “क्या कोई वैज्ञानिक भी आध्यात्मिक हो सकता है”, “धर्म की चुनौती” इत्यादि हैं।
“मन और उसका निग्रह” ऑडियो बुक एवं ebook दोनों ही अद्वैताश्रम की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। इसके लिए आपको इस लिंक पर जाना होगा http://www.advaitaashrama.org/ अगर आप यह पुस्तक खरीदना नहीं चाहते हैं तो 20 मिनट का फ्री preview भी उपलब्ध है जिसमें आप 128 पन्नों की पुस्तक की summary रामकृष्ण संघ के वरिष्ठ सन्यासी जी की वाणी में सुन सकते हैं। यह जानकारी आदरणीय विवेक खजांची जी ने दी जिसके लिए हम उनके आभारी हैं।
तो प्रस्तुत है अध्याय 11 -मन की बनावट को बदलना – का द्वितीय भाग
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श्रीमद्भागवत में हम पढ़ते हैं:
“सत्व , रज और तम, ये तीनों बुद्धि ( प्रकृति) के गुण हैं , आत्मा के नहीं . सत्व के द्वारा रज और तम इन दो गुणों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। तदनंतर सत्व गुण की शान्तिवृत्ति के द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियों को भी शान्त कर देना चाहिए। जब सत्व गुण की वृद्धि होती है, तभी जीव को मेरे भक्ति रुप स्वधर्म की प्राप्ति होती है। और तब मेरे भक्ति रूप स्वधर्म में प्रवृत्ति होने लगती है। जिस धर्म के पालन से सत्वगुण की वृद्धि हो, वही सबसे श्रेष्ठ है। वह धर्म रजोगुण और तमोगुण को नष्ट कर देता है। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्ही के कारण होने वाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है।”
हमारे उद्देश्य की पूर्ति में यह एक महत्वपूर्ण सबक है कि सत्व गुण की वृद्धि से साधक आध्यात्मिकता की प्राप्ति करता है; और आध्यात्मिकता की प्राप्ति तथा मन का निग्रह ये दोनों एक दृष्टि में समानार्थी हैं। अतएव मनोनिग्रह के इच्छुक व्यक्तियों के लिए सत्वगुण की वृद्धि के उपाय जान लेना अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
ये सात्विक बातें और क्रियाएँ कौन सी हैं जिनके द्वारा सत्व की प्रधानता लायी जा सकती है ? भगवान कृष्ण भागवत् में ही आगे कहते हैं : “शास्त्र, जल, प्रजाजनो, देश, समय, कर्म, जन्म,ध्यान,मन्त्र और संस्कार – ये दस, गुणों की वृद्धि के कारण हैं।”
उपर्युक्त श्लोक का तात्पर्य यह है कि ऊपर बतायी गयी दस चीजों में से प्रत्येक के सात्विक, राजसिक और तामसिक पहलू हुआ करते हैं ;
पहला पहलू पवित्रता, ज्ञानालोक और आनन्द की अभिवृद्धि करता है; दूसरा पहलू दु:खदायी प्रतिक्रिया को जन्म देने वाला क्षणिक सुख प्रदान करता है और तीसरा पहलू अज्ञान तथा अधिकाधिक बन्धन को जन्म देता है। भागवत् का उपदेश आगे कहता है: इनमें से शास्त्रज्ञ महात्मा तामसिक की निंदा करते हैं और जो वस्तुएं राजसिक हैं उनकी उपेक्षा करते हैं । जबतक अपनी आत्मा का साक्षात्कार, तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों गुणों की निवृत्ति न हो, तबतक मनुष्य को चाहिए कि सत्वगुण की वृद्धि के लिए सात्विक शास्त्र आदि का ही सेवन करे क्योंकि उससे धर्म की वृद्धि होती है और धर्म की वृद्धि से अन्त:करण शुद्ध होकर आत्मतत्व का ज्ञान होता है।
अन्तिम श्लोक का मथितार्थ यह है:
केवल उन्हीं शास्त्रों का अनुसरण करना चाहिए जो निवृत्ति का यानि ब्रह्म के एकत्व में वापस जाने का पाठ पढाते हों। प्रवृत्ति या अनेकात्मक राजसिकता का अथवा हानिकारक तामसिकता का पाठ पढानेवालू ग्रन्थों का अनुसरण नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार पवित्र जल का व्यवहार करना चाहिए , सुगन्धित जल या मद्य का नहीं, आदि आदि। साधक को रुचिसम्पन्न लोगों से ही मेलजोल रखना चाहिए , संसारी या दुष्ट लोगों से नहीं। एकान्त स्थान का चुनाव करना चाहिए, राजमार्ग या खेल की जगह का नहीं। विक्षेप या अवसाद को बढावा देनेवाले समय में ध्यानाभ्यास करने के बदले ब्राह्ममुहुर्त को ध्यान के अभ्यास के लिए चुनना चाहिए। केवल ऐसे कर्म करने चाहिए जो अनिवार्य हों और नि:स्वार्थ हों; स्वार्थयुक्त या हानिकारक कर्मों से दूर रहना चाहिए। धर्म की शुद्ध और हानिरहित रूपों को ग्रहण करना चाहिए तथा दिखावा–प्रदर्शन वाले एवं अशुद्ध और हानिकारक रूपों को त्याग देना चाहिए। ध्यान ईश्वर का करना चाहिए , विषय -भोगों का नहीं। प्रतिशोध लेने की भावना से शत्रु का ध्यान वर्जनीय है। ऊँ आदि मन मन्त्रों का ही ग्रहण करना चाहिए। सांसारिक उन्नति प्रदान करनेवाले या दूसरों की क्षति करनेवाले मन्त्रों का ग्रहण नहीं करना चाहिए। केवल शरीर या घर को साफ -सुथरा रखना ही हमारा उद्देश्य नहीं है। मन की शुद्धि ही हमारा प्रयोजन है।
उपर्युक्त श्लोकों में प्रामाणिकता के साथ यह उपदेश निबद्ध है कि हम अपने मन के गुणमिश्रण में वांछित परिवर्तन कैसे साधित करें। यह भीतरी परिवर्तन ही मनोनिग्रह का रचनात्मक और विधेयात्मक पहलू है। जबतक यह साधित नहीं होता, तबतक मनोनिग्रह की दिशा में यथार्थत: कोई कदम नहीं रखा जा सकता।
जब इस प्रकार अभ्यास के द्वारा साधक अपने स्वभाव में सत्व की प्रधानता लाने में समर्थ होता है तो समझना चाहिए कि उसने मन: संयम की लड़ाई को आधे से अधिक जीत लिया किन्तु पूरा नहीं। इसका कारण यह है कि सत्व भी आखिरकार मनुष्य के लिए बन्धनकारक है। ‘ गीता कहती है:
हे महाबाहो ! प्रकृति से उत्पन्न हुए सत्व, रज और तम के तीनों गुण इस अविनाशी देही ( जीवात्मा ) को शरीर में जकड़कर बांध देते हैं। हे निष्पाप इन तीन गुणों में प्रकाश करनेवाला, निर्मल और विकार रहित सत्वगुण भी सुख और ज्ञान की आसक्ति से (ज्ञानाभिमान से) बांधता है।
श्रीरामकृष्ण अपने “बटोही(सिपाही) और तीन डाकू” के चुटकुले में इसी बात को निम्नलिखित ढंग से रखते हैं:
यह संसार ही जंगल है। इसमें सत्व, रज और तम तीन डाकू रहते हैं। ये तीनों जीवों का तत्वज्ञान छीन लेते हैं। तमोगुण मारना चाहता है, रजोगुण संसार में फंसाना चाहता है, पर सत्वगुण रज और तम से बचाता है। सत्वगुण का आश्रय मिलने पर काम, क्रोध, आदि तमोगुण से रक्षा होती है। फिर सत्वगुण जीवों का संसार बन्धन तोड़ देता है, पर सत्वगुण भी डाकू है, वह तत्वज्ञान नहीं दे सकता। हाँ वह जीव को उस परमधाम में जाने की राह तक पहुँचा देता है और कहता है, ” वह देखो , तुम्हारा मकान वह दीख रहा है !” जहाँ ब्रहम ज्ञान है वहाँ से सत्वगुण भी बहुत दूर है। ‘
गीता ने जो यह कहा कि “सत्वगुण भी सुख और ज्ञान की आसक्ति से बांधता है” तथा श्रीरामकृष्ण ने जो यह बताया कि “सत्वगुण भी डाकू है” , इनदोनों कथनों का मनोवैज्ञानिक अभिप्राय यह है कि स्वभाव में सत्वगुण की प्रधानता का मतलब पूर्ण निग्रह नहीं समझना चाहिए। पूर्ण मनोनिग्रह के लिए तो गुणों के भी परे जाना पड़ता है। भगवान कृष्ण गीता के चौदहवें अध्याय में गुणों के परे जाने का उपाय बतलाते हैं. वहाँ 26वें श्लोक में वे समूचे रहस्य को अत्यन्त सरल भाषा में, बिना किसी गूढ़ शब्दावली का प्रयोग किये समझाते हुए कहते हैं: “और जो अव्यभिचारी ( कभी न टलने वाले ) भक्तियोग से सम्पन्न हो मुझे भजता है, वह गुणों का अतिक्रमण कर ब्रह्म में एकीभाव प्राप्त करने के योग्य होता है।”
पर बात यह है कि शुद्ध हृदय व्यक्ति ही अव्यभिचारी भक्ति से भगवान को भज सकता है। यदि हमें ऐसा लगे कि हमारा हृदय तो उतना पवित्र नहीं है, अत: अटल भक्ति की साधना हमसे नहीं हो सकेगी, तो हमें हताश नहीं होना चाहिए। निष्ठा पूर्वक भक्ति और अभ्यास से हम क्रमशः अधिकाधिक स्थिर और पवित्र होते जायेंगे।
यदि कतिपय कारणों से परे जाने से इस “सरलतम उपाय” ‘को अपने काम में न ला सके तो मनोनिग्रह के दूसरे तरीके हमारे लिए खुले हुए हैं।
तमस और रज को जीतने की कला जानने के साथ-साथ हमें सत्व को जीतने की कला भी जाननी चाहिए। श्री शंकराचार्य यह कला सिखाते हुए कहते हैं: “तमस का नाश रज और सत्व दोनों से होता है। रज का सत्व से और सत्व शुद्ध होने से नष्ट हो जाता है। अतएव सत्व का सहारा लेकर अपने अभ्यास ( अज्ञान) को दूर कर डालो।”
अगला लेख- सत्संग मनोनिग्रह में बड़ा सहायक है।
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24 आहुति संकल्प सूची :
25 नवम्बर के ज्ञानप्रसाद का स्वाध्याय करने के उपरांत 24 आहुति संकल्प के विजेता निम्नलिखित 7 समर्पित सहकर्मी हैं: 1.आद. सरविन्द पाल जी (32 ), 2.आद.अरुण त्रिखा जी (30 ),3.आद. अरुण वर्मा जी (41 ),4.आद. रजत कुमार जी (37 ),5.आद. संध्या कुमार बहिन जी (26 )6.,प्रेरणा बिटिया (30 ),7.पिंकी पाल बिटिया (33 ) उक्त सभी सूझवान व समर्पित सहकर्मियों को आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की तरफ से साधुवाद व हार्दिक बधाई हो। जगत् जननी माँ गायत्री माता दी की असीम अनुकम्पा इन सभी पर सदैव बरसती रहे यही आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की गुरु सत्ता से विनम्र प्रार्थना व कामना है। धन्यवाद।