22 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद -मन का स्वभाव : हिन्दू दृष्टिकोण भाग 2
आज का ज्ञानप्रसाद स्वामी आत्मानंद जी द्वारा लिखित पुस्तक “मन और उसका निग्रह” के स्वाध्याय के उपरांत आदरणीय अनिल कुमार मिश्रा जी की प्रस्तुति है। यह प्रस्तुति अध्याय 5 का द्वितीय भाग है। लेख के अंत में 24 आहुति -संकल्प के विजेताओं की सूची देखना न भूलें। संकल्प सूची की आज की उपमा भी आदरणीय सरविन्द जी की थी लेकिन शब्द सीमा के कारण हमने अपने अल्पज्ञान से मंथन करते हुए जो कुछ भी प्राप्त हो सका ज्ञानप्रसाद के उपरांत प्रस्तुत किया है। हर बार की भांति आज भी आवश्यक एडिटिंग करके आकर्षण प्रदान किया गया है। हमारे विचार में सरविन्द जी ने हमें एडिटिंग की स्थाई आज्ञा दी हुई है क्योंकि अगर बेस्ट कंटेंट प्रस्तुत करना है तो परस्पर सहयोग से एडिटिंग करना कोई त्रुटि नहीं है। ऑनलाइन ज्ञानरथ द्वारा प्रकाशित कंटेंट( लेख ,वीडियो ) कई वर्षों तक हमारी वेबसाइट पर स्थाई तौर से विराजमान रहेगा। इनकी क्वालिटी पर कोई ऊँगली न उठा सके ,यह सुनिश्चित करना हमारा धर्म और कर्तव्य है। हमारा प्रयास है कि जहाँ कहीं भी यह कंटेंट शेयर हो , पाठक चुंबक की भांति आकर्षित होते आएं, यह केवल अथक परिश्रम और प्रयास से ही संभव है।
तो चलते हैं ज्ञानप्रसाद की ओर ।
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सूक्ष्म जड़-परमाणुओं से बना यह पारदर्शी मन आत्मा के सबसे निकट है; वह इस बोध स्वरूप आत्मा का अन्त:करण यानी भीतरी यंत्र हैl वह प्रकाश का उत्साह नहीं है l मन में अपने आपमें कोई चेतना नहीं है l वह बोधस्वरूप आत्मा से, जिसका कि वह भीतरी यंत्र है,चेतना की आभा ग्रहण करता है और सबको उदभासित करता है l यहाँ तक कि भौतिक प्रकाश भी इसी प्रकार मन के माध्यम से प्रकाशमान होता है l अपना स्वयं का कोई प्रकाश न होते हुए भी मन प्रकाशमान प्रतीत होता है l भले ही लगता है कि मन में ज्ञान की क्रिया होती है, पर वह ज्ञानात्मक नहीं है, वह तो ज्ञान का साधन मात्र हैl चेतना से उधार लिये गये आलोक से प्रकाशमान होने के बावजूद मन ज्ञान का सक्षम साधन है l
हम अपने स्वयं के अनुभव से यह कई प्रकार से जान सकते हैं कि इन्द्रियों और शरीर से पृथक एक मन है l अपनी पांच कर्मेन्द्रियों और पांच ज्ञानेन्द्रियों की सहायता बिना लिए ही हम विचार , इच्छाशक्ति, कल्पना, स्मरण, हर्ष और विषाद की क्रियाएँ कर सकते हैं, इसी से वह प्रमाणित होता है कि इन्द्रियों से पृथक् एक भीतरी यंत्र है, जिसके कारण उपर्युक्त क्रियाएँ सम्भव होतीं हैं l
जो संशय करते हैं कि मन एक पृथक् भीतरी यंत्र है या नहीं, उन्हें मनवाने के लिए बृहदारण्यक उपनिषद निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करता है:
मेरा मन अन्यत्र था, इसलिए जो मनुष्य ऐसा कहता है मैंने नहीं सुना, इसी से निश्चय होता है कि वह मन से ही देखता है और मन से ही सुनता है l काम, संकल्प, संशय, श्रद्धा , अश्रद्धा, धृति ( धारणा-शक्ति), अधृति, बुद्धि भय, ये सब मन ही हैं l पीछे से स्पर्श किये जाने पर भी मनुष्य मनन से जान लेता है अतएव मन है l
मन में अपने आपको देखने की क्षमता है l मन की सहायता से हम मन का विश्लेषण कर सकते हैं और देख सकते हैं कि मन में क्या चल रहा है l हिन्दू विशलेषण के अनुसार मन के तीन उपादान हैं, तीन स्तर हैं, चार प्रकार की क्रियाएँ हैं और पांच अवस्थाएँ हैं l हम संक्षिप्त में इनकी चर्चा करेंगे।
हम मन को हरदम एक ही प्रकार की स्थिति में क्यों नहीं पाते ? कारण यह है कि मन तीन मूलभूत शक्तियों का सम्मिश्रण है, जिन्हें हम सत्व, रज, और तम गुण कहते हैं l ये गुण सम्पूर्ण भौतिक और मानसिक विश्व के भी आधारभूत उपादान हैं l सत्व सन्तुलन का, स्थैर्य का तत्व है, पवित्रता, ज्ञान और आनन्द को जन्म देता है l रज गति का तत्व है और उससे क्रियाशीलता, काम और चांचल्य की उत्पत्ति होती है l तम जड़ता का तत्व है और उससे निष्क्रियता, अवसाद और भ्रम उत्पन्न होते हैं l तमोगुण मन को बिखेर कर चंचल बना देता है और सत्वगुण उसे एक उच्चतरृ दिशा प्रदान करता है l
गुणों की व्याख्या करना सहज नहीं है l अतएव विद्यारण्य पंचदशी में उनके कार्यों को देखकर उनकी व्याख्या करते हैं:
सत्वगुण से वैराग्य, क्षमा, उदारता आदि और रजोगुण से से काम, क्रोध, लोभ, यत्न आदि उत्पन्न होते हैं l आलस्य, भ्रम और तन्द्रा आदि विकार तमोगुण से होते हैं l मन में सत्वगुण के कार्य से पुण्य की और रजोगुण के कार्य से पाप की उत्पत्ति होती है l और जब तमोगुण का कार्य होता है तब न पुण्य होता है, न पाप, किन्तु व्यर्थ ही आयु का नाश होता है l
हर व्यक्ति के मन की बनावट इन तीन गुणों की मात्राओं के सम्मिश्रण तथा हेरफेर से निश्चित की जा सकती है l इससे स्पष्ट हो जाता है कि मानव-स्वभाव इतना वैचित्र्यपूर्ण है क्यों है तथा इससे मन की अस्थिरता की भी व्याख्या हो जाती है l
हम बहुधा कहते हैं कि: “हमने अपना मन बदल दिया है” यदि मन केवल एक ही मौलिक शक्ति तत्व से बना होता, तो मन को बदलना सम्भव न हो पाता l तब तो मनुष्य न तो गिर सकता, न उठ सकता l जो जैसा पैदा हुआ है, उसी प्रकार बना रहता l
हम चेतन और अवचेतन इन दोनों शब्दों से परिचित हैं l ये उन विभिन्न स्तरों को सूचित करते हैं जिनमें मन क्रियाशील होता है l चेतन स्तर पर सभी क्रियाएँ सामान्यतः अहंभाव से युक्त होतीं हैं l अवचेतन स्तर पर अहंकार की भावना लुप्त हो रहतीं हैं l
एक इससे भी ऊंचा स्तर है, जिस पर मन कार्य कर सकता है l मन के अनुरूप चेतन के भी ऊपर जा सकता है l जैसे अवचेतन का स्तर चेतन के नीचे है, उसी प्रकार इस सापेक्ष चेतन के ऊपर भी एक स्तर है l इसे अतिचेतन के नाम से पुकारते हैं l यहाँ भी अहंकार की भावना लुप्त रहती है, पर इसमें तथा अवचेतन स्तर में बहुत बड़ा अन्तर है l जब मन सापेक्ष चेतना से परे चला जाता है तो वह अतिचेतन- स्तर पर आकर समाधिस्थ हो जाता है l अतिचेतन- स्तर पर मन अपनी शुद्ध अवस्था में होता है l एक प्रकार से तब उसे आत्मा से तद्रूप कहा जा सकता है l तभी तो श्रीरामकृष्ण कहा करते थे: “जो शुद्ध मन है, वही शुद्ध बुद्धि है और शुद्ध बुद्धि ही आत्मा है l”
मनोनिग्रह का प्रश्न केवल चेतन-स्तर से सम्बन्ध रखता है, इस स्तर पर मन सामान्यतः अहं- भावना से युक्त होता है l जबतक हम योग में प्रतिष्ठित नहीं हो जाते, तबतक अवचेतन मन को सीधे नियंत्रण में नहीं ला सकते l अतिचेतन स्तर पर मन के निग्रह का प्रश्न उठता ही नहीं l किन्तु अतिचेतन -स्तर पर वे ही पहुँच सकते हैं, जिन्होंने चेतन और अवचेतन स्तरों पर अपने मन को नियंत्रित कर लिया है l
क्रियात्मक मन की चतुर्विध वृतियां होती हैं- मन , बुद्धि, अहंकार और चित्त l मन अन्त:करण की उस वृत्ति को कहते हैं जो किसी भी विषय के पक्ष और विपक्ष में संकल्प-विकल्प करती है l अन्त:करण की निश्चय करनेवाली वृत्ति को बुद्धि कहते हैं l अन्त:करण की स्मरण करनेवाली वृत्ति को चित्त कहते हैं l अन्त:करण की जो वृत्ति अहंभावना से युक्त होती है, उसे अहंकार कहते हैं l प्रत्येक बाह्य इन्द्रिय – संवेदना के साथ मन की ये चारों क्रियाएँ जुड़ी होती हैं l ये चारों क्रियाएँ एक दूसरे के बाद इतनी शीघ्रता से आतीं हैं कि वे एक साथ ही होती प्रतीत होती हैं l
मन अपने को निम्नलिखित पांच अवस्थाओं में प्रकाशित करता है: क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध l स्वामी विवेकानंद समझाते हैं:
क्षिप्त में मन चारों ओर बिखर जाता है और कर्मवासना प्रबल रहती है l इस अवस्था में मन की प्रवृत्ति केवल सुख और दु:ख, इन दो भावों में ही प्रकाशित होने की होती है l मूढ़ अवस्था तमोगगुणात्मक है और इसमें मन की प्रवृत्ति केवल औरों का अनिष्ट करने में होती है l विक्षिप्त ( क्षिप्त से विशिष्ट) अवस्था वह है, जब मन अपने केन्द्र की ओर जाने का प्रयत्न करता है l यहाँ पर भाष्यकार कहते हैं कि विक्षिप्त अवस्था देवताओं के लिए स्वाभाविक है तथा क्षिप्त तथा मूढावस्था असुरों के लिए l एकाग्र अवस्था तभी होती है जब मन निरुद्ध होने के लिए प्रयत्न करता है और निरुद्ध अवस्था ही हमें समाधि में ले जाती है l
सामान्यतः मन मूढ़ और क्षिप्त अवस्थाओं में रहता है l मूढ़ अवस्था में मनुष्य शिथिल और अवसन्न हो जाता है l क्षिप्त अवस्था में वह चांचल्य का अनुभव करता है l योगाभ्यास के द्वारा इसी मन को विक्षिप्त और एकाग्र बनाया जा सकता है l मन को एकाग्र बनाना ही मनोनिग्रह का समस्त प्रयोजन है l जब ऐसे मन को किसी भी क्षेत्र की क्रिया से युक्त किया जाता है तो वह वहीं चमक उठता है l एकाग्र मन से सम्पन्न एक व्यापारी अपने व्यापार में उन्नति करेगा, एकाग्र मन से युक्त एक संगीतज्ञ बहुत बड़ा संगीतज्ञ हो जायगा l एकाग्र मन वाला एक वैज्ञानिक बड़ा ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक बन जाएगा l एकाग्रता के अभ्यास और विकास द्वारा मन
अपनी उच्चतम अर्थात् पांचवी अवस्था में पहुँच जाता है जिसे निरुद्ध कहते हैं, इस अवस्था में मन अतिचेतन स्तर पर चला जाता है l
अगला लेख :मनोनिग्रह को अनावश्यक रूप से कठिन बनाने से कैसे बचें
जय गुरुदेव
कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।
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20 नवम्बर 2021 के ज्ञानप्रसाद, मन का स्वभाव – हिंदू दृष्टिकोण भाग 1 का स्वाध्याय करने वाले 12 सहकर्मियों ने 24 आहुतियों का संकल्प पूर्ण कर अपने जीवन का कायाकल्प किया है। यह बहुत ही प्रशंसनीय कार्य है क्योंकि आहुतियों की उष्णता से विचारों में परिवर्तन देखा जा रहा है। अग्नि का गुण है कि इसमें सभी पदार्थ जल जाते हैं, बदल जाते हैं एवं गल जाते हैं। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसमें अग्नि का संसर्ग होने पर परिवर्तन न होता हो। यह अग्नि ही हैं जिसमें तपने पर सोना कुंदन बना जाता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार के सहकर्मी स्वाध्याय करते हुए अपनेआप को घिसा रहे हैं। घिसाने की रगड़ से गर्मी पैदा होती है और इस ऊष्मा से आत्मशक्ति पैदा होती है। यही आत्मशक्ति हमारे सहकर्मी अनुभव कर रहे हैं। समुद्र मंथन से रत्न मिलते हैं, दूध -मंथन से घी मिलता है ,भूमि मंथन से अन्न उपजता है,आत्म-मंथन से आध्यात्मिक विचार निकलते हैं। इसी मंथन और घिसाव की प्रक्रिया से पापमुक्त,तेजस्वी और विवेकवान मानवों की उत्पति होती है। हम निवेदन करते हैं कि 24 -आहुति संकल्प को आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये, न कि केवल गिनती प्राप्त करने का लक्ष्य । ज्ञानप्रसाद का स्वाध्याय करते हुए परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करना इसका मुख्य उदेश्य है, इसी आदान-प्रदान से रत्न निकल आयेंगें -ऐसा हमारा अटूट विश्वास है।
इन सभी 12 रत्नों को हमारा ह्रदय से आभार एवं नमन – (1) सरविन्द कुमार पाल – 55, (2) डा.अरुन त्रिखा जी – 47, (3) अरूण कुमार वर्मा जी – 46, (4) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 33, (5) संध्या बहन जी – 33, (6) प्रेरणा कुमारी बेटी – 32, (7) विदुषी बहन जी – 30, (8) रजत कुमार जी – 27, (9) पिंकी पाल बेटी – 26, (10) कुसुम बहन जी – 26, (11) राजकुमारी बहन जी – 25, (12) धीरप सिंह तँवर – 25