8 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद,11. परिवार में नई और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष -सरविन्द कुमार पाल 1226 words नवम्बर
परमपूज्य गुरुदेव के कर-कमलों द्वारा रचित “सुख और प्रगति का आधार आदर्श परिवार” नामक लघु पुस्तक का स्वाध्याय करने उपरांत 11 वां लेख।
परिवार निर्माण की आज की कड़ी का विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है -नई और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष। सरविन्द भाई साहिब द्वारा लिखित , हमारे द्वारा एडिटेड इस लेख में आप हमारे व्यक्तिगत विचार भी देखेंगें। अपने विचारों को व्यक्त करते हुए हमने अपनेआप को सावधान भी किया है कि पाठक कहीं यह धारणा न बना लें कि हमारी सोच नकारात्मक है , हम भी एक सुखी आदर्श परिवार की इकाई हैं। जो भी हो हर बार की तरह परमपूज्य गुरुदेव का मार्गदर्शन इस लेख में भी रामबाण का कार्य करने में सफल होगा -ऐसा हमारा अटल विश्वास है।
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परम पूज्य गुरुदेव ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में लिखा है कि आज के युग में अक्सर दो पीढ़ियों के बीच संघर्ष और खींचातानी चलती दिखाई देती है। दो पीढ़ियों का संघर्ष कोई नई बात नहीं है। आज से पहले वाली पीढ़ी में भी था ,आज भी है और आगे भी रहेगा। एक प्रकार से यह प्रकति का नियम ही समझ लेना चाहिए क्योंकि प्रत्येक माता पिता अथक परिश्रम करके अपने बच्चों को अपने से बेहतर बनाने का प्रयास करते हैं , बच्चों के सुनहरी भविष्य के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा देते हैं। उनकी हार्दिक अभिलाषा रहती है कि जो हम न कर पाए हमारे बच्चे करें ,जो हम न बन पाए ,हम अपने बच्चों को बनाएं। जब बच्चे उनसे अच्छे बन भी जाते हैं तो माता पिता गर्व भी अनुभव करते हैं ,लोगों के आगे बताते भी फिरते हैं। लेकिन बच्चों की सोच ,परिस्थियों का नवीनीकरण , आधुनिकता माता पिता को सहन नहीं होता। अक्सर माता पिता से सुनने को मिलता है- हमारे समय में ऐसा नहीं होता था। अगर समय बदल गया है ,एक पीढ़ी बदल गयी है तो उसे स्वीकार करने में क्या आपत्ति है ? आधुनिक परिवारों में जहाँ दोनों पीढ़ियां एक दूसरे से कंधे से कन्धा मिला कर सहयोग दे रही हैं , विचारों का सम्मान कर रही हैं वहां ऐसा संघर्ष ,खींचातानी कम देखने में मिलता है। इसका एक जीवित उदाहरण हमारा सबका ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार है जिसमें कितनी ही पीढ़ियों के सदस्य एक दूसरे के साथ 12 मानीवय मूल्यों की पालना करते हुए बिना किसी मतभेद और संघर्ष के कार्य कर रहे हैं। इन 12 मानीवय मूल्यों -शिष्टाचार,स्नेह,समर्पण,आदर,श्रद्धा ,निष्ठा,विश्वास ,आस्था,सहानुभति , सहभागिता,सद्भावना एवं अनुशासन – को हर कोई सदस्य ऑनलाइन ज्ञानरथ के स्तम्भ समझ कर रक्षा करना अपना परम् कर्तव्य समझता है।
आधुनिक स्कूल, कालेजों से निकलने वाली युवा-पीढ़ी , नवीन सभ्यता से प्रभावित होने के कारण , पुरानी परम्परा, विचारधारा व संस्कारों से ओतप्रोत पुरानी पीढ़ी की विचारधाराओं से ताल-मेल नहीं बना पाती । इस स्थिति के कारण परिवारों में असंतुष्टि और परेशानी का वातावरण है जो कि एक अभिशाप है। हम इस चर्चा में अपनेआप को सावधान करते हुआ लिखना कहते हैं कि यह कोई GENERAL STATEMENT नहीं है ,अपने आस पास हम कितने ही आदर्श परिवार भी देखते हैं।
पुरानी सभ्यता के लोग नवीन सभ्यता में पले हुए युवक-युवतियों से अपने समय की परम्पराओं का पालन कराना चाहते हैं। लेकिन नई सोच और सभ्यता के बच्चे जब उनकी परम्पराओं को नहीं मानते हैं तो उन्हें कोसा जाता है, धिक्कारा जाता है, उल्टा-सीधा बोला जाता है तथा बच्चों को गाली-गलौज का सामना भी करना पड़ता है। परिणाम यह होता है कि परिवार में तनाव की स्थिति बन जाती है, एक ऐसी स्थिति जो परिवार के लिए परमाणु बम का कार्य करती है।
अक्सर ऐसी धारणा बनती हुई दिखती है कि नवीन सभ्यता के स्वतंत्र बच्चों को परिवार के पुरानी सभ्यता के लोगों द्वारा यह रोक-थाम बुरी लगती है। इसलिए परिवार के नवीन सभ्यता के बच्चे अनुशासनहीनता, लापरवाही, उपेक्षा व अनादर का मार्ग अपनाते हैं। परिवार में पुरानी और नई पीढ़ी का यह संघर्ष एक साधारण सी बात बन चुकी है। आज परिवारों में बहुधा देखने को मिलता है कि पुराने ज़माने में पली-पोसी घर की महिलाएं तो अपने समय की मर्यादा, मान्यता और परिस्थितियों में अपनी बहुओं को ढालना चाहती हैं, लेकिन दूसरी ओर आजकल के स्वतंत्रता एवं समानाधिकार के माहौल से ओतप्रोत आधुनिक नारी अपने जीवन के कुछ और ही स्वप्न लेकर अपनी ससुराल आती है। दोनों की विचारधारा में अंतर होने के कारण सास-बहू में प्रतिकूलता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे पारिवारिक संघर्ष का सूत्रपात होता है। ऐसे परिवार से सुख-शांति कोसों दूर चली जाती है और वातावरण अशुद्ध हो जाता है।
परमपूज्य गुरुदेव समझाते हैं कि यह संघर्ष सनातन से चला आ रहा है और थोड़ी-बहुत मात्रा में हमेशा रहता है लेकिन वर्तमान युग में अचानक भारी और बहुत तेज़ी से परिवर्तन हो जाने के कारण टकराव की परिस्थितियाँ अधिक प्रबल, स्पष्ट व प्रभावशाली बन गई हैं। ऐसी परिस्थियों में संघर्ष को और भी बल मिलता है जिससे परिवार के सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा हो जाता है जिसे संभाल पाना सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव हो जाता है।
पारिवारिक कलह को रोकने का अत्यंत सरल विकल्प:
पूज्यवर ने इस समस्या का समाधान सुझाते हुए लिखा है कि यदि इस पारिवारिक कलह को रोकना है तो इसका बहुत ही सरल व सहज विकल्प है
“समन्वय” (COORDINATION ) . “लें” और “दें” (GIVE AND TAKE) की समझौतावादी नीति से लड़ाई-झगड़े की तमाम गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं।
इस नीति में थोड़ा-थोड़ा दोनों को झुकना पड़ता है, तो मिलन का एक केन्द्र बिन्दु सहज ही मिल जाता है। परिवार में यदि नये-पुराने का मत-भेद मिटाना है तो नई पीढ़ी को उग्र व उच्छ्रन्खल नहीं होना चाहिए। उसे भारतीय परम्पराओं का मूल्य और महत्व समझना चाहिए जिससे शिष्टता, सभ्यता और सामाजिक सुरक्षा की बहुमूल्य मर्यादाओं में रहते हुए शांति व्यवस्था और उन्नति का समुचित अवसर प्राप्त होता रहे। पुरानी पीढ़ी को भी अपने उत्तरदाईत्व निभाने में पूरी तरह से शिक्षित होने की आवश्यकता है। उन्हें बच्चों के स्वभाव व चरित्र पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। पहनने-ओढ़ने या फिर हँसने-खेलने में बच्चे आधुनिक तरीके अपनाते हैं, तो उन पर इतना अधिक नियन्त्रण भी नहीं करना चाहिए जिससे बच्चे विरोधी, विद्रोही, उपद्रवी व अवज्ञाकारी के रूप में सामने आएं, इस विषय में थोड़ी ढील छोड़ना ही बुद्धिमानी है। पुरानी परम्परा से जकड़े रहना ठीक नहीं है, समय के साथ-साथ चलना पड़ता है और उसी के अनुरूप परिस्थितियाँ बनानी पड़ती हैं, अपनेआप को ढालना पड़ता है।
संसार परिवर्तनशील है, जो समय के साथ चलता है, समय के अनुरूप परिवार का कुशल नेतृत्व करता है उसका परिवार सुखमय व शांतिमय होता है।
परिवर्तन के तथ्य को बल देने के लिए हमने हरीश भिमानी जी की लगभग 4 मिंट की वीडियो शामिल की है। हरीश भिमानी जी सुप्रसिद्ध मैगा सीरियल महाभारत के अदृश्य पात्र “समय” थे। परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं :इस तरह से पारिवारिक संघर्ष के निवारण के लिए दोनों पक्ष, नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी को विवेकशील व विचारशील कदम उठाने चाहिए। पुरानी पीढ़ी जिसने अपना सर्वस्व लुटाकर स्नेह, प्यार व दुलार के साथ नई पीढ़ी के निर्माण में अपना योगदान दिया, हम सबका परम कर्त्तव्य बनता है कि अपना उत्तरदायित्व समझकर उन वृद्धजनों को चाहे वे किसी भी हालत में हों, उनकी देख-रेख व सेवा की जाए। वृद्धजनों को संतुष्ट रखना,उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने का हर सम्भव प्रयास करते रहना चाहिए। हमारे ऋषि-मुनियों ने “मातृ देवो भव”,”पितृ देवो भव” व “आचार्य देवो भव” का सन्देश इसी अर्थ से दिया होगा। दूसरी ओर वृद्धजनों को भी चाहिए कि जीवन में ऐसी तैयारी करें कि वे नई पीढ़ी के लिए भार बनकर तिरस्कार का कारण न बने बल्कि अपने जीवन की ठोस अनुभवयुक्त शिक्षा, योग्यता से नई पीढ़ी को जीवन यात्रा का सही-सही मार्ग दिखाएँ। अपनी योग्यता व कुशल नेतृत्व से पारिवारिक सामंजस्य ठीक रखें।वानप्रस्थ और सन्यास का विधान इसीलिए रखा गया था कि पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को अपने ज्ञान और अनुभवों से सद्ज्ञान की प्रेरणा देकर उन्नति एवं कल्याण की ओर अग्रसर करने हेतु मार्गदर्शन करती रहे। परिवार में रहकर घर में पड़े-पड़े चारपाई तोड़ना, बेटे-बहुओं की बातों से पीड़ित होना, उनके स्वतंत्र जीवन में रोड़ा बनना, मोह से ग्रस्त होकर बच्चों के बच्चों से लिपटे रहना वृद्धावस्था का अपमान करना है।
आधुनिक रिसर्च के आधार पर वृद्धावस्था को मानव-जीवन की उत्कृष्ट स्थिति कहा गया है ।This is the Golden period of life .
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि पुरानी पीढ़ी के लिए यदि अपने सदुपयोग, सम्मान व उत्कृष्टता का यदि कोई रास्ता है तो केवल वही है जो हमारे पूर्व मनीषियों ने सुझाया था – घर के बंधन, परिवार का मोह, वस्तुओं के आकर्षण से मुक्त होकर वानप्रस्थ या सन्यास का जीवन बिताना और अपने जीवन के अनुभव, ज्ञान व योग्यता से जन-समाज को सही रास्ता बताना। वानप्रस्थ का अर्थ तो होता है वन की ओर प्रस्थान करना लेकिन अगर घर परिवार में ही उस सिद्धांत को अपना लिया जाए तो कितनी ही समस्याओं का निवारण हो सकता है। “जीवन का उत्तरार्ध्द लोक सेवा में लगाएँ” नामक पुस्तक का स्वाध्याय करने से वृद्धावस्था के कितने ही उलझे प्रश्नों का निवारण हो सकता है। केवल 43 पन्नों की यह पुस्तक अखिल विश्व गायत्री परिवार की वेबसाइट पर उपलब्ध है। गुरुदेव ने नई-पुरानी पीढ़ी की आपसी खायी को पाटने का बहुत ही प्रेरणादायक व ज्ञानवर्धक समाधान बताया है जिसे आत्मसात कर हम कुशल नेतृत्व कर परिवार का सही संचालन कर सकते हैं और परिवार के मत-भेद मिटाकर सुख-शांति का वातावरण बना सकते हैं।
संयुक्त परिवार की कुछ सामुहिक पाबंदियां होती हैं। यह पाबंदियां तो नाना प्रकार की हैं लेकिन सबसे बड़ी समस्या वित्तीय समस्या होती है। आज के विकासशील समय में पदार्थवाद ने हम सबको इस तरह जकड़ कर रखा हुआ है कि न-न करने के बावजूद हम अपने घरों को पदार्थों से इस प्रकार भर रहे हैं जैसे वह घर न होकर एक गोदाम हों। ऐसी प्रवृति के कई कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण तो एक ही है -सब कुछ किस्तों पर ,क्रेडिट कार्डों पर, ऑनलाइन शॉपिंग पोर्टलस पर उपलब्ध होना है। यह सुविधा कुछ समय पहले तक तो नहीं थी , हर खरीद के लिए नकद पैसे देने होते थे और जब तक हमारे पास पैसे नहीं होते थे हम खरीदने का साहस ही नहीं करते थे। इस समस्या से जूझने के लिए गुरुदेव कहते हैं कि संयुक्त परिवार में किसी को भी अपव्यय (wastage ) न करने दिया जाए लेकिन उचित आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य की जानी चाहिए। जो प्राप्त है वही पर्याप्त है का सिद्धांत अमल में लाना चाहिए लेकिन उस सिद्धांत के चक्कर में परिवार कलह -क्लेश का मैदान न बन जाए, इसका भी ख्याल रखना ज़रूरी होना चाहिए। जी भी हो पैसे की फिज़ूल खर्ची व फूकने की आदत नहीं पड़ने देनी चाहिए। प्यार-दुलारऔर मोह में बच्चों को अपव्ययी बना देने का अर्थ है, उन्हें भावी जीवन में दुख-दारिद्रय भुगतने का शाप देना।
मित्रो, यह तो हमने केवल एक ही पहलु -वित्तीय पहलु -पर चर्चा की है, संयुक्त परिवार में आये दिन इससे भी जटिल और कितनी ही समस्याएं आती रहती हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे सूझवान ,विवेकशील ,बुद्धिमान सहकर्मी परमपूज्य गुरुदेव की शिक्षाओं से अपने परिवारों में स्वर्गीय वातावरण बनाने में सफल तो होंगें हीं ,साथ में आस-पास के परिवारों के लिए एक उदाहरण भी बनेगें – यही है हमारे गुरुदेव का मार्गदर्शन, ऑनलाइन ज्ञानरथ का सन्देश।
इन्ही शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देते हैं जय गुरुदेव।
कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें