7 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद 10 – परिवार निर्माण के लिए स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़े – सरविन्द कुमार पाल
परमपूज्य गुरुदेव के कर-कमलों द्वारा रचित “सुख और प्रगति का आधार आदर्श परिवार” नामक लघु पुस्तक का स्वाध्याय करने उपरांत दसवां लेख।
आज का ज्ञानप्रसाद बहुत ही संक्षिप्त था लेकिन हमने इसको आकर्षक ,सरल और रोचक बनाने की दृष्टि से इसमें कुछ additions की हैं ताकि हमारे परिजनों को अपने अन्तःकरण में उतारने में कोई भी कठिनाई न हो। यही कारण है कि हम गुरुदेव के साहित्य में से कंटेंट निकाल- निकाल कर, स्वयं चर्चा करके , परिजनों से भी चर्चा की आशा रखते हुए कार्य कर रहे हैं। हमने बहुत ही कम परिजनों के साथ बात की है लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि “ एक virtual प्रज्ञा मंडल” कार्यरत है जिसमें हर कोई अपने अपने विचार रख रहा है। इन्ही विचारों के आदान -प्रदान की प्रक्रिया का सुझाव हमने कुछ समय पूर्व काउंटर कमैंट्स का दिया था। इस प्रक्रिया ने आज जो विराट रूप धारण किया है उसकी एक छवि हमअलग अपडेट में पोस्ट कर रहे हैं । कई बार प्रश्न उठता है कि ज्ञानप्रसाद के भरी भरकम लेख लिखने के बजाए उन्ही साहित्य का रेफरन्स क्यों नहीं दे देते – एकदम उत्तर आता है -तो फिर तूने क्या किया। तुन्हे कैसे पता चलेगा कि सहकर्मियों ने इनको पढ़ा भी है कि नहीं, अगर पढ़ा है तो किसके अन्तःकरण में यह ज्ञान घर कर गया ,क्योंकि इस बात का पता तो तभी चलेगा जब कोई अपने विचार शेयर करेगा, क्योंकि विचारों की भाषा आत्मा की भाषा होती है ,और आत्मा की भाषा परमात्मा की भाषा होती है। आप सब स्वयं देख रहे हैं कि जो परिजन केवल “जय गुरुदेव ,धन्यवाद्” कमेंट करते थे आज इतने विस्तृत ,ज्ञानवर्धक कमेंट कर हैं जिनसे औरों को भी ज्ञान तो मिल ही रहा है साथ में सहकारिता ,निष्ठां ,समर्पण और सहभागिता के सिद्धांत को भी बल मिल रहा है। हम सभी सहकर्मियों की श्रद्धा को नतमस्तक हैं। सरविन्द भाई साहिब ने यह summary रात के दो बजे ( भारतीय समय )भेजी। रामलीला में उनकी व्यस्तता के बावजूद वह हमारे साथ व्हाट्सप्प पर जुड़े रहे -धन्यवाद् भाई साहिब -आपके समर्पण को नतमस्तक हैं।
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प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद :
परमपूज्य गुरुदेव ने अति सुन्दर विश्लेषण कर उल्लेख किया है कि हमें परिवार में स्वाध्याय करने की आदत डालनी चाहिए। स्वाध्याय अधिक से अधिक लोगों को परिष्कृत( refinement ) करने का सबसे सरल,सहज व सर्वसुलभ विकल्प है। उठने-बैठने, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने,नहाने-धोने, सोने-जागने और दैनंदिन काम करने की आदत अपनेआप ही अनुकरण से विकसित होती जाती है लेकिन अच्छी भावनाओं और विचारों का बीजारोपण केवल अच्छे साहित्य द्वारा ही संभव हो पाता है । सृष्टि और मानव जीवन के विषय में मनुष्य की धारणा साहित्य से ही बनती है। ज्ञान अथाह है,असीमित है,अनंत है। कोई भी मनुष्य सब कुछ नहीं जान सकता है। कहने का तात्पर्य यह हुआ कि हम सब लोग सर्वज्ञाता ( जिसे सब किसी का ज्ञान हो ) नहीं बन सकते हैं। यह क्षमता केवल परमपूज्य गुरुदेव को ही प्राप्त है। मनुष्य के लिए तो समय भी सीमित है और उस सीमित समय में से स्वाध्याय के लिए समय निकाल पाना बहुत बड़ी समस्या हो सकती है।परमपूज्य गुरुदेव ने इस समस्या के निवारण के लिए हमसे कुछ प्रश्न पूछे हैं। इन प्रश्नों के उत्तर जानने का केवल एक ही मार्ग है और वह है -स्वाध्याय। आइये देखें कौन से हैं वह प्रश्न ?
1.मनुष्य क्या है ?
2.जीवन क्या है ?
3.जीवन का प्रयोजन क्या है ?
4.प्रयोजन की प्राप्ति के मार्ग कौन-कौन से हैं ?
5.हमारे लिए अधिक अनुकूल मार्ग कौन-सा हो सकता है ?
6.उस मार्ग पर बढ़ते रहने की व्यवस्था किस प्रकार बनाई जा सकती है ?
7.उस मार्ग में संभावित अवरोध क्या होंगे ?
8.उन अवरोधों का सामना कैसे किया जाएगा ?
9.परिष्कृत व्यक्तित्व किसे कहा जा सकता है ?
10. स्वयं के व्यक्तित्व का वैसा परिष्कार कैसे किया जा सकता है ?
इन प्रश्नों के इलावा भी और हज़ारों प्रश्न होंगें जिनके उत्तर हमारे पास नहीं हैं इसलिए इन प्रश्नों को एक से दस तक लिखना केवल symbolic ही है।
यही है स्वाध्याय – ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास ही स्वाध्याय के अंतर्गत ही आते हैं।
परमपूज्य गुरुदेव बताते हैं कि “व्यक्ति निर्माण” की प्रक्रिया का मार्ग यही है कि प्रत्येक परिवार में श्रेष्ठ वातावरण के निर्माण का सराहनीय प्रयास किया जाए और स्वाध्याय की आदत विकसित की जाए। हमारे परिजन व्यक्ति निर्माण से भलीभांति परिचित हैं। व्यक्ति निर्माण -परिवार निर्माण -समाज निर्माण -राष्ट्र निर्माण गायत्री परिवार का ,हमारे परमपूज्य गुरुदेव का सबसे उत्कृष्ट उद्घोष है। इसीलिए युगतीर्थ शांतिकुंज को व्यक्ति बनाने की टकसाल कहा जाता है। जिन परिजनों को इस युगतीर्थ में जाने का ,वहां कुछ समय रहने का ,वहां के वातावरण का स्वाद चखने का सौभाग्य हुआ है वह हमारी बात से पूर्णतया सहमत होंगें। जिन्हे अभी तक युगतीर्थ शांतिकुंज जाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका है उनके लिए ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार पूर्णतया कार्यरत है कि प्रत्येक घर में शांतिकुंज की स्थापना हो सके। यह स्थापना स्वाध्याय से अवश्य हो सकेगी -ऐसा हमारा अटूट विश्वास है।
स्वाध्याय के लिए परिजनों से प्रतिदिन कम से कम 30 मिनट के “समयदान” के लिए निवेदन किया जाए जिससे वह अपना कायाकल्प करके अपने जीवन को कृतार्थ कर सकें। आजकल के तथाकथित शिक्षित परिवारों में धार्मिकता की पुरानी परम्पराओं को अधिकांश लोग अनुपयोगी ही समझते हैं। ऐसे अधिकतर परिवारों में अंदर ही अंदर धार्मिकता के प्रति नज़रअंदाज़ का भाव घर कर चुका है। इसलिए धार्मिकता के सही स्वरूप को समझाने के लिए स्वाध्याय एवं धार्मिक क्रियाओं का समन्वित स्वरूप अपनाना चाहिए। यह बात शत प्रतिशत सही है कि हमारा युवावर्ग कभी भी ऑंखें मून्दकर किसी भी रूढ़ि सिद्धांत को नहीं मानेगा। युवावर्ग की तो बात ही छोड़ देतें हैं -क्या हमारा छोटा ,नन्हा बच्चा हमारी कोई भी बात बिना counter question किए स्वीकार कर लेता है ? -नहीं – आज से कुछ वर्ष पूर्व तो माता-पिता यह कह कर चुप करा देते थे -NO ARGUMENTS यह समय की पुकार है ,नया युग है। आज का युग प्रतक्ष्यवाद का युग है। आज का मानव उपयोगिता को समझना चाहता है , आँख मूँद कर किसी की बात पर विश्वास करने का युग नहीं है। आधुनिकता के नाम पर बढ़ रही त्रुटियों के कारण वह इस पुरातन साहित्य के स्वाध्याय को रूढ़िवादिता के साथ जोड़ा तो जा सकता है लेकिन आत्मावलोकन प्रणाली (introspection system) से स्वयं उन्हीं निष्कर्षों तक पहुँचने पर वह दुगुने उत्साह के साथ इन विचारों के प्रचार-प्रसार में जुट सकता है।
“आत्मावलोकन की सर्वोत्तम पद्धति स्वाध्याय ही है। आत्मावलोकन का अर्थ होता है -अपनेआप को जानना।”
ऊपर लिखे 10 प्रश्नों के उत्तर शायद ही किसी तथाकथित शिक्षित व्यक्ति के पास हों – हमारे पास तो नहीं हैं।
यही कारण है कि गुरुदेव ने धार्मिकता के प्रगतिशील स्वरूप को स्वाध्याय की आदत से जोड़ा जाना आवश्यक माना है। सत्साहित्य (अच्छा साहित्य ) के पठन-पाठन से व श्रेष्ठ परम्पराओं के संयुक्त प्रयास से धार्मिकता का सात्विक विकास निर्मित होकर प्रेरणा एवं प्रकाश के केन्द्र का काम करता है। व्यक्ति और समाज में जब रूपान्तरण की घटना घटती है, तो उसका प्रमुख माध्यम “स्वाध्याय” ही होता हैं और स्वाध्याय से सत्प्रेरणा मिलती है। जब यह सत्प्रेरणा आचरण में उतरती है,तो उसका परिवर्तन सामने आता है। एक ऐसा परिवर्तन, जो यदि अनवरत चलता रहे तो नर को नारायण, मानव को महामानव और समाज को स्वर्ग बना देता है। परमपूज्य गुरुदेव ने सम्पूर्ण जगत के लिए “युगसाहित्य” रूपी एक ऐसा अमूल्य रत्न देकर समूची मानव जाति के लिए एक प्रकाश-पथ की रचना कर दी है।
अब आवश्यकता है कि हम सब इस साहित्य का नियमित रूप से स्वाध्याय करें और अपने अंतःकरण में महानता के अवतरण को साकार करें।ऑनलाइन ज्ञानरथ में हम सब इसी प्रयास में जुटे हुए हैं। प्रतिदिन सूर्य की प्रथम किरण के साथ दैनिक ज्ञानप्रसाद इसी दिशा में एक प्रयास है।
हमारा प्रयास है कि प्रत्येक परिवार में स्वाध्याय की परंपरा चले और इसके लिए घर में यथासंभव एक अलग कमरा रखा जाए जैसे पूजन-कक्ष होता है। इस कमरे में आधुनिक अच्छी पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही उत्कृष्ट पुस्तकें भीरहें और इस कमरे की तथा अलमारी में राखी सभी पुस्तकों की साफ-सफाई व स्वच्छता का ध्यान पूजा-कक्ष की ही तरह ही रखा जाना चाहिए। समय-समय पर पुस्तकों को धूप-स्नान कराना न भूलें तथा फिनाइल की गोलियां भी उस अलमारी में रख दी जाएं, ताकि किताबों में कीड़े-मकोड़े न लग सकें। जीवन निर्माण में सहायक पुस्तकें,अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना जैसी पत्रिकाओं के नियमित पाठक बनाकर अपना सुधार करते हुए औरों को सुधारने एवं परिष्कृत करने का पुण्य कमाया जा सकता है।
अगर हम कहते हैं कि समय बदल गया है तो नए साधन भी तो उपलब्ध हो गए हैं। हमारे पूर्वर्जों के पास कहाँ मोबाइल फ़ोन थे ,इंटरनेट था। इतनी दूर से हमारा ज्ञानप्रसाद आपके पास एकदम पहुँच रहा है – कभी कल्पना की थी क्या ? अगर कहा जाये कि आज स्वाध्याय करना अधिक सरल है तो शायद गलत न हो। सत्प्रेरणा देने, सद्विचार व सद्भावनाएं जगाने वाला साहित्य कहाँ से मिल सकता है? सम्भव प्रयास करने पर इसकी जानकारी कर पाना कोई कठिन समस्या नहीं है। आजकल तो कहीं भी जाकर ढूंढने की समस्या नहीं है। गूगल महाराज हमारे सबसे बड़े मार्गदर्शक के रूप में 24 घंटे हमारी सेवा में उपस्थित हैं। श्रेष्ठ विचार, उत्कृष्ट भावनाएँ और बड़ी कल्पनाएँ अच्छी पुस्तकों में ही उपलब्ध हो सकती हैं। अतः सत्साहित्य के नियमित स्वाध्याय से जीवन को विकास एवं प्रगति की दिशा में अग्रणी बना सकने में परिवार के सभी सदस्य समर्थ हो सकें, इसके लिए उनमें स्वाध्याय की आदत विकसित की जानी चाहिए जिससे कि वह नशीले पदार्थो की तरह नियमित सत्साहित्य पढ़ने के आदी हो जाएं और यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी परिवार के मुखिया की होनी चाहिए कि वह अपना परम कर्त्तव्य समझकर या गुरु आज्ञा मानकर अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करे। विचारों और भावनाओं के संघर्ष में यही पुस्तकें ही सहायक सिद्ध होती हैं। इसलिए परिवार में जीवन निर्माण की प्रेरणा भरने वाले साहित्य का होना और उसके स्वाध्याय की आदत परिवार के सभी सदस्यों में होना आवश्यक है। यदि परिवार में स्वाध्याय की आदत न हुई तो पुस्तकों या साहित्य का संग्रह किस काम का ? अतः परिवार का हर सदस्य स्वाध्याय को अपनी आदत में ढाले और स्वाध्याय का समय नियत और नियमित हो जो कि अति उत्तम है। यदि परिवार के सभी सदस्य आपस में मिलकर साथ-साथ बैठकर महत्वपूर्ण एवं मार्मिक प्रसंगों की सहचर्चा या सत्संग करें तो अति उत्तम है। सहचर्चा या सत्संग से सद्भावना पुष्ट होती है। परिवार में एक साथ रहकर, उठते-बैठते, चलते-फिरते व खाते-पीते भी उन पर चर्चा होती रह सकती है। ऐसी चर्चा से एक तो परिवार के सभी सदस्यों में आत्मीयतापूर्ण संवाद की स्थिति बनी रहेगी, दुसरे सूझ-बूझ का विकास होगा क्योंकि “खाली दिमाग, शैतान का घर” होता है। प्रत्येक परिवार में “ज्ञान-देवता” की इस उपासना, साधना व आराधना के साथ-साथ “भाव-देवता” की नियमित उपासना साधना व आराधना भी चलनी चाहिए तभी पारिवारिक संतुलन को साधा जा सकता है और परिवारों में स्वाध्याय की आदतों को बढ़ाया जा सकता है।
इन्ही शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देते हैं जय गुरुदेव।
कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें