3 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद – 8. परिवार निर्माण के लिए सुसम्पन्ता (ऐश्वर्य ) ही नहीं,सुसंस्कृत भी बनाएं -सरविन्द कुमार पाल
परम पूज्य गुरुदेव के कर-कमलों द्वारा रचित “सुख और प्रगति का आधार आदर्श परिवार” नामक लघु पुस्तक का स्वाध्याय करने उपरांत आठवां लेख।
आज का ज्ञान प्रसाद आरम्भ करने से पहले आइए हम सब भाई बहिन सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से उन पांच ग्रुपों के सहकर्मियों को बधाई दें , अपने श्रद्धा सुमन भेंट करें जिन्होंने पंचशील का सम्मान प्राप्त किया है। अभी कुछ ही दिन पूर्व सरविन्द भाई साहिब ने कमैंट्स की 24 आहुतियों का सुझाव दिया था और आग्रह किया था कि सभी भाई बहिन इस संकल्प में अपना योगदान देकर पुण्य के भागीदार बनें। उनके आग्रह का सम्मान करते हुए एक नहीं ,दो नहीं पांच ग्रुपों ने इस टारगेट को पार करते हुए ऑनलाइन ज्ञानरथ की श्रद्धा और समर्पण में चार चाँद लगाए हैं। यह पांच ग्रुप -हमारी प्रेरणा बिटिया -२४, सरविन्द भाई साहिब -३१,रेनू श्रीवास्तव बहिन जी -२७,संध्या बहिन -२७ और अरुण वर्मा भाई साहिब – २६ हैं। इस संकल्प और पुरषार्थ को ऐसा -वैसा न समझा जाये ,यह एक milestone है, जो ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार की संकल्प शक्ति का साक्षी है।
अब बात आती है आज के लेख की – यह लेख बहुत ही छोटा था, इसे किसी और लेख के साथ club भी नहीं किया जा सकता था। तो हमें अवसर मिला कि हम इतने महत्वपूर्ण लेख में अपने विचार व्यक्त करें। विचार व्यक्त करने को हमारा मन तो रोज़ ही करता था लेकिन शब्द सीमा हमें आज्ञा नहीं देती थी। हो सकता “जो प्राप्त है वही पर्याप्त है” सिद्धांत और अल्प साधनों वाली बातें कई पाठकों के मन को भाती हों लेकिन यह हमारे व्यक्तिगत विचार है ,किसी का भी हमारे साथ सहमत होना य न होना उनकी स्वंत्रता है। हमने तो वही लिखा जो हमने सम्पूर्ण जीवन भर किया य देखा।
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परम पूज्य गुरुदेव बहुत ही सरल भाषा में लिखकर समझाते हैं कि धन निर्वाह की एक सर्वविदित आवश्यकता है, लेकिन वह आवश्यकता उतनी बड़ी भी नहीं है कि जिसके उन्माद में उन्नति की अनेक प्रकार की आवश्यकताओं को पूरी तरह से भुला ही दिया जाए,यह कदाचित ठीक नहीं है।
धन बहुत कुछ है लेकिन धन ही सब कुछ नहीं है।
मनुष्य का सम्पूर्ण विकास ही वास्तविक विकास माना जाता है। यदि शरीर का एक अंग बहुत ही मोटा या फूल जाए तो यह कोई उपलब्धि नहीं बल्कि बीमारी ही कही जाएगा। इसी प्रकार यदि परिवार की अर्थव्यवस्था तो बहुत ठीक है, लेकिन यदि परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य, स्वभाव व चिन्तन-चरित्र गड़बड़ाने लगे और वे सभी निरंतर दुष्प्रवृत्तियों के कुचक्र में उलझते जाएं तो समझ लिया जाना चाहिए कि परिवार में संकटों के के बादल घिरने लगे हैं और परिवार में बहुत बड़ा संकट खड़ा होने वाला है। इन विषम परिस्थितियों में पारिवारिक सम्पन्नता दुर्गुणों की वृद्धि में सहायक सिद्ध होगी। ऐसी स्थिति बहुत ही भयानक विनाश का कारण बनेगी और पारिवारिक सम्पन्नता या अर्थव्यवस्था एक दिन जलकर राख हो जाएगी। गुरुदेव लिखते हैं कि इससे अधिक फायदे में तो वह गरीब हैं जो कि रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं , दुर्व्यसनों के लिए उन गरीबों के पास खाली समय ही नहीं रहता है और अनावश्यक खर्च करने के लिए उनके पास इतनी धन-सुविधा है ही नहीं ।
गरीब “जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है” को ईश्वर मानकर अपने परिवार में मस्त रहता है।
वह परिवार को ही सर्वोपरि मानकर उसी की जीवन साधना में दिन भर उपासना करता रहता है और परिवार को सुसंस्कृत ( संस्कारवान ) बनाकर समुन्नत जीवन जीता है। वही भगवान का सबसे बड़ा व सच्चा भक्त होता है। निर्वाह साधनों की तरह स्वास्थ्य भी एक महती आवश्यकता है और उसे वास्तविक व आधारभूत माना जाना चाहिए। स्वास्थ्य की प्राप्ति महँगे-महँगे स्वादिष्ट व्यंजनों या पौष्टिक दवाओं के सहारे नहीं बल्कि प्रकृति का अनुसरण करने से होती है। इन्द्रिय संयम आहार में ही नहीं, विहार में भी करना चाहिए। देखा गया है कि अधिकतर लोग आवश्यकता से अधिक मात्रा में अभक्ष्य पदार्थों का समय-कुसमय भक्षण करते रहते हैं। रसोईघर में क्या बने, किस प्रकार बने और उसे कौन कितनी मात्रा में, किस प्रकार खाए, इसकी सुव्यवस्था बना लेना, घर को एक सुरक्षित किला बना लेना है।
आहार, श्रम और दिनचर्या में सुव्यवस्था का नियम एक ऐसा सिद्धांत है जिसका ठीक तरह से पालन करते रहने पर स्वस्थ रहने की गारंटी मिल जाती है।
स्वास्थ्य के अभाव में सब कुछ नगण्य हो जाता है और नाना-प्रकार के स्वादिष्ट व पौष्टिक व्यंजन का महत्व कुछ मायने नहीं रखता है। परिवार के मुखिया उचित-अनुचित तरीकों से अपनी व अपने परिवार की सम्पन्नता बढ़ाने में अनवरत जुटे रहते हैं और इसी में वे अपना गौरव मानते हैं तथा वर्तमान व भविष्य को सुख-शांति से भरा-पूरा होने की निरंतर कल्पना भी करते रहते हैं। लेकिन होता ठीक इससे विपरीत ही है। परिवार में जब अनावश्यक धन आ जाता है तो फिर अपव्यय ( wastage ) सूझता है और उसके बदले में बुरी संगति में पड़कर व्यसन व दुर्गुणों का पिटारा ही हाथ पल्ले पड़ता है। सम्पदा के बदले खरीदे गए दुर्गुण जीवन के साथ जोंक की तरह चिपक जाते हैं और खून पीते रहते हैं। इस तरह से पारिवारिक सम्पन्नता हमें विलासिता सिखाती है, आलसी, प्रमादी व अहंकारी बनाती है। इस सत्यता को न समझ पाने वाले ही यह सोचते रहते हैं कि धन-वैभव ही सब कुछ है और उसकी बड़ी मात्रा हाथ लगने पर सुख- सुविधा के प्रचुर साधन जुटाए जा सकते हैं। ऐसे लोग अपने को व अपने परिवार को सर्वगुणसम्पन्न मान लेते हैं जो परिवार के हितार्थ नहीं है। परमपूज्य गुरुदेव ने ऐसे ही लोगों को भटका हुआ देवता की संज्ञा दी है जो एकदम सत्य है। परिवार को सुसम्पन्न बनाने के लिए जितना प्रयास किया जाता है, उसकी अपेक्षा यदि परिवार को परिष्कृत कर सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न किया जाए तो कितना ही अच्छा हो। धन कमाने की इस RAT- RACE ने परिवारों का सत्यानाश सा कर रखा है। हम-आप सभी वर्तमान युग के ही प्राणी हैं। इस RAT RACE का आँखों देखा हाल हमें आए दिन देखने को मिलता रहता है जो हमारे परिवारों में कलह का कारण बन चुका है। और सबसे बड़ी हैरानगी वाली बात तो यह है कि इस रेस में हमारे इर्द -गिर्द हर कोई लगा हुआ है, हर कोई criticize भी कर रहा है। इसी double -standard ने हमारा सत्यानाश कर दिया है। घर का मुखिया अक्सर यही कहता सुना जायेगा – “ मैं रात दिन मर -मर कर आप के लिए ही तो कमा रहा हूँ” और ऐसे मुखिया लोगों के पास समय ही नहीं है कि वह अपनी संतान को कुछ अच्छे संस्कार दे सकें। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं “संस्कारवान पीढ़ी वह सम्पदा है जो जीवन भर तो साथ देती ही है, आने वाली कई पीढ़ियों को भी संस्कारित करती जाती है । ऐसे वातावरण से ही नर- रत्न निकलते हैं। यह पंक्तियाँ हम अपने एक सहकर्मी के कमेंट से प्रेरित होकर लिख रहे हैं। कमेंट करने वालों के नाम का ज्ञान होता तो नाम से धन्यवाद् कर देते परन्तु इस कमेंट की ID किसी स्कूल के नाम से सेव की हुई है। संस्कारवान एवं सद्गुणी मनुष्य अपनों के बीच ही नहीं दूसरों के बीच भी सम्मान और सहयोग प्राप्त करता है। इतिहास साक्षी है कि महापुरषों को हम उनके सद्गुणों के कारण ही जानते हैं क्योंकि सद्गुणों से उनके व्यक्तित्व का वजन बढ़ता है, उन्हें हर जगह मान-सम्मान मिलता है और समाज में उनका बढ़- चढ़कर मूल्यान्कन होता है।
परमपूज्य गुरुदेव समझाते हैं कि सुसंस्कृतता ही वह आधार है जिसके कारण सबका स्नेह, सहयोग व सद्भाव परिपक्व रहता है। जिस किसी के पास यह उच्चस्तरीय पूंजी है, उसके पास निर्वाह के बहुत ही कम साधन रहते हुए भी आत्मसंतोष एवं लोकसम्मान की कभी कमी नहीं रहती , वह सदा सुखी व समुन्नत जीवन जीता है और वही भगवान का सबसे प्रिय भक्त होता है। ऐसा मनुष्य इतना अर्जित कर सका कि उसके पास सामान्य सुविधाएं ( BASIC NEEDS) हैं। सामान्य सुविधाएँ होने के बावजूद ऐसे मनुष्य को कभी भी अनुभव नहीं होता है कि वह दरिद्र है य उसे दूसरों से कम प्रसन्नता मिल रही है। वह तनिक भी चिन्ता नहीं करता है कि दूसरों के पास क्या है ,कौन सी गाड़ी है ,कितने बैड रूम का घर है। और सबसे बड़ी बात वह हमेशा खुश रहता है।
हमारे पाठक/ सहकर्मी अवश्य ही सोच रहे होंगें कि यह बातें लिखने के लिए /प्रवचन करने लिए बहुत अच्छी लगती है -रियल लाइफ में बहुत ही कठिन है ,कुछ और ही है। ऐसे पाठकों से हम एकदम सहमत हैं -बहुत कठिन है – इसलिए तो संस्कारित परिवार को “ तपस्या” की संज्ञा दी गयी है। परमपूज्य गुरुदेव के जीवन से हमें अवश्य सीखना चाहिए नहीं तो चाहे हम 400 लेख लिख दें य 4000 , यह केवल पन्नें काले करने जैसा ही होगा।
परिवार को सुसम्पन्न बनाने के व्यापक प्रचलन में बदलाव अवश्य ही होना चाहिए और विचार करना चाहिए कि इस ललक को अधिक मात्रा में परिपोषण करने का दुष्परिणाम एक न एक दिन सामने आकर ही रहेगा। इसलिए जितना निर्वाह के लिए नितान्त आवश्यक है, उतना ही कमाया जाए ताकि किसी को पूर्वजों की गाढ़ी कमाई पर गुलछर्रे उड़ाते दिन काटने की ललक न उठे। परिवार के हर सदस्य को यह सोचने का मौका देना चाहिए कि हमारे बच्चों को अपने पैरों खड़े होना है और उसे स्वावलंबी बनना है। हर प्रगतिशील को सद्गुणों की पूंजी ही शुरू से अंत तक काम देती रही है और उसी के भरोसे अपने को समर्थ, सुयोग्य, प्रमाणिक व सम्मानित बनने का सुअवसर मिलता रहा है और यदि दूरदर्शिता की तनिक भी कमी रही तो उसका सदुपयोग नहीं बन पड़ता है बल्कि दुखों का जखीरा जमा करते जाते हैं।
परमपूज्य गुरुदेव बताते हैं कि जिस प्रकार शिल्प, संगीत, साहित्य व कला-कौशल अर्जित करने के लिए बहुत दिनों तक लगातार अभ्यास करना पड़ता है, उसी प्रकार सद्गुणों को स्वभाव का अंग बनाने के लिए हमें दैनिक जीवन में भरपूर स्थान देने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना पड़ता है। ऐसा इसलिए है कि आदतें देर से पकती हैं, वे हथेली पर सरसों जमाने की तरह न तो तुरत-फुरत उपलब्ध होती हैं और न ही हम जमी हुई आदतों को जल्दी -जल्दी छोड़ पाते हैं। उन्हें योजनाबद्ध तरीके से अपनाकर व्यवहार में उतारना पड़ता है। इसलिए परिवार के वरिष्ठों का ध्यान इस पर पर केन्द्रित रहना चाहिए और उन्हें अपने पारिवारिक सदस्यों को सुशिक्षित व सुसंस्कारी बनाने के लिए पूरी सतर्कता के साथ निरंतर प्रयत्न करना चाहिए। इस पुनीत कार्य में परिवार के मुखिया को रत्ती भर भी कंजूसी नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि थोड़ी सी लापरवाही नरक का द्वार खोल सकती है।अभी पिछले ही लेख में लिखा था “सावधानी हटी दुर्घटना घटी” -यह signboard हमें वार्निंग देने के लिए ही होते हैं। हम क्षमा चाहते हैं -हमारे लेख भी अवगत कराने के लिए ही हैं।
आज इतना ही ,जय गुरुदेव
कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।