1 नवम्बर का ज्ञानप्रसाद 2021 6. पारिवारिक संगठन को बिखरने से कैसे बचाएँ सरविन्द कुमार पाल
परम पूज्य गुरुदेव के कर-कमलों द्वारा रचित “सुख और प्रगति का आधार आदर्श परिवार” नामक लघु पुस्तक का स्वाध्याय करने उपरांत छठा लेख।
आदरणीय सरविन्द भाई साहिब द्वारा रचित और हमारी कठिन एडिटिंग के पश्चात आज का लेख आपके समक्ष प्रस्तुत है। कठिन इस कारण कि कुछ अंश ऐसे थे जिन्हे delete करना उचित था और कुछ अंश अगले भाग में से शामिल करने पड़े। यही कारण है कि भूमिका लिखने के लिए समय ही नहीं बचा, पहले ही यह लेख नार्मल समय से थोड़ा लेट हो गया है। आशा करते हैं कि हमारे सहकर्मी ऑनलाइन ज्ञानरथ की इस महायज्ञशाला में अपने विचारों की हवन सामग्री से कमैंट्स की कम से कम 24 आहुतियों की प्रथा का अवश्य ही पालन करेंगें।
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तो प्रस्तुत हैं पारिवारिक संगठन को बिखरने से बचाने के उपाय :
परिवार में स्वतंत्रता का अधिकार :
परमपूज्य गुरुदेव ने परिवार निर्माण से संबंधित बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है कि परिवार के हर सदस्य की प्रकृति स्वतंत्र रहने की होती है और रहे भी क्यों न , स्वतंत्रता उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसलिए स्वतंत्र विचारधारा पर परिवार में किसी के द्वारा विरोध नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसी स्थिति में यह ध्यान रखना बहुत जरूरी होगा कि स्वतंत्र विचारधारा से पारिवारिक शांति में किसी तरह का कोई व्यवधान तो नहीं हो रहा है और उस विचारधारा से प्रभावित होकर परिवार का कोई सदस्य अपनी नैतिकता तो नहीं खो रहा है। वह विचारधारा हम सबके पारिवारिक जीवन को कहीं अस्त-व्यस्त तो नहीं कर रही है। हम सबका परम कर्त्तव्य बनता है हम बारीकी से हर स्थिति का निरीक्षण करें ताकि परिवार में किसी तरह का कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े और सुख-शांति का वातावरण सदैव बना रहे। अगर परिवार में कभी कभार प्रतिकूल स्थिति बन भी जाये तो उसका विरोध और आलोचना उसी सदस्य के समक्ष ही करना चाहिए। यदि किसी परिवार में रूढ़िवादी परम्परा का प्रचलन है जिसे मानकर चलने में परिवार के किसी सदस्य को आपत्ति है तो इसके लिए न तो किसी को लाचार करना चाहिए और न ही होना चाहिए। हम सबका उत्तरदायित्व बनता है कि एक-दूसरे की रुचियों को अपने हृदय में स्थान दें जिससे आपसी संबंधों में प्रगाढ़ता आएगी और आपस में सहकारिता, सहानुभूति व सद्भावना का समावेश होगा।
परिवार संस्था एक शरीर :
परिवार संस्था एक शरीर है और इस शरीर का आस्तित्व तभी सुरक्षित है जब उसके अंग-अवयव एक-दूसरे के लिए काम करें, एक-दूसरे से सहयोग करें , परिवार के आस्तित्व में ही अपना आस्तित्व सघन बनाएं, आपस में मिल -जुलकर रहें ,निरन्तर पारिवारिक शांति बनाए रखें ताकि परिवार को बिखरने से बचाया जा सके। यदि परिवार के सभी सदस्य अपनेआप को स्वतंत्र और अलग-अलग मानने लगें और अपनी मेहनत का लाभ स्वयं अकेले ही लेने की चेष्टा करने लगें तो यह परिवार-रूपी शरीर व्यवस्था निश्चित ही लड़खड़ाएगी। इस स्थिति में परिवार संस्था का बिखरना सुनिश्चित है।
इस तथ्य को समझने के लिए एक अति- प्रकृतिक उदाहरण दिया जा सकता है। हाथ ,मुंह ,पेट,ह्रदय आदि हमारे शरीर के (स्वतंत्र) अंग हैं लेकिन अगर स्वार्थी होकर सब अलग -अलग कार्य करें तो क्या दशा होगी , आइये देखें।
1,अगर हाथ कहने लगें कि हम जो उपार्जन करते हैं , जो भोजन उठाते हैं , उसे मुँह में क्यों जाने दें? वह तो हमारा परिश्रम है, इस परिश्रम का लाभ स्वयं हमें ही मिलना चाहिए।
2.मुँह बीच में टपककर कहने लगे कि मैं जो कुछ भी खाता-चबाता हूँ उसे अपने तक ही सीमित क्यों न रखूं और पेट में क्यों जाने दूँ।
3.पेट कहने लगे कि मैं जो पचाता हूँ उसका रस मैं अपने तक ही सीमित क्यों न रखूं और इस रस को दूसरे अंग-अवयवों में बिल्कुल न बांटूं।
4.हृदय कहाँ पीछे रहने वाला है और वह भी दौड़ता हुआ, भागता हुआ व चिल्लाता हुआ आएगा और बोलेगा कि यदि मैं अपने पास आने वाले रक्त को संचित करने लगूँ और उसे शरीर के दूसरे अंगों में न जाने दूँ , यह सोचूं कि मैं अपना संचित कोष किसी दूसरों को क्यों वितरित करूँ।
तो ऐसी दशा में शरीर की क्या स्थिति होगी? शरीर जीवित ही नहीं बचेगा, मर जाएगा और निष्प्राण हो जाएगा। शरीर तो निष्प्राण होगा ही साथ में अपने को ही केन्द्र बिन्दु मानकर व्यवहार करने वाले अंग-अवयवों को नष्ट होने में भी देर नहीं लगेगी। शरीर के अंग-अवयवों में किसी भी प्रकार की संकुचितता (compactness) नहीं है इसी कारण देह नगरी जीवित रहती है।
परिवार क्यों टूट रहे हैं ?
परम पूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि परिवार इसलिए टूट या बिखर रहे हैं कि परिवार का प्रत्येक सदस्य आत्मकेन्द्रित (self-centered ),आत्मनिर्भर (self-dependent ) होकर विचार करने लगा है। हर कोई सदस्य यही सोचता है कि मैं ही सब कुछ कर रहा हूँ ,मेरे बिना तो परिवार चल ही नहीं सकता, बाकी सदस्य तो मेरे परिश्रम करने से ही ऐश कर रहे हैं। इस स्थिति के उत्प्न्न होते ही एक नकारात्मक सोच जन्म लेती है और उसके अंतःकरण में उसी सोच के अनुरूप परिस्थितियाँ बनती हैं और वह सदस्य उसी के अनुसार व्यवहार करने लगता है। इस स्थिति के आते ही परिवार के सदस्यों की नजदीकियाँ धीरे -धीरे दूरियों में बदल जाती हैं। ऐसी स्थिति पारिवारिक संगठन को कमजोर कर देती है। इस कमजोरी को दूर करने के लिए हमें “कुशल नेतृत्व” की जरूरत है ताकि पारिवारिक संगठन को बिखरने से बच सकें।
“सावधानी हटी, दुर्घटना घटी” वाली बात परिवार निर्माण में भी apply होती है। अगर परिवार निर्माण में जरा सी भी चूक हो गई तो, परिवार-विघटन की सम्भावना हो सकती है। इस विघटन का मूल कारण परिवार के सदस्यों में कुशल नेतृत्व की कमी है। परम पूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि परिवार का कुशल नेतृत्व करना किसी तपस्या से कम नहीं है। परिवार का भार-वहन करना, सभी सदस्यों को जीवन के साधन जुटाना, सभी सदस्यों की सेवा करना कोई आसान तपस्या नहीं है। जो सदस्य इस प्रकार अपने कर्तव्य का पालन करता है वह बहुत बड़ा तपस्वी, मनस्वी व तेजस्वी होता है।
स्नेह, सहकार, सेवा एवं त्याग की प्रवृत्तियाँ ही सुखी दांपत्य जीवन और परिवार को एक सूत्र में बांधने के आधार हैं। इन्ही प्रवृतियों के कारण अभावों में रहते हुए भी, कष्टमय जीवन-यापन करते हुए भी ऐसे परिवार कभी एक-दूसरे से अलग नहीं होना चाहते। अगर इन प्रवृतियों का ठोस आधार न हो तो एकांगी भौतिक समृद्धि दांपत्य जीवन को बाँधे नहीं रख सकती। बढ़ते हुए पारिवारिक असंतोष और टूटते हुए दांपत्य जीवन का दुष्प्रभाव केवल परिवार के सदस्यों पर ही नहीं बल्कि समाज के ऊपर भी असाधारण रूप से पड़ता है। ऐसे में अविश्वास, असंतोष व अरूचि की भावना बढ़ती है तथा परिवार के सभी सदस्य अपने जीवन को असुरक्षित महसूस करते हैं और बच्चों का भविष्य संकट में पड़ जाता है। बच्चों को माता-पिता के स्नेह से वंचित रहना पड़ता है और उनके विकास में रुकावट आती है। मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि ऐसे पारिवारिक संकट में पलने वाले बच्चे ही अधिकांशतः अपराधी बनते हैं और अवांछनीय गतिविधियों द्वारा समाज को भारी क्षति पहुंचाते हैं।
आधुनिक समाज में विलासिता प्रधान विवाहों का प्रचलन और इन विवाहों कीअसफलता की दिशा में सुधार लाने के लिए सरकार के कानूनी प्रतिबंध य सामाजिक अनुबंध काफी नहीं हैं। इस समस्या का सकारात्मक समाधान तो उस धर्म धारणा को अंतरात्मा की गहराई में उतारने से ही संभव हो सकता है जिसे पतिव्रत/पत्नीव्रत धर्म कहते हैं और इन्हीं दोनों सूत्रो के माध्यम से हम पारिवारिक संगठन को बिखरने से बचा सकते हैं। अगर स्नेह, सहकारिता, सहानुभूति व सद्भावना से हम परिवार को एक सूत्र में बाँध सकें तो परिवार निर्माण में कुशल नेतृत्व की पराकाष्ठा होगी।
कैसे होगा कुशल नेतृत्व ?
प्रत्येक परिवार में एक मुखिया होता है जिसे हम HEAD OF THE FAMILY कहते हैं। यह मुखिया अपने परिवार को सुसंस्कृत व परिष्कृत करने के लिए परिवार का कुशल नेतृत्व करता है और परिवार के प्रत्येक सदस्य की कार्य प्रणाली का समय-समय पर बारीकी से निरीक्षण भी करता है ताकि वह इस संसार को छोड़ने के बाद अपने सिर पर पापों की गठरी का बोझ न लेकर जाये। वैसे तो हम अक्सर सुनते आये हैं ,पढ़ते आये हैं -मानव इस संसार में खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही जाता है ,फिर भी यदि उसे कुछ ले ही जाना है तो वह पुण्य की गठरी अपने साथ लेकर जाए ताकि उसके अगले जन्म की जगह/ योनि का चयन ऐसा हो जहाँ उसे स्वर्ग की अनुभूति हो सके ।
परमपूज्य गुरुदेव ने स्वर्ग और नरक की बहुत ही सुन्दर शब्दों में व्याख्या लिखकर हम सबका मार्गदर्शन किया है कि स्वर्ग और नरक कहीं और जगह नहीं बल्कि हमारे अपने ही छोटे से घर में ही हैं। गुरुदेव कहते हैं कि अयोध्या निवासियों का पारिवारिक जीवन आदर्शो से ओतप्रोत था। यदि हमारे पारिवारिक जीवन में भी आदर्श या उदात्त भाव पैदा किया जाये तो छिन्न-भिन्न दिखाई पड़ रही परिवार संस्था को स्वर्गीय बना कर एक आदर्श परिवार की श्रेणी खड़ा किया जा सकता है । रामायणकाल में जिन आदर्शो का पालन किया गया है, उसे राष्ट्रीय जीवन की संस्कृतिक धरोहर कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं, और यदि उन विभिन्न पक्षो को अपने जीवन का केन्द्र-बिंदु मानकर चलें,तो परिवार में स्वर्गीय वातावरण होना कोई बड़ी बात नहीं है। इसके विपरीत यदि पारिवारिक जीवन में उत्कृष्ट भाव न रखें जाएं तथा आदर्शो का अच्छे से पालन न किया जाए तो परिवार संस्था एक दिन छिन्न-भिन्न होती चली जाएगी और पारिवारिक वातावरण नारकीय होता जाएगा। इस तरह हम देख सकते हैं कि हम जैसा समाज बनाना चाहें उसी के अनुरूप परिस्थितियाँ बनानी पड़ेंगीं। उसी के अनुसार परिवार या समाज में लोगों से व्यवहार करना पड़ेगा। पारिवारिक वातावरण को खुशहाल बनाने के लिए हम सबको कुशल नेतृत्व करते हुए अपने परिवार के सदस्यों के बीच घनिष्ठता, आत्मीयता व स्नेह-सद्भाव के आधार पर परिवार को एक सूत्र में बाँधा जा सकता है।
परिवार में पनप रही संकीर्णता परिवार को विश्रंखलित व तहस-नहस कर डालती है। अपने ही परिवार के सदस्यों में आपसी भेदभाव का होना एक ऐसी आग की चिंगारी है जो परिवार को अंदर ही अंदर जलाती रहती है जो कि आगे चलकर विकराल रुप खड़ा कर देती है। इस विकराल रूप को सँभालना किसी सामान्य सदस्य की बात नहीं है और वर्तमान में यह चिंगारी अधिकांश परिवारों में जलती देखी जा सकती है। परिवार के सदस्यों में जब तक समर्पण, त्याग व उत्सर्ग का भाव बना रहता है तब तक उसकी सुदृढ़ एकता पर आँच नहीं आने पाती। अगर परिवार में रहने वाला प्रत्येक सदस्य आत्मकेन्द्रित व आत्मनिर्भर होकर कर्त्तव्यों को प्रधान व अधिकारों को गौण समझे और अपनी ही नहीं दूसरों की सुख-सुविधा को भी स्थान दे तो आपस में मन-मुटाव तथा विक्षोभ की स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकती है। परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं : माँ को त्याग की जीवंत प्रतिमा कहा जाता है।यदि ऐसे त्याग भाव का कुछ अंश परिवार के सभी सदस्यों में भी आ जाए तो लड़ाई-झगड़े की स्थिति उत्पन्न ही नहीं हो सकती। ऐसे परिवार में साक्षात स्वर्ग दृष्टिगोचर होगा।
जब हम कुशल नेतृत्व की बात कर रहे हैं तो परिवार के मुखिया का भी परम् कर्तव्य बनता है वह प्रयास करे कि एक ROLE MODEL की छवि प्रस्तुत कर सके। ऐसी छवि जिसे देखकर सभी सदस्यों को प्रेरणा मिले। हमारे युवा सहकर्मी धीरप सिंह ने पिछले दिनों एक कमेंट किया था जिसमें उन्होंने बड़ों के आचरण पर चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने लिखा था कि अगर बड़े ही सुधरने का नाम नहीं लेते तो हम बच्चे उनसे क्या प्रेरणा लेंगें। बिलकुल ठीक लिखा था। परिवार के मुखिया का पद प्राप्त करना तो बहुत आसान है लेकिन उस पद की पालना करना अक्सर दो- धारी तलवार की भांति होता है।संयम -संयम एवं संयम।
जय गुरुदेव
कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।