18 अक्टूबर 2021 का ज्ञानप्रसाद : चेतना का शक्तिपात
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गायत्री परिवार के जितने भी पर्व हैं वह सारे के सारे वसंत के दिन घटे हैं क्योंकि वसंत का पर्व सद्गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति का पर्व है।
1.गुरुदेव की मुलाकात दादा गुरु के साथ हुई वसंत पंचमी को ,
2.महाप्रश्चरणों की शरुआत हुई वसंत पंचमी के दिन ,
3.अखंड दीपक जला वसंत पंचमी को ,
4.अखंड ज्योति पत्रिका का आरम्भ हुआ वसंत पंचमी को ,
5.गायत्री तपोभूमि की शुरुआत हुई वसंत पंचमी वाले दिन।
जितने भी गायत्री परिवार के ,शांतिकुंज के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं सारे के सारे वसंत पंचमी के दिन के हैं। इसीलिए परमपूज्य गुरुदेव ने वसंत पंचमी को ही “अपना आध्यात्मिक जन्म दिन माना।“
आज के ज्ञानप्रसाद में भी हम उस उद्बोधन को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं जो परमपूज्य गुरुदेव ने 12 फरवरी 1978 की वसंत पंचमी वाले दिन दिया था। इस ज्ञानप्रसाद का आधार “गुरुवर की धरोहर 1” पुस्तक है। 4 भागों में प्रकाशित इसी शीर्षक के अंतर्गत यह पुस्तक अपने अविस्मरणीय कंटेंट के लिए विश्व भर में सुप्रसिद्ध है।आप यह चारों भाग निशुक्ल ऑनलाइन पढ़ सकते हैं लेकिन अगर खरीदना चाहते हैं तो भी कोई समस्या नहीं है। प्रत्येक भाग लगभग 30 रूपए में उपलब्ध है। इसके लिए आप अपने क्षेत्र के निकटतम गायत्री शक्तिपीठ से संपर्क कर सकते हैं। अगर कोई समस्या आती है तो हम तो हैं ही ,यथाशक्ति सहायता का संकल्प लिए हुए।
तो ज्ञानप्रसाद आरम्भ करते हैं।
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गुरुदेव कह रहे हैं मित्रो! वसंत पंचमी उमंगों का दिन है, प्रेरणा का दिन है, प्रकाश का दिन है। वसंत के दिनों में उमंग आती है, उछाल आता है। शिवाजी के गुरु समर्थ गुरु रामदास के जीवन में इन्हीं दिनों एक उछाल आया। क्या था वह उछाल ? हम अपने जीवन का अच्छी तरह से प्रयोग कैसे कर सकते हैं ? समर्थ गुरु रामदास जी के विवाह की तैयारियां चल रही थीं ,उन्होंने अपनी अंतरात्मा में देखा, उन्हें एक स्त्री की शक्ल दिखाई पड़ी, स्त्री के बच्चे, फिर उन बच्चों के बच्चे, उन बच्चों की शादियाँ, ब्याह आदि की बड़ी लंबी श्रृंखला दिखाई पड़ी। उनकी आत्मा ने संकेत दिया, परमात्मा ने संकेत दिया और कहा- क्या आपके जीवन का यही मूल्य है ? आपके जीवन का मूल्य इतना कम तो नहीं हो सकता । आपका जीवन तो बहुत ही मूल्यवान मालुम पड़ता है। अगर मूल्यवान मालुम पड़ता है तो आइए दूसरा वाला रास्ता अपनाइये। आपके लिए खुला पड़ा है वह वाला रास्ता , वह वाला मार्ग, महानता का मार्ग। समर्थ गुरु रामदास ने विचार किया। उछाल आया, उमंग आई और ऐसी उमंग आई कि रोकने वालों से न रुक पाई । वह उछलते ही चले गए। विवाह का मुकुट फेंका, कंगन को तोड़ा। सभी कहने लगे- वो गया, वो गया, लड़का भाग गया। दूल्हा भाग गया? साधारण से युवक से वह समर्थ गुरु रामदास हो गए । मामूली-सा मनुष्य , छोटा-सा लड़का छलांग मारता चला गया और समर्थ गुरु रामदास होता चला गया।
यहाँ मैं उमंग की बात कह रहा था। उमंग जब भीतर से आती है, तो रुकती नहीं है। उमंग आती है वसंत के दिनों।
मन में होने वाला आनंद, उत्साह,उल्लास , चित्त का उभार– जोश, उल्लासपूर्ण आकांक्षा , मन में आगे बढ़ने की उमंग एवं सुखदायक मनोवेग – यह सभी उमंग के ही पर्यायवाची शब्द हैं।
इन्हीं दिनों का किस्सा है सिद्धार्थ का, भगवान बुद्ध का। यह किस्सा भी कुछ ऐसा ही था। एक तरफ पत्नी सो रही थी और एक तरफ बच्चा सो रहा था। सारे संसार में फैले हुए हाहाकार ने पुकारा और कहा कि आप समझदार मनुष्य लगते हैं । आप विचारशील मनुष्य हैं, क्या आप केवल इन दो लोगों (पत्नी और बच्चे ) के लिए ही जिएंगे? यह काम तो कोई भी कर सकता है। भगवान बुद्ध के भीतर से किसी ने पुकारा और वे छलांग मारते हुए, उछलते हुए कहाँ से कहाँ चले गए और साधारण से सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध हो गए।
अदि शंकराचार्य की उमंग भी इन्हीं दिनों की है। शंकराचार्य की माता कहती थी कि जब मेरा बेटा बड़ा होगा वह पढ़-लिखक बड़ा अफसर बनेगा। बेटे की बहु आएगी, गोद में बच्चा खिलाऊँगी। माता बार-बार यही कहती कि अगर मेरा बेटा मेरा कहा नहीं मानेगा तो नरक में जाएगा। बालक शंकर कहता-अच्छा माता ठीक है ,कहना नहीं मानूँगा तो नरक में जाऊँगा ? तो अगर हमें नरक में जाना है तो अवश्य जाएँगे लेकिन महानरक में अच्छे काम के लिए। उन्होंने माता को कहा – मेरे संकल्प में रुकावट लगाती हो तो आत्मा और परमात्मा का कहना न मानकर तुम कहाँ जाओगी? बालक शंकर विचार करता रहा , उसने फैसला कर लिया कि माता का कहना नहीं मानना है। उस दिन बालक शंकर और उनकी मां पवित्र स्नान के लिए शिवतरक नदी में थे, जहां शंकर को मगरमच्छ ने पकड़ लिया। शंकर ने अपनी माँ से आग्रह किया कि मुझे शंकर भगवान दिखाई दे रहे हैं और कहते हैं कि अगर इस बच्चे को मेरे सुपुर्द कर दोगी तो हम मगरमच्छ से इसे बचा सकते हैं। माता चिल्लाई-अच्छा बेटे जा शंकर भगवान के पास ,मुझे मंज़ूर है। कम से कम जीवित तो रहेगा न। जा मैंने तुझे भगवान को दे दिया। बस शंकराचार्य ने उछाल मारी और किनारे पर आ गए और बोले-देखो मगरमच्छ ने छोड़ दिया, अब में शंकर भगवान का हूँ।
गुरुदेव कहते हैं : मैंने ऐसी बहुत-सी श्रृंखलाएं देखी हैं। इसी श्रृंखला में एक और कड़ी जुड़ती है। वह भी वसंत पंचमी का दिन था। घटना 52 वर्ष पहले की है जब हमारा सौभाग्य हमारे घर आया था। उस दिन हमारे ऊपर एक तरंग आई मेरे गुरु के रूप में, मास्टर के रूप में। मेरा गुरु प्रकाश के रूप में आया। जब कोई महापुरुष आता है तो कुछ लेकर के आता है। कोई महाशक्ति आती है तो कुछ लेकर के आती है, बिना लिए नहीं आती। मेरा गुरु,मेरा बॉस,मेरा मास्टर और मेरा सौभाग्य भी 1926 की वसंत पंचमी के दिन आया था। आज भी वसंत पंचमी है जिसमें हम और आप मिल रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि जो सौभाग्य की धारा और लहर मेरे पास आई थी आपके पास भी आ जाती तो आप धन्य हो जाते। जब आती है हूक, जब आती हैं उमंग तो फिर क्या हो जाता है? रोकना मुश्किल हो जाता है और जो आग उठती है, ऐसी तेजी से उठती है कि इंतजार नहीं करना पड़ता। जब वक्त आता है तो आँधी तुफान के तरीके से आता है। मेरी जिंदगी में भी आँधी-तूफान के तरीके से वक्त आया। मेरे गुरु आए और आकर के उन्होंने आत्म साक्षात्कार कराया, पूर्व जन्मों का हाल दिखाया और जाते वक्त कहा कि हम आपको दो चीजें देकर जाते हैं। क्या थीं वह दो चीज़ें ?
1.शक्तिपात और
2. कुंडलिनी
दोनों की दोनों सेकंडों में पूरी हो गईं और मैं क्या से क्या हो गया। मेरी आँखों में कुछ और ही चीज़ें दिखाई पड़ने लगी। बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार नशा पीकर आदमी को कछ-का-कुछ दिखाई पड़ता है, ऐसे ही मुझे दुनिया किसी और तरीके से दिखाई पड़ने लगी।
शक्तिपात क्या होता है ?
शक्तिपात कैसे कर दिया? शक्तिपात क्या होता है? लोग शक्तिपात को मामूली समझते हैं कि गुरु की आँखों में से, शरीर में से बिजली का करेंट आता है और चेले में चला जाता है और चेला काँप जाता है। वस्तुत: यह कोई शक्तिपात नहीं है और शारीरिक शक्तिपात से कुछ भी नहीं बनता है । शक्तिपात होता है चेतना का शक्तिपात, चेतना में शक्ति उत्पन्न करने वाला। चेतना की शक्ति, भावनाओं के रूप में, संवेदनाओं के रूप में दिखाई पड़ती है, शरीर में झटके नहीं मारती। इसका संबंध चेतना से है, हिम्मत से है। चेतना की उस शक्ति का ही नाम हिम्मत है जो सिद्धांतों को, आदर्शों को पकड़ने के लिए जीवन में काम आती है। इसके लिए ऐसी ताकत चाहिए जैसी कि मछली में होती है। मछली की बहुत सी प्रजातियां पानी की धारा के विरुद्ध पानी को चीरती हई , लहरों को काटती हुई उलटी दिशा में छलछलाती हुई बढ़ती जाती है। इस तथ्य की चर्चा लेख के परिपेक्ष में केवल 1 -2 वाक्यों में कर रहे हैं लेकिन यह विषय biology के संदर्भ में बहुत ही रोचक है।
यही चेतना की शक्ति है, यही ताकत है। आदर्शों को जीवन में उतारने में इतनी कमजोरियाँ आड़े आती हैं जिन्हें गिनाया नहीं जा सकता। लोभ की कमजोरी, मोह की कमजोरी, वातावरण की कमजोरी, पड़ोसी की कमजोरी, मित्रों की कमजोरी, कितनी ही कमजोरियाँ व्यक्ति के ऊपर छाई रहती हैं। इन सारी-की-सारी कमजोरियों को मछली के तरीके से चीरता हुआ जो आदमी आगे बढ़ सकता है, उसे मैं अध्यात्म दृष्टि से शक्तिवान कह सकता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे इसी तरीके-से शक्तिवान बनाया। बीस वर्ष की उम्र में तमाम प्रतिबंधों के बावजूद मैं घर से निकल गया और काँग्रेस में भरती हो गया। थोड़े दिनों तक उसी का काम करता रहा, फिर जेल चला गया। इसे कहते हैं हिम्मत और जुर्रत, जो सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए आदमी के अंदर एक जनून पैदा करती है, सामर्थ्य पैदा करती है कि हम आदर्शवादी होकर जिएंगे। इसी का नाम शक्तिपात है।
शक्तिपातका एक और उदाहरण मीरा का है। वह घर में बैठी रोती रहती थी। घर वाले कहा करते थे कि तुम्हें अपने परिवार की बात माननी पडेगी और तुम घर से बाहर नहीं निकल सकतीं। मीरा ने गोस्वामी तुलसीदास को एक पत्र लिखा कि इन परिस्थितियों में मैं क्या कर सकती हूँ ? गोस्वामी जी ने उत्तर दिया-परिस्थितियाँ तो ऐसी ही रहती हैं। परिस्थितियाँ नहीं बदलती मन:स्थिति बदल जाये तो परिस्थितियाँ स्वयं बदल जाती हैं ।पत्र क्या उन्होंने तो मीरा को कविता ही लिख डाली- आप भी पढ़िए वह पत्र-
जाके प्रिय न राम-बदैही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥ तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी। बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद- मंगलकारी॥ नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य कहौं कहाँ लौं। अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥ तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥
अर्थात
जिसे श्री राम-जानकी जी प्यारे नहीं, उसे करोड़ों शत्रुओं के समान छोड़ देना चाहिए, चाहे वह अपना कितना ही प्यारा क्यों न हो। प्रह्लाद ने अपने पिता को, विभीषण ने अपने भाई को और ब्रज-गोपियों ने अपने-अपने पतियों को त्याग दिया, परंतु ये सभी आनंद और कल्याण करने वाले हुए। जितने सुहृद् और अच्छी तरह पूजने योग्य लोग हैं, वे सब श्री रघुनाथ जी के ही संबंध और प्रेम से माने जाते हैं, बस अब अधिक क्या कहूँ। जिस अंजन( काजल ) के लगाने से आँखें ही फूट जाएँ, वह अंजन ही किस काम का? तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसके संग या उपदेश में श्री रामचंद्र जी के चरणों में प्रेम हो, वही सब प्रकार से अपना परम हितकारी, पूजनीय और प्राणों से भी अधिक प्यारा है।
गुरुदेव कहते हैं :हमारा तो यही मत है। यह कविता नहीं शक्तिपात था। शक्तिपात के सिद्धांतों को पक्का करने के लिए यह कविता मुझे पसंद आती है और जब तब मेरा मन होता है, उसे याद करता रहता हूँ और हिम्मत से, ताकत से भर जाता हूँ। मुझ में असीम शक्ति भरी हुई है। सिद्धांतों को पालने के लिए, हमने सामने वाले विरोधियों, शंकराचार्यों, महामंडलेश्वरों और अपने नजदीक वाले मित्रों-सभी का मुकाबला किया है। सोने की जंजीरों से टक्कर मारी है। जीवन पर्यंत अपने लिए, आपके लिए, समाज के लिए, सारे विश्व के लिए, महिलाओं के अधिकारों के लिए मैं अकेला ही टक्कर मारता चला गया। अनीति से संघर्ष करने के लिए ‘युग निर्माण’ का, ‘विचार क्रांति’ का सूत्रपात किया। इस मामले में हम राजपूत हैं। हमारे भीतर परशुराम के तरीके से रोम-रोम में शौर्य और साहस भर दिया गया है। हम महामानव हैं। कौन-कौन हैं? बता नहीं सकते हम कौन हैं? ये सारी-की-सारी चीजें वहाँ से प्राप्त हुईं जो मुझे गुरु ने शक्तिपात के रूप में दी, हिम्मत के रूप में दीं।
जय गुरुदेव
कल चलेंगें इससे आगे।