15 अक्टूबर 2021 का ज्ञानप्रसाद : कर्म और भाग्य में कौन सर्वश्रेष्ठ है और क्यों?-पार्ट 2
विजयदशमी की सुबह में आप सबको शुभकामनायें देते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। कामना करते हैं कि असत्य की हार के साथ सत्य की जीत हो और विश्व के हर प्राणी का जीवन सुखमय हो।
आज और पिछले कल के दोनों ही ज्ञानप्रसाद पूर्णतया व्यक्तिगत हैं। यह ऐसे विषय हैं जिन पर सहमति ,असहमति होना स्वाभाविक है ,विशेषकर उस युग में जिसमें तर्क-वितर्क का पूर्णतया बोलबाला है। आप अपने अनुभव पर आधारित किसीको कोई भी परामर्श देकर देखें, एकदम उसका counter explanation आपके समक्ष होगा, क्योंकि फ़ोन हर किसी के पास है, विकिपीडिया , गूगल सर्च सबके पास है। हमारे ज्ञानप्रसाद में अधिकतर कंटेंट तथ्य आधारित होता है और तथ्यों की पुष्टि भी भलीभांति करने का प्रयास किया जाता है लेकिन क्या गारंटी है कि कितने लोग ,कितनी श्रद्धा से इस ज्ञानप्रसाद को अपने ह्रदय में उतार कर मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। जो भी हो हमारी श्रद्धा तो कभी भी कम न होगी और हम परमपूज्य गुरुदेव के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते ही रहेंगें क्योंकि यह सौभाग्य बहुत ही दुर्लभ मानवों को मिलता है ,हम उन्ही मानवों में से एक है। ऑनलाइन ज्ञानरथ का प्रत्येक सहकर्मी चाहे जो कोई भी योगदान दे रहा है , भले ही कितना छोटा योगदान क्यों न हो, उसका चयन परमपूज्य ने स्वयं बहुत खोजबीन के उपरांत किया है। हमारे पाठकों को पूज्यवर के वह शब्द तो याद होंगें ही जहाँ उन्होंने सहकर्मियों के चयन प्रक्रिया को मथुरा की नालियों में सोने -चांदी -हीरों के साथ तुलना की थी।
भाग्य ,कर्म, नियति, परिश्रम ,अवसर ,पुरषार्थ ,भरोसा ,विश्वास – यह सब ऐसे शब्द हैं जिनकी परिभाषा हर मनुष्य के लिए व्यक्तिगत हो सकती है क्योंकि वह इन्हे अपनी परिस्थितियों के परिपेक्ष में ही देखता है। जब तक हम व्यक्तिगत से ऊपर उठ कर समस्त विश्व के संदर्भ में नहीं सोचेंगें ,इस विषय पर कभी भी न समाप्त होने वाला ( unending )तर्क -वितर्क होता ही रहेगा।
तो आओ चलें देखें कर्म बड़ा है य भाग्य :
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कर्म और भाग्य में कौन सर्वश्रेष्ठ है और क्यों?
चाणक्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र के 16वें अध्याय में चाणक्य ने इसी सन्दर्भ में यह श्लोक लिखा था : “विनाश काले विपरीत बुद्धि” इस श्लोक के अंदर बहुत कुछ छिपा है। सनातन धर्म से जुड़े ग्रन्थ, शास्त्र तथा पुरानी कहानियों के तरफ यदि हम देखें तो पाएंगे कि “विनाश काले विपरीत बुद्धि” का सम्बन्ध ‘भाग्यवाद’ से न होकर ‘कर्मवाद’ से है। परन्तु हम इसमें दोनों का ही समावेश मानते है। भाग्य और कर्म दोनों ही इसमें समाहित है, चाहे हम कोई भी ग्रंथ को उठा कर देख लें , फिर चाहे वो प्रभु श्रीराम की लीला हो य श्रीकृष्ण की। प्रभु श्री राम का स्वर्ण हिरण के पीछे जाना जो स्वर्ण से निर्मित था, जिसका निर्माण भगवान ब्रह्मदेव ने भी कभी नहीं किया जो इस सृष्टि के निर्माता हैं। रामायण के इलावा न तो किसी ने स्वर्ण हिरण के बारे में कभी सुना, न ही उसे देखा फिर भी प्रभु श्री राम उसके पीछे गए और वह हिरण माता सीता के अपहरण का कारण बना | इस जगत में ना तो स्वर्ण का मृग पैदा हुआ है और ना किसी ने देखा है। फिर भी पौराणिक मान्यता के अनुसार माता सीता की जिज्ञासा के वशीभूत होकर स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए भगवान् श्री राम उसके पीछे-पीछे भागने लगे। इसके छिपे रहस्य को सिर्फ प्रभु राम ही जानते थे। फिर भी इस घटना के परिणाम स्वरुप माता सीता का हरण रावण द्वारा हुआ।इसके पीछे रहस्य का यदि विवेक पूर्वक चिंतन किया जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि विपत्ति काल आने से पूर्व कोई ना कोई घटना ऐसी अवश्य होती है जिसमें मनुष्य की बुद्धि सीमीत हो जाती है और सोचने समझने की शक्ति बहुत ही सीमीत हो जाती है। ऐसी स्थिति में अगर मनुष्य धैर्यपूर्वक सोच- विचार कर ले तो हो सकता है उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से निवारण पाया जा सके।
भगवान श्री कृष्ण की लीला को देख लें: आकाशवाणी के माध्यम से कंस को पहले से ही
पता चल चुका था कि देवकी की आठवीं संतान उसका वध कर देगी फिर भी कंस ने अपने कर्मों को सुधारने के बजाय अपने पाप के घड़े को भरने का कार्य न बंद किया, न कम किया। उसके पाप का घड़ा भरता ही चला गया। नियति ( destiny) ने रावण और कंस को उनके विनाश के बारे में पहले ही बता दिया था परन्तु उन्होंने कुछ नहीं सीखा और अपने दुष्कर्मों तथा क्रोधी बुद्धि के कारण अपने विनाश को आमंत्रित किया।अगर रावण और कंस अपनी बुद्धि का सदुपयोग करके सत्य के मार्ग पर, धर्म के मार्ग पर चलते तो उनका विनाश बच सकता था ।
हमें अपने एक विद्यार्थी की घटना याद आती हैं जहाँ कर्म और भाग्य की कहानी शत प्रतिशत सत्य साबित होती है। B.Sc. का रिजल्ट निकलने में अभी चार महीने बाकि थे। एक बार हमें यह विद्यार्थी मिला और हमने पूछा रिजल्ट निकलने के बाद क्या विचार है ? विद्यार्थी ने कहा “सर कुछ सोचा नहीं है , अभी तो पापा की पान की दुकान पर बैठ कर सहायता कर रहे हैं” हमने कुछ नहीं कहा। पान की दुकान पर प्रतिदिन बैठना और दुकान चलाना उसकी दिनचर्या बन चुकी थी। चार महीने बाद रिजल्ट आ गया ,लेकिन उस विद्यार्थी की दुकान पर बैठने की आदत न छूटी ,उसे कोई प्रेरणा नहीं मिली। रिजल्ट के बाद एक बार हम उसकी दुकान के आगे से जा रहे थे, रुककर फिर हमें वही प्रश्न किया। फिर वही उत्तर मिला। इस बार तो हमें गुस्सा आ गया ,हमने कहा : जीवन भर पान बेचने का ही इरादा है क्या ? युवा हो ,शक्ति है ,बुद्धि है ,विवेक है ,कुछ कर के दिखाओ बेटा। विद्यार्थी को जैसे बिजली का करंट लगा हो। हमने उसकी आँखों में झाँका और पूछा – “वैज्ञानिक बनोगे बेटा ?” विद्यार्थी ने पूछा -”उसके लिए क्या करना होगा सर ?” हमने कहा ,” पान की दुकान से नीचे उतरना होगा” हमारे शब्दों ने उस लड़के को ऐसी प्रेरणा दी कि उसने आगे की पढ़ाई शुरू कर दी । हम उसे मार्गदर्शन देते रहे और वह युवक आगे ही आगे बढ़ता गया।
फिर,एक दिन अचानक पिता की मौत ने जैसे उसके सपनो पर पानी फेर दिया ।दो छोटे भाई बहनों की पढ़ाई, बड़ी बहन की शादी का कर्ज और घर के खर्च, परिस्थितियां ऐसी बनी कि उसे ऐसा लगा की भाग्य ने उसकी पढ़ाई के सब द्वार जैसे बन्द कर दिये हो। लेकिन उसने हिम्मत न हारी और निश्चय किया था कि कुछ भी हो जाय, पढ़ाई तो नही रुकेगी। वह युवक हमारे साथ Ph.D की डिग्री प्राप्त करके ऑस्ट्रेलिया में किसी विश्विख्यात संस्थान में वैज्ञानिक कार्यरत है।
“सफलता पेड़ में लगा फल नहीं होता जो थोड़े प्रयास से हासिल हो जाती है। रुकावटें और परीक्षाएं जीवन का हिस्सा होती है।जब कर्म करने की इच्छा हो तो भाग्य भी साथ देता है , सफलता के मार्ग स्वयं खुलते जाते हैं”
एक अन्य नजरिया:
एक बार देवर्षि नारद जी बैकुंठ धाम गए। वहां उन्होंने भगवान विष्णु को नमन किया। नारद जी ने श्री भगवान से कहा, ‘‘प्रभु! मैं पृथ्वी से होकर आ रहा हूँ ,अब तो वहां आपका प्रभाव कम हो रहा है। धर्म पर चलने वालों को कुछ भी नहीं मिलता और जो पाप कर रहे हैं उनका भला हो रहा है। लोगों का आपके ऊपर से विश्वास उठ रहा है ’’ भगवान ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है देवर्षि, जो भी हो रहा है सब नियति के अनुसार ही हो रहा है।’’ जब देवर्षि न माने तो भगवान ने कहा, ‘‘कोई ऐसी घटना बताओ। नारद जी ने दो घटनाएं बताईं।
नारद ने कहा – अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं। वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने वाला नहीं था। तभी एक चोर उधर से गुज़रा । गाय को फंसा हुआ देखकर भी चोर नहीं रुका, वह उस पर पैर रख कर दलदल लांघ कर निकल गया। आगे जा कर चोर को सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिली।
’थोड़ी देर बाद वहां से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने उस गाय को बचाने की पूरी कोशिश की। पूरे शरीर का जोर लगा कर साधु ने गाय को बचा लिया लेकिन मैंने देखा कि गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया।
प्रभु! बताइए यह कौन सा न्याय है?
नारद जी की बात सुनने के बाद प्रभु बोले, यह सही ही हुआ। जो चोर गाय पर पैर रख कर भाग गया था, उसकी किस्मत में तो एक खजाना था लेकिन उसके इस पाप के कारण उसे केवल कुछ ही मोहरें मिलीं। साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन गाय को बचाने के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसकी मृत्यु एक छोटी-सी चोट में बदल गई।
“इंसान के कर्म से उसका भाग्य तय होता है। इंसान को कर्म करते रहना चाहिए, क्योंकि कर्म से भाग्य बदला जा सकता है
परिश्रम करने की प्रेरणा तब मिलती है जब आगे सुनहरा भविष्य दिखाई देता हो। साथ मे यह यकीन हो कि ईश्वर आपकी मदद करने को तैयार है। ईश्वर पर विश्वास हीं हमें जीवन के प्रति सकारात्मक सोचने को प्रेरित करता है। भाग्य हमें मौके देता है, और मेहनत उन मौकों को सफलता में परिवर्तित करने के साधन । इन तीनों ( परिश्रम,भरोसा और भाग्य ) का समन्वय ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करता है। केवल भाग्य या केवल भरोसे से कुछ भी प्राप्त नही होता। अगर असफलता हमें आगे बढ़ने से रोकती है ,परिश्रम करने से रोकती है तो ईश्वर पर हमारा अटूट विश्वास पुनः मेहनत करने की शक्ति देता है। तीनों का समन्वय आवश्यक है।
श्री कृष्ण स्वयं अगर पांडवों के साथ न होते तो महाभारत की कथा कुछ और ही होती। कर्म करने की प्रेरणा स्वयं श्री नारायण ने अर्जुन को दी। ईश्वर ने स्वयं कहा कि कर्म करने वाले को ही भाग्य का साथ मिलता है और वे ही सफलता का स्वाद चख सकते है।
अतः कर्म का महत्व भाग्य से कहीं अधिक है।
तो मित्रो आज का लेख यहीं पर समाप्त करने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।
जय गुरुदेव