11 अक्टूबर 2021 का ज्ञानप्रसाद : परमपूज्य गुरुदेव से प्राप्त करें गायत्री साधना का अत्यंत सरल मार्गदर्शन
आशा करते हैं कि हमारे हृदय के करीब रहने वाले सभी सहकर्मी ,परिवारजन रविवार के अवकाश के उपरांत पूर्ण ऊर्जा से हमारे आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने को तैयार हो गए होंगें। आज की क्लास में गुरुदेव के मुखारविंद से गायत्री साधना के उन तथ्यों को सरल भाषा में सुनेगें जिन्हे हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। आप सभी ने नोटिस किया होगा कि हम प्रत्येक शब्द का सरलीकरण करके अर्थ ढूंढने का अथक परिश्रम करते हैं ताकि हमारे पाठकों को हमारे लेख अपनेआप में कम्पलीट लगें और उन्हें कोई और शब्दकोश य गूगल का सहारा न लेना पड़े। नीरक्षीर शब्द का अर्थ अवश्य ही सब जानते हैं लेकिन हमने कुछ और सरल करने का प्रयास किया है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के बारे में हमारी जिज्ञासा थी कि देखा जाये इन दो शब्दों का वास्तव में अर्थ क्या है ?
हमारी रिसर्च और परमपूज्य गुरुदेव ने साथ दिया और बहुत ही आवश्यक जानकारी मिली। आने वाले दिनों में इन दो शब्दों को समझने के लिए लेख/ वीडियो द्वारा प्रयास करने की योजना है। सरविन्द भाई साहिब का अगला लेख भी एडिटिंग की स्टेज पर है, हो सकता है कल वाला ज्ञानप्रसाद वही लेख हो।
तो चलें आज के लेख की ओर :
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अथर्ववेद के मन्त्र “’स्तता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयंतां आयुः प्राणं प्रजां पशु कीर्तिम् द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् मह्यं दत्तवा व्रजत ब्रह्मलोकम् से हम सब परिजन भलीभांति परिचित हैं।
यह मंत्र उन सब साधकों को पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करता है जो मानवीय संस्कारों से संपन्न हैं। यह लम्बी आयु प्रदान करता है ,यह प्राणशक्ति प्रदान करता है ,यह श्रेष्ठ संतानें प्रदान करता है , पशु प्रदान करता हैं , कीर्ति प्रदान करता है तथा ब्रह्मतेज प्रदान करते हुए अन्त में ब्रह्मलोक की प्राप्ति में सहायक होता है ।
परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि हमने सौ फीसदी पाया कि ये सातों के सातों लाभ एक-एक अक्षर करके इसमें सही हैं। यह हमने अपने जीवन की प्रयोगशाला में साबित किया है, अपनी जिंदगी में परीक्षण किया है कि गायत्री मन्त्र के जो लाभ बताए गए हैं सब सही हैं। इससे मनुष्य की आयु बढ़ती है। गुरुदेव कहते हैं- हमारे गुरु सर्वेश्वरानन्द जी के बारे में हमारा विश्वास है कि उनकी आयु 600 वर्ष से कम नहीं हो सकती। लोगों ने पूछा – पर गुरुदेव यह तो आप अपने गुरु की आयु बता रहे हैं, आपकी आयु कितनी होगी ? गुरुदेव ने उत्तर दिया – बेटे, हमारी आयु भी बहुत है।
60 वर्ष की आयु होने को आई, पर सही बात यह है कि हमारी आयु 60 वर्ष की नहीं है है, हम तो 300 वर्ष के हैं- 60 x 5 = 300 । आप 300 वर्ष के कैसे हो सकते हैं? यह ऐसे है कि जितना काम पाँच आदमी मिलकर करते हैं उतना काम हमने अपनी जिंदगी में किया। जितने ग्रन्थ हमने लिखे है अगर एक आदमी लिखने लगे तो एक जीवन लग जाये। इसी प्रकार एक आदमी सारा जीवन भर तप करता रहा है। हमारे जीवन का अधिकांश समय में 6 घंटे प्रतिदिन दैनिक उपासना में चला गया। इसी तरह एक आदमी ने पूरा-का पूरा श्रम गायत्री उपासना में किया। एक आदमी ने संगठन का निर्माण किया है, देश भर का संगठन किया है। हिंदुस्तान में और सारे संसार में जो लोग हमें गुरुजी कहते हैं और जिन्होंने हमें देखा है, जो हमारी बात को सुनते हैं, मानते हैं, जिन्होंने दीक्षा ली है, वे करोड़ों की तादाद में हो सकते हैं। 30 वर्ष में एक आदमी ने इतना बड़ा संगठन खड़ा किया हो, मेरी समझ के मुताबिक इतिहास में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता। शरीर छोड़ने के बाद तो कई लोगों ने किए हैं। ईसाई धर्म का विस्तार ईसा की मृत्यु के पश्चात् सेण्टपाल ने किया था। भगवान बुद्ध का मिशन उनके जीवन काल में नहीं फैल सका, इस धर्म का बहुत ही थोड़ा विस्तार हुआ था । सम्राट अशोक ने अपना सारा राज्य बुद्ध धर्म के विस्तार के लिए अर्पित किया , तब कहीं जाकर इस धर्म का विस्तार हुआ। 30 वर्ष में हमने विस्तार की व्यवस्था बनाई है। एक और आदमी है जो हमेशा कहीं और दुनिया में रहता है, संतों के पास रहता है, ज्ञानियों के पास रहता है, तपस्वियों के पास रहता है, उन्ही तपस्वियों से हम गरमी प्राप्त करते हैं, शक्ति प्राप्त करते हैं, पूछताछ करते हैं। हमारा एक और शरीर है जो जगह-जगह जाता रहता है। अक्सर लोग कहते हैं कि गुरुदेव हमने सुना है कि आप वहाँ के यज्ञ में गए थे और लोगों ने देखा भी था। यह हो भी सकता है क्योंकि शरीर केवल स्थूल ही नहीं होते सूक्ष्म भी होते हैं। सूक्ष्म शरीर की शक्ति बहुत विशाल होती है और इसी शरीर से हम जगह-जगह जाते रहे हैं ,जगह-जगह काम करते रहे हैं।
तो इस तरह हमने पाँच व्यक्तियों के बराबर की जिंदगी जी है, तो हो गयी न 300 वर्ष की आयु। यह है हमारी आयु।
त्रिपदा गायत्री की धारा जिसका आज जन्मदिन है, इसलिए इस विश्व में आई थी कि गायत्री मंत्र के शिक्षण द्वारा, पूजन-अर्चना-अनुष्ठान द्वारा अपनी तीन धाराओं को प्रवाहित करे कि मनुष्यI यश के पीछे मत भाग, कर्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुन, विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़। आज गायत्री जयंती का दिन हमारे और आपके लिए संदेश लेकर आया है कि हमको चिंतन-मनन करना चाहिए। हजार बार सोचना चाहिए कि हमारा जीवन प्रभु की इच्छाओं पर चलने वाला जीवन है। हमें जो विभूतियाँ मिली थीं, सामर्थ्य मिली थीं, उन्हें क्या हम मानव जीवन और भगवान के उद्देश्यों के अनुरूप खर्च कर रहे हैं या हम पेट के गुलाम होकर ही जी रहे हैं। जो इंद्रियाँ हमारे पास हैं, जिन्हें हम दुनिया में शांति और सुविधा उत्पन्न करने में खर्च कर सकते थे, कहीं हम उन्हें पतन के लिए खर्च तो नहीं कर रहे हैं? इन तीनों प्रश्नों पर आज हमें तीन हजार बार विचार करना चाहिए।
गुरुदेव कहते हैं :मेरी उपासना की प्रक्रिया इसी प्रकार की चलती हुई चली गई। लंबे जीवन भर मैं गायत्री मंत्र का जप करता रहा, स्थूल उपासना भी करता रहा, पूजा-प्रार्थना भी करता रहा, लेकिन अपने अंतरंग में गायत्री की उन तीन धाराओं को, जिन्हें मैं सूक्ष्म धाराएँ कहता हूँ, ज्ञान की गंगा कहता हूँ, भगवान की प्रेरणा कहता हूँ, अपने जीवन में धारण करने की कोशिश भी करता रहा। अब जब कि यह मथुरा का, मेरे जीवन का अंतिम गायत्री जयंती का अवसर है, तब मैं आपको अपने जीवन के अनुभव न सुनाऊँ तो यह उचित न होगा। इस अंतिम अवसर पर अपने सारे जीवन के , साठ वर्ष के निष्कर्ष बता रहा हूँ जिसको आप चाहें तो गायत्री चमत्कार का मूल आधार कह सकते हैं । अगर आप समझते हों कि मेरे व्यक्तित्व में महानता है तो आप भी गायत्री मंत्र की महत्ता के द्वारा कुछ न कुछ परिणाम अवश्य ही प्राप्त कर ही सकते हैं, अगर आपकी ऐसी मान्यता हो तो मेरी प्रार्थना है कि इस मान्यता के साथ एक और मान्यता जोड़ लें। वह मान्यता है कि गायत्री ध्यान करने के लिए जिस देवी की आराधना करते हैं वह देवी वास्तव में कोई महिला नहीं है। यह प्रतीक है विवेकशीलता और विचारशीलता के प्रवाह की जो इस विश्व में प्रवाहित है। यह वह प्रवाह है जो मनुष्य के मस्तिष्क को, क्रिया-कलाप को और अंतरात्मा को छूता है। ध्यान के समय आप हंस पर सवार हुई गायत्री का ध्यान बेशक करें , लेकिन यह भी ध्यान करें कि गायत्री माता सिर्फ हंस पर सवार होंगी, बगुले पर नहीं। हंस वह जो नीरक्षीर का भेद जानता हो। नीर का अर्थ होता है पानी और क्षीर का अर्थ दूध होता है। हंस के बारे में यह धारणा है कि वह इतना बुद्धिमान होता है कि अगर उसे पानी में दूध मिला कर दिया जाये तो वह दूध पी लेता हो, पानी को फेंक देता हो। इस दुनिया में पाप और पुण्य, अनुचित और उचित दोनों मिले हुए हैं। अंतरात्मा जिसे अनुचित कहे, उसे हम ठुकराएँ। जिसे उचित कहे उसी को स्वीकार करें, यह है हंसवृत्ति। यह है हंस पर सवारी। भगवान हम पर सवारी करें इसलिए हमको हंस बनना चाहिए, सफेद बनना चाहिए। यदि वह विवेकशीलता हमारे भीतर आ जाए तो हमारे जीवन की दिशाएँ ही बदल जाएँ। इस विवेकशीलता को मैं ऋतंभरा प्रज्ञा कहता हूँ, गायत्री कहता हूँ। गायत्री का एक और नाम ऋतंभरा प्रज्ञा है। अगर यह हमारे अंतरंग में,अंतःकरण में आ जाए तो हमारे जीवन का कायाकल्प ही हो जाता है , हमारे काम करने का ढंग ,हमारे जीने का ढंग और और इच्छा करने का ढंग बदल जाता है । हम भगवान बन जाते हैं , हमारे पास न लक्ष्मी की कमी रहती और न ही विभूतियों की कोई कमी रहती है ।
गुरुदेव कह रहे हैं मैंने गायत्री उपासना को ऋतंभरा प्रज्ञा के रूप में समझने और समझाने की कोशिश की लेकिन लोगों ने उसके बाह्य कलेवर (outer skeleton ) को पकड़ किया, वह कलेवर जो उन्हें आसान लगता था। लोगों को ऐसा मालूम पड़ता था कि गायत्री का यही रूप है जो हमारी कामनाओं और इच्छाओं को पूरा करने में सहायक है और बाकी वाले हिस्से को भूल गए ।असंयमी रोगी, जो अपने आपको कण्ट्रोल नहीं कर सकता ,जो परहेज़ नहीं कर सकता , उसके लिए तो वही डॉक्टर अच्छा है जो मनमरजी का भोजन करने दे, कोई भी रोक टोक न करे। ठीक उसी डॉक्टर की तरह ऐसे लोगों ने वह देवी ढूंढी जो उनके लिए सबसे अच्छी देवी थी यानि ऐसी देवी जो उनकी कामनाओं को पूरा करे। उन्होंने अपनी इच्छा के अनुरूप देवता को, माँ गायत्री को ढालने की कोशिश की ताकि उनके सब कार्य पूर्ण होते जाएँ। ऐसे लोग माँ गायत्री से यां किसी और देवता की समीपता से पूर्णतया वंचित रहे और वंचित ही रहेंगे। इसके विपरीत वह लोग थे जिन्होंने भगवान की इच्छा के अनुरूप स्वयं को ढालने की कोशिश की और वे भगवान के कृपा पात्र बन गए। ऐसे लोग , केवल ऐसे ही लोग माँ गायत्री के समस्त अनुदान प्राप्त कर सके।
परमपूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन का सिद्धांत कई बार अपने विशाल साहित्य में, वीडियोस में दोहराया है “तू मेरा काम कर ,मैं तेरा काम करूँगा” भगवान तो केवल श्रद्धा के ,समर्पण के ही तो भूखे हैं।
गुरुदेव कह रहे हैं: मैंने सारा जीवन ऐसे ही जिया है , इसी रूप में गायत्री मंत्र को समझा, उपासना की,जप किया और जप के साथ-साथ भावनाओं को भी हृदयंगम किया।
गुरुदेव के यह शब्द उनके तपोभूमि मथुरा में दिए गए 1971 वाले अंतिम उद्भोधन पर आधारित हैं जब वह मथुरा से प्रस्थान करके शांतिकुंज जा रहे थे। उन्होंने कहा:
मेरे जाने के उपरांत आप लोग स्वयं यह विचार करना कि क्या गायत्री मंत्र सामर्थ्यवान है कि नहीं ? आप स्वयं ही समझ जायेंगें कि हाँ गायत्री मंत्र सामर्थ्यवान है। अगर आप इस मन्त्र की भावना को अंतरंग में प्रवेश कराकर स्थापित कर सकें तो आपको यह मानकर चलना चाहिए कि वह समस्त सामर्थ्य जो भगवान में हैं, वह सब की सब भक्त में भी हो सकती हैं। ऐसा भक्त ,इस स्तर का भक्त विश्व को लाभ देते हुए अपना भी कल्याण कर सकता है। मैं तो यही कहूंगा कि आपकी जो भी मान्यताएं हैं आप उन पर स्थिर रहिये , सभी की मान्यताओं का सम्मान करना हमारा धर्म है लेकिन मेरे कहने पर इन्ही मान्यताओं में अध्यात्म जोड़ लें तो मैं समझूंगा कि मथुरा में गायत्री जयंती का मेरा यह अंतिम उद्बोधन सार्थक हो गया। आपका सुनना, मेरा कहना सार्थक हो गया और जिन महामानवों ने गायत्री मन्त्र और गायत्री महाविद्या की अविष्कार किया उनका उदेश्य और प्रयोजन पूरा हो गया।
तो मित्रो आज का लेख यहीं पर समाप्त करने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।
जय गुरुदेव