6 अक्टूबर 2021 का ज्ञानप्रसाद – परमपूज्य गुरुदेव की तिरुपति बालाजी संक्षिप्त यात्रा
क्या सिर्फ जल पीकर ही जीवित रहा जा सकता है? परमपूज्य गुरुदेव ने जलाहारी बाबा से पूछा। बाबा ने उत्तर दिया “तुम भी तो छाछ और जौ की रोटी से ही निर्वाह कर रहे हो ना तम्हारे शरीर की आवश्यकता इससे पूरी हो जाती है।” जलाहारी बाबा को गुरुदेव पहली बार आज ही मिले थे ,वाह रे दिव्य शक्ति ! जिन्हे गुरुदेव की शक्ति पर विश्वास नहीं है वह तो कहेंगें कि यह सब मनगढंत कथाये हैं ,किसने देखा है ? लेकिन हम अपने सहकर्मियों को लगातार गुरुदेव की शक्तियों का अनुभव करवाते आ रहे हैं। नवंबर 2006 की अखंड ज्योति पर आधारित आज का ज्ञानप्रसाद गुरुदेव की तिरुपति बाला जी यात्रा का संक्षिप्त वर्णन कर रहा है। लेख को लिखते समय बार -बार जिज्ञासा होती रही कि तिरुपति बाला जी पर और अधिक जानकारी संगृहीत करनी चाहिए। लेकिन इतना विशाल और विस्तृत विषय एक -दो लेखों य वीडियो में compile करना असम्भव ही दिखा। अगर गुरुदेव का मार्गदर्शन मिलता रहा तो शायद हमारा यह संकल्प भी पूरा हो सके।
रजत कुमार सारंगी भाई साहिब का योगदान :
हम रजत भाई के साहिब ह्रदय से आभारी है जिन्होंने हमें “नव कलेवर” के विषय में न सिर्फ correct किया बल्कि आलेख लिखने को ऑफर भी किया। यही है ऑनलाइन ज्ञानरथ के comment -counter comment की अविश्वसनीय शक्ति। भाई साहिब तो ओडिशा के ही निवासी हैं, तो उनसे अधिक authentic जानकारी कौन दे सकता है। आशा करते हैं हर सहकर्मी अधिक से अधिक योगदान देने का प्रयास करके गुरुचरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करेगा।
कल 6 घंटे के लिए फेसबुक ,व्हाट्सप्प इत्यादि बंद रहे। व्हाट्सप्प पर बहुतों को हमारा लेख न मिल सका। शुभरात्रि -शुभकामना भी नहीं मिल सकी – यह एक नवीन प्रयास है जिसमें हम कामना करते हैं कि आप गुरुदेव के अमृत वचनों से deep नींद का आनंद प्राप्त करें और सुबह अपनी दिनचर्या ज्ञानामृत से आरम्भ करें।
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जलाहारी बाबा से भेंट

तिरुपति के रास्ते में गुरुदेव की कुछ संतों से भेंट हुई। इनमें एक जलाहारी बाबा भी थे। वे अथिरला नामक तीर्थ में मिले थे। यह तीर्थ क्षेत्रीय स्तर पर ही प्रसिद्ध है। चेन्नई ( उस समय मद्रास ) से करीब सौ किलोमीटर दूर पड़ने वाले इस तीर्थ में एक सरोवर है। सरोवर के बारे में लोगों का विश्वास है कि भगवान परशुराम ने उसमें स्नान किया था। स्नान के बाद उन्हें मातृहत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। सरोवर के पास एक शिव मंदिर है। जलाहारी बाबा मंदिर के पास ही एक कुटिया में रहते थे। वे सिर्फ कौपीन ( लंगोट )पहनते थे। शरीर पर उसके अलावा कोई वस्त्र नहीं होता था। वे धूनी तापते रहते थे। उनका वास्तविक नाम कुछ और था, लेकिन जल पर ही निर्भर रहने के कारण उनका नाम जलाहारी पड़ गया था। लोगों ने उन्हें पानी के अलावा कुछ और ग्रहण करते हुए कभी नहीं देखा। बाबा के पास पहुँचकर गुरुदेव ने परिचय देने की कोशिश की। उन्होंने अनमने भाव से सुना।
गुरुदेव ने कहा कि मेरी एक जिज्ञासा है, उसका समाधान केवल आप ही कर सकते हैं। जलाहारी बाबा ने प्रश्न को फिर टाल दिया, कहा-“कोई भी साधक किसी की जिज्ञासा पूरी करने में समर्थ नहीं है। वह जहाँ से उठती है, वहीं पूरी होती है या परमात्मा उसे तृप्त करता है।”
गुरुदेव ने भी हार नहीं मानी। उन्होंने कहा–“मैं आपके बारे में कुछ पूछना चाह रहा हूँ। लोग कहते हैं कि आप जलाहारी हैं। क्या सिर्फ जल पीकर ही जीवित रहा जा सकता है? शरीर की आवश्यकताएँ इससे पूरी हो जाती हैं।” सुनकर बाबा ने धूनी पर से ध्यान हटाया और गुरुदेव की ओर देखा। कुछ पल निहारते रहने
के बाद कहा-
“तुम भी तो छाछ और जौ की रोटी से ही निर्वाह कर रहे हो ना तम्हारे शरीर की आवश्यकता इससे पूरी हो जाती है।”
बाबा का यह उत्तर सुनकर गुरुदेव चकित रह गए। उनकी साधना तपश्चर्या के बारे में जलाहारी बाबा को कैसे पता लगा? अपने मूल स्थान में तो बहुत लोगों को नहीं मालूम। अतिनिकटवर्ती स्वजन-परिचितों से आगे किसी को उनके व्रत संकल्प के बारे में नहीं पता था। गुरुदेव को स्तब्ध देखकर बाबा ने कहा-
“व्यथित मत होओ, तुम्हारी साधना और उद्देश्य के बारे में मुझे ही नहीं और भी कई साधकों को पता है। यह चमत्कार नहीं है। जिस सत्ता ने तुम्हें तप के लिए कहा है, उसी ने कई और साधकों को तुम्हारा सहयोग करने के लिए भी प्रेरित किया है।”
अपनी साधना के बारे में यह एक नए तथ्य का उद्घाटन था। गुरुदेव ने कुछ और अधिक पूछना आवश्यक नहीं समझा। उन बाबा ने कहा-“वेंकटेश्वर भगवान के दर्शन के बाद पांडिचेरी में महायोगी के आश्रम जा रहे हो ना, वहाँ से सीधे वापस जाना है। थोड़ा-सा रुककर बाबा ने अपनी बात पूरी की. अब मुझसे ज्यादा और न कहलाओ। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
गुरुदेव ने पीछे मुड़कर देखा। कुटिया के बाहर कुछ श्रद्धालु हाथ जोड़े खड़े थे। ये लोग जलाहारी बाबा को प्रणाम करने आए थे। गुरुदेव ने प्रणाम किया और वहाँ से उठ गए। वे बाबा द्वारा उद्घाटित तथ्य के बारे में सोच रहे थे।
तिरुपति की कठिन यात्रा
आश्चर्य अब अहोभाव में बदल रहा था। प्रतीत हो रहा था कि आगे बड़े काम संपन्न करना है। स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी उस काम का एक छोटा-सा हिस्सा है। जिस पृष्ठभूमि और मन:स्थिति ने इधर आने के लिए प्रेरित किया था, वह भी राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों से अपने आप को थोड़ा अलग करने के लिए कह रही थी। कुछ दिन पूर्व मिस्टर ह्यूम पर आधारित लेख में भी गुरुदेव को राजनितिक गतिविधियों से अलग होने की चर्चा की गयी थी। इस लेख में जिस यात्रा की बात कर रहे हैं 1937 में सम्पन्न की गयी थी और मिस्टर ह्यूम ने गुरुदेव से कहा था कि 1940 से राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम से अलग होना मार्गसत्ता का ही निर्देश था।
तिरुमले पर्वत पर स्थित वेंकटेश्वर या बालाजी का मंदिर सर्वाधिक धनी देवस्थान है। लेकिन जब हमने गूगल रिसर्च करके इस तथ्य को टेस्ट करना चाहा तो केरल प्रदेश का पद्मनाभस्वामी मंदिर आया। इसलिए हमने इस विषय को यहीं पर रोकना चाहा। हम अपने लेखों में किसी भी controversy से अलग रहने का प्रयास करते हैं।
जिस पर्वत पर तिरुपति बालाजी मंदिर स्थित है, उसका नाम ‘श्रीसंपन्न’ है। तेलगू में तिरुमले का अर्थ यही होता है। तिरु, अर्थात-श्रीमंत और मले, अर्थात पर्वत । सात पहाड़ियों से घिरे शेषाचल या तिरुमले पर्वत पर तिरूपति भगवान के दर्शन करना वर्तमान समय (2021 ) में काफी आसान हो गया है लेकिन जब परमपूज्य गुरुदेव गए थे तब घुमावदार पहाड़ी रास्ता करीब लगभग तैंतीस किलोमीटर था। करीब आठ किलोमीटर की चढ़ाई थी इसमें भी कुछ तो बहुत ही कठिन होती थी। थोड़ी-थोड़ी दूर रुकना और विश्राम करना पड़ता था। गुरुदेव को यह यात्रा पूरी करने में सात-आठ घंटे लगे होंगे।
शेषाचल का आस-पास अत्यंत मनोरम था। आम और चन्दन के वृक्षों से आवृत पहाड़ी पर छाया और सुगंध वातावरण में यात्रा करने पर रामायण और महाभारतकाल के आश्रमों जैसी अनुभूति होती है। जिस किसी ने भी उन ग्रंथों को पढ़ा हो तो उनमें आए वर्णनों का अनायास ही स्मरण हो आता है। गुरुदेव ने मंदिर जाते हुए रास्ते में पांडु गुफा भी देखी। इस गुफा में पाँचों पांडवों की मूर्तियाँ और भगवान विष्णु के पद्चिन्न थे। गुरुदेव ने यहाँ थोड़ा ही समय व्यतीत किया। उन्हें लगा कि गुफा में तप-साधना से उद्भूत चैतन्यभाव है, स्थान जाग्रत है। यहाँ-वहाँ घूमने के बजाय उन्होंने आधा घंटा बैठकर ध्यान किया। इसके बाद बिना रुके तिरुपति मंदिर पहुँचे। लगभग दो मीटर ऊँची भगवान विष्णु की प्रतिमा देखते ही उल्लास का भाव जाग उठता है। चतुर्भुज विष्णु के दो हाथों में शंख और चक्र है। एक हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है. बायाँ हाथ कमर पर रखा है। गौर से देखने पर ही यह दिखाई देता है, अन्यथा वस्त्र आभूषणों से सज्जित देवता की यह भंगिमा उनके श्रृंगार में ही छिपी रह जाती है।
देव प्रतिमा का श्रृंगार
मंदिर कितना प्राचीन है? इस बारे में लोगों की अलग-अलग धारणा है। गुरुदेव ने यह सब जानने में समय नष्ट नहीं किया। करीब दस मिनट भगवान वेंकटेश्वर के विग्रह के सामने खड़े रहे और अपलक निहारते रहे। शिव और विष्णु के समन्वित स्वरूप वेंकटेश्वर के विग्रह पर आभूषणों की आभा चमक रही थी। गुरुदेव ने ध्यान से देखा, वह आभा आभूषणों की नहीं थी, बल्कि भगवान के विग्रह से ही निकलकर आ रही थी। भीतर से ही अनुभूति हुई – “प्रतिमा में चेतना और स्फूर्ति हो तो यह आभा सहज ही आनी चाहिए। उसे ढका रखने के लिए श्रृंगार किया जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को विग्रह का तेज विचलित कर सकता है। विग्रह वह मूर्ति है जिसमें देवता की पूजा की जाती है। हमारे में से बहुत सारे सहकर्मी इसी भावना के साथ अपनी पूजा-स्थली में ध्यान साधना करते होंगें। यह विश्वास ही है जो हमें परमात्मा से जोड़ता है।
इतना वैभव और राजसी व्यवस्था देखकर गुरुदेव को भाव आया कि लाखों करोड़ों के इष्ट -आराध्य तिरुपति का ठाठ बाठ भी तो उन्ही की तरह होना चाहिए। लेकिन गुरुदेव ने इन बातों में ध्यान न देते हुए ,पूजा अर्चना में विशेष रुची ली।
इन विचारों को मानसिक जगत में संपन्न करते हुए गुरुदेव जाग्रत और संबुद्ध थे। उन्हें अनुभव हो रहा था कि प्रत्येक विचार चित में विशिष्ट भाव जगा रहा है। आचमन के लिए वेंकटेश्वर को जल प्रस्तुत किया तो प्रतीत हुआ कि विग्रह से पवित्रता की पहली किरण प्रकट हुई और आशीर्वाद की तरह अपने भीतर प्रवेश कर गई। पुष्करणी के तट पर क्षौरकर्म कराकर बहत से : लोग स्नान कर रहे थे। यह प्रचलन तिरुपति में ही है। मान्यता है कि मनोकामना पूरी होने के बाद लोग यहाँ अपने केश कटाते हैं। गुरुदेव को लगा कि यह देवऋण से मुक्त होने का प्रतीक है।
गुरुदेव ने लौटते हुए मंदिर के शिखर की ओर देखा। वह खिली हुई धूप से चमक रहा था। उस चमक ने गुरुदेव के मन को बाँध लिया। वे ठिठककर खड़े हो गए और शिखर को निहारने लगे। वे अपलक देखे जा रहे थे, पोछे से किसी ने आवाज लगाई, क्या ताक रहे हो? लोगों को अपना भविष्य दिखाई देता है, तुम्हें भी कुछ दीख रहा है क्या?गुरुदेव ने इन शब्दों को सुना। न कोई उत्तर दिया और न ही पीछे मुड़कर देखा। शिखर पर उन्हें हिमालय की बर्फीली चोटी दिखाई दे रही थी। वह चोटी जिसे उन्होंने अपनी मार्गदर्शक सत्ता के सान्निध्य में बिताए समय में देखा था। कुछ क्षण के लिए उन्हें अपने गुरुदेव के श्वेत-धवल केश और दाढ़ी भी दिखाई दी। कुछ ही क्षण में यह दृश्य लुप्त हो गया। ध्यान से देखा तो मंदिर का शिखर पहले की तरह ही अपनी संपूर्ण आभा से चमक रहा था। दृश्य में निहित संदेश को समझने के लिए गुरुदेव को अपने मानस में उलझना नहीं पड़ा, वह स्पष्ट था। शिखर को एक बार भरपूर दृष्टि से निहारकर उन्होंने दोनों हाथ जोड़ दिए। फिर मंदिर के द्वार की ओर देखकर प्रणाम किया। उन्हें लगा कि आगे चलकर ‘तिरुपति’ उत्तर और दक्षिण के मध्य एक सेतु बनेगा। गायत्री-साधना के प्रचार के लिए और राष्ट्र को अखंड रखने के लिए कोई पराक्रम करना हो तो यहाँ के मंदिर बहुत श्रेष्ठ हो सकते हैं। यही सोचकर मंदिर को निहारते हुए ही वे मुड़कर अगली यात्रा पर चल दिए।
तो मित्रो आज का लेख यहीं पर समाप्त करने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।
जय गुरुदेव