5 अक्टूबर 2021 का ज्ञानप्रसाद – गोवर्धन मठ के आचार्य स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ से गुरुदेव की भेंट
आज का ज्ञानप्रसाद परमपूज्य गुरुदेव के दक्षिण प्रवास के दौरान गोवर्धन मठ, पुरी ( ओडिशा ) के महाराजश्री के साथ बिताये कुछ पलों का विवरण देता है। परमपूज्य गुरुदेव यहाँ भी दादा गुरु के निर्देश पर ही गए थे ताकि उन्हें आने वाले समय में युगतीर्थ शांतिकुंज जैसे संस्थान को चलाने में मार्गदर्शन मिल सके। इतिहास और परंपरा के विद्वान शंकर मठों का उल्लेख बड़े गर्व से करते हैं। उनके योगदान को भी सराहते हैं, लेकिन उनकी स्थिति सुधारने के लिए कहीं कोई प्रयास नहीं होते। गोवर्धन मठ की दुर्दशा देखकर परमपूज्य गुरुदेव का ह्रदय व्यथित तो अवश्य हुआ था लेकिन कई प्रकार के सुझाव भी हृदयपटल पर अंकित हुए थे। परमपूज्य गुरुदेव की यह यात्रा 1937 में हुई थी। अगर 1911( जन्म वर्ष ) को लेकर चलें तो गुरुदेव की आयु 26 वर्ष की होनी चाहिए, अगर 1926 के अनुसार चलें जिसे गुरुदेव अपना आध्यात्मिक जन्म मानते हैं तो उनकी आयु केवल 11 वर्ष है। जो भी हो मार्गदर्शक का निर्देश शिष्य से क्या कुछ नहीं करवा लेता – असंभव से सम्भव की पूर्ति हो जाती है। इस आयु को देखकर हमारे ज्ञानरथ परिवार के युवा अवश्य ही प्रेरणा ले सकते हैं। हमें इस बात का पूर्ण विश्वास है कि अगर गुरुदेव को दादा गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त था तो हमारे लिए परमपूज्य गुरुदेव की शक्ति कम है क्या ?
तो इसी भूमिका के साथ चलते हैं आज के अमृतपान की ओर :
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जून, 1937 की कोई तारीख थी। परमपूज्य गुरुदेव प्रतिदिन की तरह उस दिन भी तड़के तीन बजे उठे। स्नानादि से निवृत्त होकर नियमित उपासना के लिए बैठे। जप और ध्यान पूरा हुआ तो फिर उसी भाव दशा ने घेर लिया। वे सामने स्थापित अखण्ड दीपक की ज्योति को ध्यान से देखने लगे। कितनी देर टकटकी लगाए देखते रहे, कुछ प्रतीत नहीं हुआ। दीपक की ओर देखते हुए चित्त एकाग्र हो गया। द्रष्टा का ध्यान प्रगाढ़ हुआ। भाव समाधि की अवस्था आने लगी। पहले द्रष्टा लीन हुआ, फिर ज्योति भी लुप्त हो गई। द्रष्टा और दृश्य दोनों लुप्त हो गए। यह अवस्था देर तक रही। गुरुदेव को इतना ही याद है कि पत्नी ने झिंझोड़कर जगाया था। लगा था जैसे नींद टूटी हो। जब वे जागे तो पूजा-कक्ष में आसन लगाए बैठे थे। उन्हें इस अवस्था से पहले के दृश्य याद आने लगे। पहले जैसी असमंजस और संशय की स्थिति नहीं रही थी। आगे क्या करना है? यह साफ दिखाई दे रहा था।उठकर उन्होंने आसन समेटा। पत्नी ने पूछा छाछ ले आऊँ। दूसरे दिनों की तुलना में आज देर हो गई थी। नियमित क्रम में जप-ध्यान के दो घंटे बाद गुरुदेव दूध या छाछ लेते थे। आज देर तक बैठना हुआ था। गुरुदेव कुछ रुकने के लिए कहकर अपनी पुस्तकें देखने लगे। उन्होंने श्वेताश्वतर उपनिषद् की प्रति निकाली और उसके पन्ने उलटे, किसी प्रसंग पर उनकी दृष्टि अटकी। बहुत बाद में चलकर उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि इस उपनिषद् को उन्होंने एक बार में पूरा ही पढ़ लिया था। जप-ध्यान के बाद चित्त में आई स्थिरता तो यथावत् थी ही , उपनिषद् में उसे अभिव्यक्ति मिली। उपनिषद पढ़ लेने के बाद उन्होंने नाश्ता माँगा, उसके बाद अपनी बेटी दया को आवाज़ें लगाने लगे। उत्तर भारत के उच्च श्रेणी के परिवारों में तब पत्नी को उसके नाम से बुलाने का रिवाज़ नहीं था। उनकी पत्नी सरस्वती देवी जी उनकी ओर देखने लगीं। हमारे पाठक जानते हैं कि सरस्वती देवी परमपूज्य गुरुदेव की पहली पत्नी थीं। उन्हें सुनने के लिए उत्सुक देखकर गुरुदेव ने कहा- “हम लोग आज गाँव चलेंगे। तुम वहाँ रहना। मैं कुछ दिन के लिए दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहा हूँ।” पत्नी ने तुरंत तैयारी शुरू कर दी। उसी दिन दोपहर को वे अपना परिवार आँवलखेड़ा छोड़ आए और दक्षिण भारत की यात्रा का प्रबंध करने लगे। प्रेरणा उभरी थी कि पुरी, तिरुपति और कांचीपुरम् होते हुए पांडिचेरी की यात्रा की जाए। रास्ते में आने वाले नगरों या तीर्थों में रुकना नहीं है। यह यात्रा तीन सप्ताह में पूरी कर लेनी थी। आवश्यक तैयारी और व्यवस्था के साथ उनका प्रवास आरंभ हुआ।
विलक्षण जगन्नाथ पुरी में उन्होंने लगभग सभी महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थानों को देखा। जगन्नाथ मंदिर और शंकरचार्य मठ में उन्होंने कुछ विशेष ध्यान दिया। पुरी के मंदिर के संबंध में प्रसिद्ध है कि यह आठ सौ वर्ष से पुराना है। ब्रह्महत्या के पाप से बचने के लिए राजा अनंग भीमसेन ने इसे बनवाया था और बाद में दूसरे राजा, सामंत, जागीरदार मंदिर की शोभा-समृद्धि में अपनी ओर से कुछ न कुछ बढ़ाते रहे। गुरुदेव ने जिस समय पुरी की यात्रा की, उस समय मंदिर में ‘नव कलेवर’ उत्सव की तैयारियाँ चल रही थीं। मंदिर में स्थापित विग्रह किसी धातु या मिट्टी से नहीं लकड़ी से बनाया जाता है। वह लकड़ी समुद्र से संकलित की जाती है। लोकश्रद्धा है कि कलेवर उत्सव के समय से यथेष्ट पूर्व ब्रह्मदारु वृक्ष का तना समुद्र की लहरों पर तैरता हुआ मिल जाता है। नियत मुहूर्त, घड़ी में उस लकड़ी से बलराम, सुभद्रा और जगन्नाथ (कृष्ण) की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। मूर्तियों के सिर और धड़ ही बनाए जाते हैं, कान नहीं। जगन्नाथ के वैभव, परंपरा और महिमा देखकर गुरुदेव मुग्ध हो गए। वहाँ की प्रसाद-व्यवस्था ने उन्हें सबसे अधिक अभिभूत किया। जगन्नाथ जी का पूजा-प्रसाद सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के मिलता है। 1937 में जब और जगहों पर पिछड़ी और निम्न जाति कहे जाने वाले लोगों को मंदिर की चौखट के पास भी नहीं आने दिया जाता था, उस समय भी पुरी के मंदिर में हरिजनों को बराबरी से दर्शन करने देने और प्रसाद देने की परंपरा गदगद कर देने वाली थी। समाज में स्वस्थ परंपराओं-प्रचलनों को महत्त्व देने के इच्छुक कार्यकर्ताओं या मनीषियों के लिए यह प्रचलन आदर्श उदाहरण था।
गोवर्धन मठ की दुर्दशा :
गुंडिचा मंदिर और कपालमोचन होते हुए गुरुदेव शंकराचार्य मठ गए। पुरी के मंदिर से निकलकर समुद्र तट की ओर जाने पर कुछ दूर आगे दाहिनी ओर मुड़ने पर यह मठ आता है। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से आदि शंकरचार्य गोवर्धन मठ एक है। बाकि के तीन मठ शारदा पीठ, कर्नाटक,द्वारका पीठ, गुजरात और ज्योतिर मठ, उत्तराखंड हैं।
गोवर्धन मठ की प्रतिष्ठा जगत विख्यात है। आर्ष संस्कृति के क्षेत्र में सामान्य रुचि रखने वाले लोग भी जानते हैं कि आदि शंकर द्वारा स्थापित किए चार मठों में गोवर्धन पीठ का स्थान बहुत ही बड़ा है। गुरुदेव ने भी इस मठ के बारे में पढ़-सुन रखा था। यहाँ आकर देखा तो मठ की दशा देखकर मन बहुत ही दुखी हुआ । साधारण से दो मंजिले मकान में सिमटे मठ को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि इस केंद्र से पूर्वी भारत में सनातन धर्म की विजय दुंदुभि सुनाई देती थी। मठ के आचार्य स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ से भेंट का आग्रह किया। गुरुदेव समझ रहे थे कि जिस प्रकार की शंकराचार्य की पद प्रतिष्ठा है, उसे देखते हुए शंकराचार्य से मिलना कठिन होगा। दूसरे कई मठों और आश्रमों में ऐसा ही अनुभव हुआ था। उनकी धारणा बन गई थी कि बड़े नाम और पद वाले लोग अभिमान से ही जीते हैं। संभव है गोवर्धन मठ के शंकराचार्य इस तरह के न हों, लेकिन सावधानी तो बरतनी ही चाहिए। यह सोचकर उन्होंने एक सेवक से महाराजश्री के पास संदेश भेजने के लिए कहा। मठ में गिने चुने सेवक ही दिखाई दे रहे थे। कुछ लड़के भी यहाँ-वहाँ काम करते दीख रहे थे। गुरुदेव ने अनुमान लगाया कि ये आश्रम के ब्रह्मचारी होंगे। वे उस इमारत को भी गौर से देखने लगे जिसमें मठ स्थित था या जिसमें आचार्य रहते थे। देखकर लगता था कि कई वर्षों से भवन की रंगाई-पुताई ही नहीं हुई है। दीवारों पर जगह-जगह पपड़ियाँ उखड़ी हुई थीं। छूने से ही वह फर्श पर गिरने लगतीं। मठ की दशा पर गौर करते हुए गुरुदेव किसी उधेड़बुन में लगे हुए थे कि एक युवा संन्यासी द्वार पर प्रकट हुए और बोले-‘आइए’, ‘आइए’। उनके स्वर में उत्साह भरा आवेग था। गुरुदेव समझे कि यह संन्यासी उन्हें लिवाने आए हैं और महाराजश्री के निकट रहने वाले कोई संन्यासी होंगे। गुरुदेव ने कहा-“मैं श्रीराम शर्मा हूँ ब्रजभूमि से आया हूँ। महाराजश्री के दर्शन करने की इच्छा से यहाँ आया हूँ।”
‘यह परिचय पाकर संन्यासी ने प्रसन्नता व्यक्त की और वे बोले-“मुझे विदित है, जिनसे आप भेंट और विमर्श करने आए हैं, वह व्यक्ति आपके सम्मुख ही खड़ा है। आइए, भीतर आइए।” सुनकर गुरुदेव ने महाराजश्री के चरणों में तुरंत प्रणाम किया। यह सादगी और सरलता विलक्षण थी। वे महाराजश्री के पीछे-पीछे चल दिए और अंदर जाकर एक कक्ष में बैठे। महाराजश्री से बातचीत के दौरान पता चला कि मठ की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है।
इतिहास और परंपरा के विद्वान शंकरचार्य मठों का उल्लेख बड़े गर्व से करते हैं। उनके योगदान को भी सराहते हैं, लेकिन उनकी स्थिति सुधारने के लिए कहीं कोई प्रयास नहीं होते। गुरुदेव ने कहा ,”मुझे लगता है कि आश्रम के पास समर्पित कार्यकर्ताओं की कमी है “ महाराजश्री ने कहा-“कमी छोड़िए कार्यकर्ता हैं ही नहीं। कुल सात-आठ ब्रह्मचारी हैं। वे सभी किशोर अवस्था के हैं। उन्हें अध्ययन से ही समय नहीं मिलता। उन कोमल आयु के बच्चों से अपेक्षा भी क्या की जाए।” गुरुदेव ने सुझाव दिया “इन बच्चों के अभिभावकों से सहयोग के लिए कहा जा सकता है।” । महाराजश्री ने इस सुझाव के संबंध में कहा कि यह संभव नहीं है। यहाँ पढ़ रहे बच्चे निर्धन परिवारों से आए हैं। माता पिता उनकी शिक्षा का खर्च ही नहीं उठा सकते, आश्रम की सहायता करना तो बहुत दूर की बात है। इन ब्रह्मचारियों की शिक्षा-दीक्षा का भार आश्रम पर ही है। यह जानकर गुरुदेव ने कहा-“तब तो स्थिति और भी जटिल है। क्या यह संभव नहीं है कि समाज में निकलकर लोगों से सहयोग जुटाया जाए।”
पहले कार्यकर्ता, फिर पीठ
“लेकिन उसके लिए भी कार्यकर्ता चाहिए।” महाराज श्री ने कहा-“हम स्वयं भिक्षा के लिए निकल नहीं सकते। भगवान शंकराचार्य का बनाया हुआ अनुशासन इसके लिए रोकता है। यहाँ आने वाले लोगों से कहकर जो सहयोग जुटाया जा सकता है, वह जुटा रहे हैं। उससे आश्रम की वर्तमान आवश्यकताएँ पूरी होती हैं।”
बातचीत से कोई समाधान नहीं निकला। गुरुदेव यह दष्टि लेकर आश्रम से बाहर आए कि परंपरागत धार्मिक संस्थाओं में विचारशीलता नहीं है। लोकोपयोगी क्रियाकलाप नहीं चलते, इसलिए समाज का उन पर ध्यान नहीं जाता। उनके पास शक्ति भी नहीं होती। तपस्या और विद्वत्ता में असाधारण होते हुए भी मठाधीशों, आचार्यों या महात्माओं का समाज पर सीधे प्रभाव नहीं पड़ता। शंकरचार्य मठ की गौरव-गरिमा से भरे इतिहास के बावजूद उसकी दयनीय स्थिति का कारण “समाज-साधना का अभाव” ही समझ आ रहा था। उन्हें यह भी अनुभव हुआ कि पहले कार्यकर्ताओं का निर्माण आवश्यक है। कार्यकर्त्ता तैयार हो जाएँ, तभी मंदिर या मठ बनाया जाए। इन्हीं विषयों पर चितन करते हुए गुरुदेव पुरी से रवाना हुए। वे गोवर्धन मठ के साथ जगन्नाथ मंदिर की दशा, दुर्दशा और उसके कारणों पर भी सोच-विचार कर रहे थे।
तो मित्रो आज का लेख यहीं पर समाप्त करने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।
जय गुरुदेव
