28 सितम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद – तुलाधार और दमयंती का बलिदान -1
मित्रो आज के ज्ञानप्रसाद में हम तुलाधार और दमयंती, पति-पत्नी की रोचक बहस तो पढेंगें ही लेकिन जैसे -जैसे बहस के अगले भागों की ओर जाते जायेंगें , अंत बहुत ही मार्मिक होगा। एक बार फिर हमें गुरुदेव की शक्ति पर स्टैम्प लगाने का सौभाग्य प्राप्त होगा। यह पति -पत्नी गुरुदेव से अपनी समस्या का निवारण कराने आये तो गुरुदेव ने कहा – “तुम अपना सिर ही क्यों नहीं काट कर दे देते”, तो आप स्वयं देखेंगें कि अंत क्या हुआ ,लेकिन आज नहीं अगले भागों में।
कल वाले लेख में हम त्रिलोकचंद्र और सुनीता देवी के दान की बात कर रहे थे तो गुरुदेव ने उन्हें भामाशाह कह कर आदर दिया था। भामाशाह कौन थे ? शब्दों की सीमा के कारण कल वाले लेख में शामिल न कर सके, आज संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है। ____________________
भामाशाह बाल्यकाल से मेवाड़ (राजस्थान का दक्षिण -मध्य क्षेत्र ) के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। अपरिग्रह को जीवन का मूलमन्त्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में भामाशाह सदैव अग्रणी रहे। अपरिग्रह का अर्थ होता है -जीवन-निर्वाह के लिए न्यूनतम ज़रूरतों से ज़्यादा कुछ भी न लेना, संग्रह करना। कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे, तब भामाशाह ने अपनी सारी जमा पूंजी महाराणा को समर्पित कर दी। हल्दी घाटी के युद्ध में पराजित महाराणा प्रताप के लिए उन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति में इतना धन दान दिया था कि जिससे 25000 सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। धन अर्पित करने वाले किसी भी दानदाता को “दानवीर भामाशाह” कहकर उसका स्मरण-वंदन किया जाता है। उनकी दानशीलता के चर्चे उस दौर में बड़े उत्साह, प्रेरणा के साथ सुने-सुनाए जाते थे।
तो अब आती है तुलाधार दम्पति की कथा :
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परमपूज्य गुरुदेव अखंड ज्योति संस्थान मथुरा में परिजनों से बातचीत कर रहे थे। उन्होंने कहा कि गेरुआ वस्त्रधारियों से हमें कोई आशा नहीं लग रही है। हजारों लोगों में दो चार मनस्वी प्रतिभाएं मिल जाएं तो मिल जाए, वरना ज्यादातर दान और भिक्षा के सहारे ही गुज़र बसर करते हैं। उनका विचार था कि महाकुंभ का फिर भी महत्त्व है। ऐसे अवसरों पर विरली विभूतियां आती हैं। वे चुपचाप स्नान ध्यान कर चली जाती हैं और जिनके संस्कार होते हैं उनसे मिलती भी हैं। गुरुदेव 1954 के महाकुम्भ का बात कर रहे थे। उनका उदेश्य लौकिक स्तर का ज्यादा था । वह चाहते थे कि वहां जाने से आयोजन की तकनीक करीब से देखने को मिलेगी क्योंकि आगे उन्हें भी बड़े कार्यक्रम करने हैं।’ परमपूज्य गुरुदेव ने वहां जाने का निश्चय किया, माताजी ने सिर्फ ‘जी’ कहकर हामी भर दी । वे ऐसे अवसरों पर प्रश्न -उत्तर कम ही करती थीं। वहाँ बैठे कुछ साधकों ने भी चलने की तैयारी दिखाई। गुरुदेव ने कहा, “हम लोगों को वहां डेरा तो डालना नहीं है, और लोग भी चल सकते हैं। मेले के और पहलुओं का बारीकी से अध्ययन करने में आसानी हो सकती है। गुरुदेव जिन पहलुओं पर ज़ोर डाल रहे थे उनमें प्रयाग का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व था। वाराणसी ( बनारस )को भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहते हैं तो प्रयागराज (इलाहाबाद ) को तीर्थराज। काशी( वाराणसी ) में मृत्यु के अधिष्ठाता देव से साक्षात करने के लिए लोग जाते और वहाँ वास करते हैं। प्रयागराज में तप अनुष्ठान से अपनी आत्मचेतना को परिमार्जित करने के लिए आते हैं। प्रयागराज की ख्याति गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम के लिए तो है ही, वहाँ होने वाले कल्पवास और साधकों के जप तप के कारण भी है।संगम पर माघ के पूरे महीने निवास कर पुण्य फल प्राप्त करने की इस साधना को कल्पवास कहा जाता है। कहते हैं कि कल्पवास करने वाले को इच्छित फल प्राप्त होने के साथ जन्म जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति भी मिलती है। महाभारत के अनुसार सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने के फल बराबर पुण्य माघ मास में कल्पवास करने से ही प्राप्त हो जाता है। कल्प को ब्रह्मा जी का एक दिन की अवधि कहा गया है यह अवधि करोड़ों वर्ष होती है। पूरे प्रयाग क्षेत्र को एक विराट यज्ञशाला कहा गया है।
बारह वर्ष में एक बार जब सूर्य मकर राशि में होता है तो भारतीय धर्म की सभी शाखा उपशाखाओं के लोग यहाँ आते हैं। विभिन्न साधना परंपराओं और विद्याधाराओं के लिए किसी समय ‘संप्रदाय’ शब्द का प्रयोग किया जाता था लेकिन आजकल यह शब्द कट्टरता और संकीर्णता के अर्थ में बदनाम हो गया। तब यह शब्द अपने लिए मार्ग चुनने की स्वतंत्रता का प्रतीक होता था एवं बहुत ही सम्मानित था। कुंभ पर्व में सभी संप्रदायों के लोग इकट्ठे होते हैं। परस्पर विचार विनिमय और सत्संग का अच्छा अवसर होता है। कुंभ के समय दान दक्षिणा का महत्त्व भी है। ऐसे प्रसंग भी रहे हैं जब लोगों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। सम्राट हर्षवर्धन के संबंध में प्रसिद्ध रहा है कि वे कुंभ और अर्धकुंभ के समय सर्वस्व दान कर देते थेऔर उनके पास अपना कहने लायक कुछ भी नहीं रहता था । गंगा की धारा में खड़े होकर दिये गये दान के बाद वे दरिद्र हो जाते थे और पहनने के लिए वस्त्र भी मांग कर ही लेते थे।
परमपूज्य गुरुदेव का प्रयागराज में आगमन :
अलग अलग तिथियों में पांच लोग प्रयाग पहुँचे। उनके जिम्मे कुंभ के समय आने वाले अखाड़ों, मठों और साधु संतों का विवरण इकट्ठा करना था। ये लोग कुंभ आरंभ होने से करीब एक सप्ताह पहले पहुँच गये थे। रामाज्ञा प्रसाद, प्रो० त्रिलोकचंद्र, केदारनाथ सिंह, श्रीकांत गोयल और बद्रीप्रसाद पहाड़िया थे। पांचों अलग अलग ठहरे थे। गुरुदेव मकर संक्रांति के दिन पहुंचे। पहले से आये कार्यकर्ताओं को सिर्फ पता था कि वे मौनी अमावस्या के आसपास आयेंगे। गुरुदेव ने संक्रांति की यात्रा के बारे में कुछ नहीं बताया और स्टेशन से उतर कर सीधे मेला क्षेत्र में गये। दूर तक फैली हुई ठंडी रेत, गंगा के विराट पाट को छूकर आती हुई ठंडी हवाएं और साधु संतों से भरा हुआ मेला क्षेत्र। गुरुदेव के पास थोड़ा सा ही सामान था। झोलानुमा कपड़े के दो थैले। एक थैले में दो जोड़ी कपड़े और कुछ पुस्तकें। दूसरे में दरी, चादर और एक लोटा। सामान का वज़न कुल मिलाकर आठ दस सेर रहा होगा। दोनों झोले कंधे से उतार कर वे रेत पर बैठ गये।
दमयंती और तुलाधार का झगड़ा , तुम दोनों अपना सिर ही काट कर क्यों नहीं दे देते?”
सामने कुछ संन्यासी धारा की ओर जा रहे थेऔर कुछ लौट रहे थे। गुरुदेव इन आते जाते संन्यासियों को चुपचाप देख रहे थे। स्नान करके लौट रहे लोगों में उन्हें एक पति -पत्नी झगड़ा करते हुए दिखाई दिए। वे ज़ोर -ज़ोर से बोल रहे थे और एक दूसरे को भला बुरा कह रहे थे। पत्नी कह रही थी कि वह वेणी दान करके ही दम लेगी। पति इसके लिए मना कर रहा था। पति की अनुमति के बिना दान का कोई मतलब नही रह जाता, इसलिए वह ‘हां’ कहने के लिए दबाव डाल रही थी। इजाज़त न मिलने पर वह पति को छोड़ कर चले जाने की धमकी भी दे रही थी। परमपूज्य गुरुदेव को देखकर वे दोनों रुक गये लेकिन गुरुदेव ने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया और दूसरी ओर देखने लग पड़े।
वेणी दान प्रथा क्या है ?
संगम के तट पर करवाये जाने वाले इस मुंडन का एक रूप वेणी दान माना जाता है। अधिकतर महाराष्ट्र और दक्षिण भारतीय महिलाएं यह दान करती हैं. इस दान को करने से पहले महिलाएं पूर्ण रुप से श्रृंगार कर वेणीमाधव की पूजा करती हैं और फिर विधि के तहत संकल्प लेती हैं। इसके बाद महिलाएं अपने बालों का तीन अंगुल भाग काटकर संगम तट पर वेणीमाधव को समर्पित करती हैं।
पत्नी का नाम दमयंती और पति का नाम तुलाधार था। अर्धनग्न या गेरुआधारी साधुओं की इस भीड़ में उन्हें परमपूज्य गुरुदेव एक गृहस्थ दिखाई दिए। उन्हें उम्मीद हुई कि शायद कुछ रास्ता निकल जाये । गुरुदेव के न देखने के बावजूद वह पति-पत्नी उनके पास आ गये ओर अपना विवाद सुलझाने के लिए कहने लगे।गुरुदेव ने कहा , “आप मुझसे क्या मदद चाहते हैं।” तुलाधार ने कहा ‘आप हम दोनों का झगड़ा निपटा दें।’ दमयंती का भी यही कहना था। गुरुदेव ने कहा, “मैं जो भी समाधान बताऊंगा वह आप दोनों में किसी एक को अच्छा लगेगा तो दूसरे को अपने खिलाफ महसूस होगा। उस तरह एक और विवाद पैदा हो जाएगा।” तुलाधार और दमयंती ने कहा कि, ‘फैसला किसी के भी पक्ष में हो, आप जो भी कहेंगे उसे दोनों मानेंगे।’ तुलाधार दंपत्ति फैज़ाबाद (अयोध्या डिस्ट्रिक्ट ) के रहने वाले थे। उनके दो बच्चे थे, एक लड़का और एक लड़की। वहां व्यवसाय था, अच्छी आमदनी थी। त्रिवेणी स्नान करने आये थे और दमयंती ने रास्ते में ही वेणीदान का निश्चय कर लिया था। तिरुपति के अलावा इस तरह की प्रथा कहीं और नहीं है। पूजा पाठ के रूप में मुंडन को दूसरे तीर्थों में वर्जित किया गया है। हरिद्वार, गया आदि तीर्थों में तर्पण या श्राद्ध के समय इसकी छूट है, स्नान और आराधना के तौर पर मुंडन की साफ मनाही है लेकिन प्रयाग में इसे विशेष पुण्यफल देने वाला कहा गया है। त्रिवेणी संगम के पास निश्चित स्थान पर यह कृत्य संपन्न होता है। पुरुष पूरे सिर का मुंडन कराते हैं। महिलाएँ सिर्फ अपनी वेणी कटवाती हैं। विधवा स्त्रियां मुंडन कराती हैं। सुहागिन स्त्रियों के लिए वेणीदान की प्रथा विशेष कर्मकाण्ड वाली है। वे त्रिवेणी के तट पर संकल्प करती, शरीर पर हल्दी लगाती और त्रिवेणी स्नान के बाद बाहर निकलती है। बाहर आ जाकर पति से वेणीदान की अनुमति लेती हैं। पति उसकी वेणी के छोर पर मंगलद्रव्य बांधता है और कैंची से चोटी का छोटा सा भाग काटकर पत्नी के हाथ में रख देता है। पत्नी उस वेणी को मंगल द्रव्य सहित त्रिवेणी में प्रवाहित कर देती है, बाहर आ जाती है और बाद में स्नान करती है। दमयंती सुहागिन थी, इसलिए इसी तरह के वेणीदान की ज़िद कर रही थी। तुलाधार उसे मना कर रहा था। उसका कहना था कि वेणी कटवाने से चेहरा फीका पड़ जाएगा। दोनों ने अपना पक्ष रखा। उनकी दलीलें सुनकर परमपूज्य गुरुदेव को हंसी आ गई। दमयंती और तुलाधार उन्हें हंसते देखकर उदास से हो गए। उदास होने के बावजूद वे गुरुदेव को निहार रहे थे कि कोई फैसला तो अवश्य होगा। गुरुदेव ने उनके भावों को पढ़ा और कहा, “अभी तुम लोग कोई निर्णय मत लो। महीने बाद इस बारे में तय कर लेना। तब तक शायद दोनों में किसी बात को लेकर सहमति बन जाए।” दोनों को इस उत्तर की आशा नहीं थी। अभी तक उनका अभिमान ही था जो टकरा रहा था। उसे स्थगित कर दिया तो दोनों के चेहरे भी सौम्य मधुरता से खिल उठे। गुरुदेव ने कहा, “बाल कटाना, मुंडन कराना या वेणीदान करना अपने अहंकार को समर्पित करने जैसा ही है। तुम दोनों लोग मुंडन के लिए झगड़ने के बजाय अपना सिर ही काट कर क्यों नहीं दे देते?”
सुनकर दोनों की सासें खिंच गई। उन्हें लगा कि सामने कोई गृहस्थ व्यक्ति नहीं बल्कि गृहस्थ वेश धारण किये हुए साधु संन्यासी या फ़क़ीर बाबा है। गुरुदेव ने कहा, “आप लोगों ने मेरा फैसला मानने का वचन दिया था। इसलिए स्वयं को यज्ञ में दान करना ही पड़ेगा।”
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तो मित्रो आज का लेख यहीं पर समाप्त करने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।
जय गुरुदेव To be continued