27 सितम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद : परमपूज्य गुरुदेव द्वारा जीवनदानियों की चयन प्रक्रिया।
आज का ज्ञानप्रसाद उन लोगों को दिशानिर्देश देने में सहायक हो सकता है जो हमें कई बार पूछ चुके हैं- “ युगतीर्थ शांतिकुंज में स्थाई तौर पे जीवनदान देना चाहते हैं ,क्या प्रक्रिया है ?” जब हमने पूछा कि जीवन दान क्यों देना चाहते हैं और कब से गायत्री परिवार से जुड़े हैं तो उनके उत्तर में परिवार की दुर्भाग्यपूर्ण दयनीय परिस्थितियां ,बच्चों का कष्ट ,पति का कष्ट आदि ,आदि सुनाई गयीं और गायत्री परिवार का कुछ भी ज्ञान नहीं था। यह जीवनदान -बलिदान नहीं है , यह शांतिकुंज से सहायता के लिए ,दया के लिए मांग थी।इन परिजनों को शायद “दान” शब्द की परिभाषा का ज्ञान ही नहीं था। दान का अर्थ है देना ,शांतिकुंज में कुछ देने के लिए जाना है, न कि लेने के लिए ,ठीक उसी तरह जैसे ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मी समयदान ,ज्ञानदान ,श्रमदान ,विवेकदान आदि आदि में संलग्न हैं
अभी पिछले ही दो लेखों में हमने महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती जी के बारे में पढ़ा, उन्होंने उस समय सन्यास लिया जब वह अपने करियर के चरम पर थे , विश्व में बहुत ही कम लोग होंगें जो इस तरह का निर्णय ले पाते हैं। इसीलिए तो उन्हें महात्मा एवं सरस्वती के विशेषणों से सम्मानित किया गया है।1971 में जब परमपूज्य गुरुदेव ने तपोभूमि मथुरा छोड़ कर शांतिकुंज आने का निर्णय लिया था तो मथुरा वासियों ने कहा था -ऐसा संत आज के युग में कोई ही होता है जो अपना सर्वस्व त्याग एक सन्यासी की भांति जा रहा है। इस विदाई की वीडियो हमारे चैनल पर अपलोड हुई है ,आप देख सकते हैं। इसी कड़ी में आज के लेख में आप काशी हिन्दू विश्विद्यालय के प्रोफेसर त्रिलोकचंद्र जी की कथा का अमृतपान करेंगें जिन्होंने अपना सर्वस्व त्याग करते हुए गुरुदेव के चरणों में अपना जीवनदान दे दिया। आप यह भी देखेंगें कि त्रिलोकचंद्र जी और उनकी पत्नी को जीवनदान के लिए कितनी कठिन परीक्षा देनी पड़ी। जीवनदान करना कोई खेल नहीं है। शांतिकुंज में ,शक्तिपीठों में अनगनित जीवनदानी हैं ,कइयों को तो हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं ,बड़ी -बड़ी उच्च पदवियाँ त्याग कर आये है -किसके लिए ? कुछ देने के लिए।
आज के लेख में हमने इतिहास के उदाहरण देकर बल प्रदान करने का प्रयास किया है ,आशा है आपको हमारा प्रयास पसंद आएगा।
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तो चलें लेख की और :
तो आओ चलें लगभग 300 वर्ष पूर्व (1699) आंनदपुर साहिब (पंजाब ) के ऐतिहासिक स्मारकीय दीवान की ओर। सिख धर्म के दशम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह सुबह की भक्ति और कीर्तन के बाद अचानक हाथ में तलवार लेकर खड़े हो गए। श्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ के अनुसार गुरुजी ने कहा: “समस्त संगत मुझे बहुत ही प्यारी है, लेकिन क्या कोई ऐसा समर्पित सिख है जो मुझे यहां और अभी अपना सिर देगा? इस समय एक ऐसी आवश्यकता उत्पन्न हुई है जिसके लिए “सिर” चाहिए। सभा में एकदम सन्नाटा सा छा गया। लाहौर के एक दुकानदार दया राम ने उठकर अपना बलिदान दिया। वह गुरु के पीछे-पीछे पास के तंबू तक गया। गुरु गोबिंद सिंह अपनी तलवार से खून टपकाकर तंबू से अकेले निकले और दूसरा सिर मांगा। इस बार हस्तिनापुर (आज के मेरठ) के धर्म राम ने दया राम के नक्शेकदम पर चलते हुए खुद को गुरु के सामने पेश किया। गुरु गोबिंद सिंह ने तीन बार ऐसा आह्वान किया। तीन और साहसी सिखों ने व्यक्तिगत रूप से गुरु के आह्वान का उत्तर दिया। मोहकम चंडी, द्वारका, गुजरात के एक दर्जी, हिम्मत राय पुरी, उड़ीसा से एक जलवाहक और साहिब चंद, बीदर कर्नाटक से एक नाई, सभी एक के बाद एक खड़े हुए और अपना सिर चढ़ाने के लिए आगे बढ़े। इसके बाद की कथा तो हम सबको मालूम है कि कैसे इन पांचों के साथ श्री गुरु गोबिंद सिंह जी तम्बू से बाहिर आये और कैसे इनको सुशोभित किया। जैसा कि आधुनिक भाषा और सत्यापित लिखित इतिहास में समझा जाता है, ये पांच लोग खालसा के पहले सिख थे और पंज प्यारों (The five beloved ones ) के नाम से प्रसिद्ध हुए।
दूसरी घटना 1944 में बर्मा ( present day Myanmar) की है जिसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने एक क्रन्तिकारी नारा दिया था – “ तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा” स्वतंत्रता बलिदान मांग रही है।
इसी पृष्ठभूमि में हम परमपूज्य गुरुदेव द्वारा बलिदानियों की खोज के अंतर्गत आज का अविस्मरणीय लेख प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं ,कितनी सफलता मिलेगी ,केवल हमारे सहकर्मी ,हमारे पाठक ही बता सकते हैं।
ऐसा निवेदन हम इस लिए कर रहे हैं कि परमपूज्य गुरुदेव की बहुचर्चित रचना “चेतना की शिखर यात्रा 2” के चैप्टर सात के 15 पन्नों को हम कितने लेखों में कम्पलीट कर सकते हैं, इसका अनुमान लगाना बहुत ही कठिन है। पुस्तक में से लेख को पढ़ना एक बात है , लेख को पढ़कर समझना और फिर लिखना दूसरी बात है और उसी लेख को समय -समय के संस्मरणों के साथ ,घटनाओं के साथ जोड़ना ,और फिर जोड़ना भी इस प्रकार से कि पाठक को लगे कि साक्षात् परमपूज्य गुरुदेव के चरणों में बैठ कर अमृतपान का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। हर लेख लिखने में, हर वीडियो बनाने में , हर कमेंट लिखने में हमारी अंतरात्मा कुछ इसी प्रकार की धारणा के लिए प्रेरित होती है।
नरमेध अर्थात अहंकार की बलि :
नरमेध यज्ञ से कुछ समय पूर्व परमपूज्य गुरुदेव गायत्री तपोभूमि में कार्यकर्ताओं के साथ निर्माण कार्य में आये व्यय के बारे में चर्चा कर रहे थे। पैसे-पैसे का पूरा हिसाब प्रकाशित कर दिया गया था। अभी तो केवल कुछ काम चलाऊ व्यवस्था ही बन पायी थी। आगे निर्माण कार्य के लिए परिजन खुले मन से ,खुले हाथों से सहयोग देने को तत्पर थे। परमपूज्य गुरुदेव ने कहा कि अब केवल आर्थिक सहयोग ही पर्याप्त नहीं है। हमारे काम में एक और तरह की उदारता चाहिए। उपस्थित कार्यकर्ताओं के मन में उत्सुकता उठी। गुरुदेव ने कहा “ ऐसे लोग चाहिए जो अपना पूर्ण जीवन इस काम में लगा सकें। वह अपने घर परिवार के न रहें , संतानों की चिंता छोड़ें और अपने जीवन की ,अपनेआप की आहुति देने को तत्पर हों। गुरुदेव के यह वचन नरमेध यज्ञ की भूमिका थी। गुरुदेव कह रहे थे हम जल्द ही एक बहुत बड़ा महायज्ञ करेंगें ,महायज्ञ एक सौ आठ कुंड का होगा। हमारा मन है कि हर कुंड में एक व्यक्ति अपना जीवन बलिदान करे ,अपने जीवन की बलि चढ़ाए। एक कार्यकर्ता ने भोलेपन से प्रश्न किया- क्या यज्ञ में सही मानों में लोगों की बलि दी जाएगी ? ,उनके सिर काटे जायेंगे और रक्त मांस का होम (यज्ञ ) होगा? यही प्रश्न और लोगों के मन में भी उठा लेकिन पूछ नहीं पाए। गुरुदेव ने कहा “ हम लोग कोई तांत्रिक -मांत्रिक थोड़े हैं जो लोगों के सिर काटकर चढाने लगें। शास्त्रों में जहाँ नरमेध का उल्लेख आता है उसमें सिर काटने का अर्थ अपनें अहंकार की बलि देना है, अपनेआप को , अपने जीवन को पूर्ण रूप से किसी कार्य के लिए समर्पित कर देना है। गुरुदेव अपने कार्यकर्ताओं से जीवन दान देने को कह रहे थे।
प्रोफेसर त्रिलोकचंद्र जी का बलिदान :
इसी चर्चा में वाराणसी से आये एक परिजन त्रिलोक चंद्र भी उपस्थित थे। गुरुदेव की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी उन्होंने तुरंत कहा – एक बलि हमारी भी स्वीकार कीजिये गुरुदेव। त्रिलोकचंद्र अपने नाम के आगे कुछ भी नहीं लिखते थे लेकिन तीन वर्ष पहले काशी हिन्दू विश्वविधालय (Banaras Hindu University ) में फिलोसॉफी पढ़ाते थे। काम और पद के अनुसार उनके नाम के आगे प्रोफेसर लिखा जाना चाहिए लेकिन रिटायर होते ही उन्होंने प्रोफेसर लिखना बंद कर दिया। प्राण प्रतिष्ठा समरोह में त्रिलोकचंद्र जी पहली बार मथुरा आये थे , आते ही उन्होंने यह निर्णय ले लिया था कि अपनी विद्या के ज्ञान को पेट पालन में ही नहीं लगाना, कुछ लोक सेवा, धर्मकर्म में भी लगाना है। समरोह के बाद अब तक 3 -4 और अवसरों पर भी मथुरा आ चुके थे। साथ में उनकी पत्नी सुशीला देवी भी थीं, दोनों ने अपने आपको नरमेध यज्ञ में नरपशु के रूप में प्रस्तुत किया। उनके उत्साह को देखकर गुरुदेव ने कहा , “इतने अधीर मत होओ ,ऐसे निर्णय जोश में और जल्दबाज़ी में नहीं लिए जाते ,होश के साथ और सोच समझ कर लेने चाहिए।” त्रिलोकचंद्र जी ने कहा -हम लोग तो जब प्राण प्रतिष्ठा समरोह में आये थे तभी संकल्प कर चुके थे कि अपनेआप को माँ गायत्री के हवाले कर देना है और अब वह समय आ गया है। गुरुदेव ने कहा ,” आपने निर्णय कर लिया , वह तो अच्छी बात है लेकिन अपने संकल्प के लिए उपयुक्त समय तो आने दीजिये। अगले दिनों हम यहाँ एक विशाल गायत्री यज्ञ करेंगें , उसमें 108 कुंड होंगें ,महायज्ञ के समय ही आत्माहुति य नरमेध का अनुष्ठान भी होगा। तब तक आप अपने बलिदान का अभ्यास करें। इस संवाद के कुछ माह बाद त्रिलोकचंद्र जी की पत्नी सुशीला देवी ने अपने सोने के आभूषण गायत्री तपोभूमि देने का निश्चय किया। पति ने भी इस निश्चय का स्वागत किया और दोनों ने मथुरा तपोभूमि की राह पकड़ी। इन आभूषणों में सुहाग चिन्न के रूप में पहनी जाने वाली चूड़िआं भी शामिल थीं। गुरुदेव ने कहा ,”आप यह चूड़ियां मत दीजिये , यह आपके सुहाग की निशानी हैं” यह सुनकर सुशीला देवी की आँखें भर आयीं और टप -टप आंसू बहने लग पड़े। वह बोलीं – लगता है हमारी भावनाओं में ही कुछ खोट है , पिछली बार हम दोनों ने नरमेध के लिए प्रस्तुत किया था तो आपने मना कर दिया था कि अभी अभ्यास करो ,अब अर्पण करने को मन हुआ है तो आप बहाने से मना कर रहे हैं। वह रोए जा रही थीं ,गुरुदेव ने कहा ,”हमें आपकी त्यागवृति पर कोई सन्देह नहीं है ,रूपए ,पैसे हों तो हम निर्माण कार्य में लगा सकते हैं, आभूषणों का हम क्या करेंगें और वह भी आपके सुहाग चिन्नों का।” सुशीला देवी ने कहा- इन आभूषणों को बेचकर पैसे आपके चरणों में रखते तो ठीक था ,आप स्वीकार कर लेते। गुरुदेव ने कहा ,” यह बात नहीं है , तुम अपने प्रिय आभूषण क्यों दे रही हो ,क्या सन्यासी बनना है , क्या वैरागी होना है।
पास बैठे त्रिलोकचंद्र जी ने गुरुदेव से कहा – मैं बताता हूँ इसका कारण ,गुरुदेव। 4 -5 पूर्व इन्होने सपना देखा कि आप किसी घने वन में गायत्री मंदिर बनवा रहे हैं और साधनों की कमी के कारण मंदिर का निर्माण कार्य रुक सा गया है। तभी इनके पिताश्री प्रकट होते हैं, आदेश देते हैं कि तुम्हारे पास जो कुछ भी है गुरुकार्य में लगा दो। उसी दिन से यह संकल्प लिए बैठी हैं कि सब कुछ मंदिर को समर्पण करना है। गुरुदेव ने सुशीला देवी और उनके पति की और देखा और कहा ,”तुम्हारे पिताजी ने तो तुम्हे भामाशाह का मार्ग दिखाया है , तू और जो कुछ मर्ज़ी दे दो लेकिन यह चूड़िआं अपने पास रख लो। सुशीला देवी को यह यह निर्देश रास नहीं आया, कुछ देर असंतोष में रहीं और फिर तमक कर बोलीं -बार -बार परीक्षा क्यों लेते हैं ,गुरुदेव ? इतना कहते ही उनका गुस्सा रुलाई में फूट पड़ा। सुशीला देवी को चुप कराते गुरुदेव बोले ,” अच्छा चुप कर जाओ ,तुम्हारा दान तो अमूल्य है लेकिन यह चूड़िआं मंदिर के निर्माण में नहीं लगाएंगें लेकिन यहाँ की “अधिष्ठात्री शक्ति वेदमाता के श्रृंगार के लिए रखेंगें। विशिष्ट अवसरों पर जब भी माँ का श्रृंगार होगा तो वह इन्हें पहनेंगीं।”
तो मित्रो आज का लेख यहीं पर समाप्त करने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें। बलिदान की एक और कथा कल के लिए।
जय गुरुदेव