24 सितम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद : गायत्री साधना के चमत्कार महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती जी के शब्दों में।
आज के लेख में कुछ repetitions मिल सकती है जिसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।
आज का ज्ञानप्रसाद महान गायत्री उपासक महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती जी के बारे में है। कल वीडियो अपलोड करते समय हमने निर्णय ले लिया था कि ऐसे व्यक्तित्व को ऑनलाइन ज्ञानरथ में एक महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। आज का लेख अपनेआप में incomplete है , प्रयास करेंगें कि कल इसी को आगे बढ़ाएं। इस लेख का आधार अखंड ज्योति 2006 का सितम्बर -अक्टूबर का इंग्लिश एडिशन है।
हम अपने सहकर्मियों -सविंदर जी , पिंकी बिटिया ,धीरप बेटा ,प्रेरणा बिटिया, सुमन लता बहिन जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने पूरी निष्ठां और श्रद्धा के साथ Vayam और कमल किशोर भाई साहिब की प्रश्नोत्तरी का कार्यभार अपने ऊपर लेकर यथाशक्ति ऑनलाइन ज्ञानरथ के मानीवय मूल्यों की गरिमा का सम्मान किया। आप सब बधाई के पात्र हैं। भारतीय समयानुसार लगभग रात्रि 12 बजे सविंदर भाई साहिब का अपडेट आया जिससे हमें विश्वास हो गया कि Vayam और कमल भाई साहिब हमारे साथ बहुत ही प्रसन्न होंगें। इस मार्गदर्शन में हम दोनों भाइयों का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ के मानवीय मूल्यों में से सबसे महत्वपूर्ण पार्ट परस्पर स्नेह-आदर -सम्मान का है। हम सब एक गिलहरी की भूमिका निभाते हुए निस्वार्थ ज्ञान का प्रचार -प्रसार कर रहे हैं ,चाहे वह ज्ञान कहीं से भी मिल जाये। ______________
महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती का जन्म 15 अक्टूबर 1882 को पंजाब (अब पाकिस्तान) के जलालपुर जट्टा गांव में हुआ था। आर्यसमाज से प्रभावित होकर उन्होंने युवावस्था में ही वैदिक धर्म के प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प लिया। लाहौर में महात्मा हंसराज जी के साथ “Arya Gazette weekly” के संपादकीय विभाग में प्रवेश किया और पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी शुरुआत की। उन्हें undivided पंजाब में पत्रकारिता के जनक कहना कोई अतिश्योक्ति होगी। राष्ट्रीय जागरूकता और वैदिक धर्म को बढ़ावा देने के उद्देश्य से, उन्होंने 13 अप्रैल, 1923 को वैशाखी उत्सव में दैनिक उर्दू ‘मिलाप’ का प्रकाशन शुरू किया। उस समय उन्हें Khushal Chand Khursand के नाम से जाना जाता था।
1921 में जब मालाबार में मोपला मुसलमानों ने हिंदुओं पर अमानवीय अत्याचार किया, तो वे आर्य युवाओं के साथ मालाबार गए और अत्याचारियों के खिलाफ चेतना जगाई। 1939 में जब हैदराबाद के निज़ाम ने हिंदुओं पर हमला किया, तो वह सत्याग्रही जत्थे के साथ हैदराबाद पहुंचे और निज़ाम की जेल में सात महीने तक लड़ाई लड़ी। सन् 1949 में वे सन्यास अपनाकर ‘महात्मा-आनन्द स्वामी सरस्वती’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके बारे में एक बहुत ही वर्णन योग्य तथ्य है कि उन्होंने उस समय सन्यास लिया जब वह सफलता के चरम पर थे। विश्व में बहुत ही कम लोग मिलेंगें जो इस तरह का निर्णय लेने का साहस रखते हों। केवल भारत में ही नहीं , विदेशों में भी जाकर महात्मा जी के द्वारा वैदिक धर्म के प्रचार का योगदान हम कैसे भूल सकते हैं। स्वामी जी के विशाल व्यक्तित्व पर कुछ कहना य लिखना हम जैसे अल्पज्ञान, अल्पबुद्धि जैसे मानव के लिए असंभव सा ही प्रतीत होता है। लेकिन हमारी रिसर्च के दौरान हमें उन्ही की एक पुस्तक “यह धन किसका है ?” का चौथा एडिशन मिला ,258 पन्नों की इस पुस्तक के कुछ पन्ने पढ़ने का प्रयास किया , ऐसा महसूस हुआ कोई ख़ज़ाना हाथ लग गया हो। ऐसा मन कर रहा था कि ज्ञानप्रसाद का कार्य स्थगित करके इसी पुस्तक में रम जाएँ लेकिन अपने परिजनों के प्रति,अपने सहकर्मियों के प्रति हमारे कुछ उत्तरदाईत्व हैं जिनकी पालना करना हमारा परम् सौभाग्य एवं धर्म है। तो हमारे पास एक हो विकल्प था : इस अमूल्य पुस्तक को अपनी लाइब्रेरी में save कर दिया जाये और ज्ञानप्रसाद के बाद इसका अध्यन किया जाये। ऐसी होती है महापुरषों की, सन्यासियों की चुंबकीय शक्ति, हम स्वामी जी के श्रीचरणों अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए नतमस्तक हैं।
महात्मा आनंद स्वामी अपने समय के सबसे महान गायत्री साधकों में से थे। उन्होंने समय-समय पर आर्य समाज में कई उच्च पदों पर कार्य किया और अपनी पत्रकारिता की उपलब्धियों के लिए भी जाने जाते थे। 92 वर्ष की आयु तक देश के भीतर और बाहर गायत्री माता के संदेश का प्रसार किया। गायत्री की उनकी व्यक्तिगत साधना उच्चतम कोटि की थी और उनके व्यक्तित्व के सभी आयामों – उनके शब्दों, विचारों और कार्यों में समान रूप से परिलक्षित होती थी।
महात्मा आनंद स्वामी ने गायत्री महामंत्र, आनंद गायत्री कथा और आध्यात्मिकता पर कई अन्य पुस्तकें लिखीं। इनमें से आनंद गायत्री कथा में गायत्री साधना के कई चमत्कारों का वर्णन है जो उन्होंने अपने जीवन के दौरान व्यक्तिगत रूप से अनुभव किए थे। इनमें से कुछ अनुभव नीचे उन्हीं के शब्दों में दिए जा रहे हैं।
महात्मा जी के ही शब्दों में :गायत्री साधना के चमत्कार
“मेरे बचपन में, जब मैं छठी या सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था, मैं एक बहुत ही सुस्त छात्र था। शिक्षक नियमित रूप से कक्षा के शुरु में ही मुझे बेंच पर खड़ा कर देते थे और ऐसा हर अगली कक्षा में घंटों तक जारी रहता । इसके साथ ही घर लौटने पर पिताजी भी मुझे पीटते थे और कहते थे – “तुम मूर्ख हो, कुछ भी करने में असमर्थ” मैं रोता और जवाब देता – “पिताजी! मैं तो ध्यान से पढ़ता हूं लेकिन क्या करूँ जो कुछ भी पढ़ता हूं याद नहीं रख सकता’। लेकिन पिताजी मुझ पर विश्वास नहीं करते । दैनिक पिटाई और अपमान की इस दिनचर्या ने मुझे इतना उदास कर दिया कि उस छोटी सी उम्र में ही आत्महत्या करने के बारे में गंभीरता से सोचने लगा। इस अपमान भरे जीवन से तो मृत्यु ही बेहतर होगी। एक दिन, कक्षाएं समाप्त होने के बाद, मैं अपने गाँव के पास ही एक नदी के पास गया। बारिश का मौसम था और नदी पूरे यौवन पर थी। मैं नदी के पुल की ओर बढ़ा और नीचे नदी में छलांग लगा दी। मैं मरने के दृढ़ संकल्प से आया था पर भगवान ने मेरे लिए कोई और ही योजना बनाई थी। शायद उसके पास मेरे लिए कोई और योजना थी। नदी की तेज धारा मुझे दो मील नीचे की ओर ले गईं और मुझे बेहोशी की हालत में किनारे पर फेंक गयी । वहां के स्थानीय लोगों ने मुझे पहचान लिया और मुझे घर ले गए।
इसी तरह की एक और घटना है कि :
“एक दिन आर्य समाज के स्वामी नित्यानंद हमारे गांव, जलालपुर का दौरा करने आए और मेरे परिवार के बगीचे में डेरा डाला। मेरे पिताजी ने मुझे प्रतिदिन उन्हें भोजन कराने का कार्य सौंपा। एक दिन, अपने पिता के निर्देश पर मैं अपनी भैंस को गांव के तालाब में ले गया। भैंस धीरे-धीरे गहरे पानी में आगे बढ़ी। मैं एक छोटा सा बच्चा था। मैंने उस पर चिल्लाना और कंकड़ फेंकना शुरू कर दिया। आखिरकार भैंस तालाब के दूसरी तरफ जा निकली और जमींदार के खेतों में चली गई। जब तक मैं कुछ कर सकता भैंस तालाब को पार कर चुकी थी और उसने खड़ी फसलों का एक अच्छा हिस्सा बर्बाद कर दिया था। जमींदार दौड़ता हुआ आया और मुझे बुरी तरह से पीटा। मेरी हड्डियों में दर्द होने लगा। उस दिन पहले स्कूल में भी पिटाई हुई थी। घर आने पर पिताजी मेरे इतनी देर से आने पर नाराज हुए और उन्होंने मुझे भी पीटा। मैं भगवान से प्रार्थना करने लगा कि मुझे क्या करना चाहिए। पिताजी ने फिर मुझे बाग में स्वामी जी के पास भोजन लेकर का आदेश दिया। मैंने वैसा ही किया। स्वामी जी ने खाना शुरू किया और मैं बगल में खड़ा उदास। स्वामी जी खाना खाते कभी-कभी मेरे चेहरे की तरफ देख लेते। जब खाना खत्म कर लिया तो पूछने लगे – ‘खुशाल चंद! क्या बात है? आज तुम इतने उदास क्यों हो? इन करुणाभरे शब्दों पर मैं सिसकने लगा। स्वामी जी ने मुझे अपनी गोद में बिठा लिया और पूछा, ‘क्या हुआ? तुम इतने दुखी क्यों हो?’ मैंने उसे अपनी सारी व्यथा सुनाई। मैंने उनसे कहा कि मैं मानसिक रूप से सुस्त हूँ और पूरी कोशिश करने के बाद भी मुझे कोई सबक याद नहीं रहता। स्वामी ने मुझे शांत किया। उन्होंने एक पर्ची पर गायत्री मंत्र लिखा, मुझे दिया और कहा:
“ यह है तुम्हारी बीमारी की दवा है। तुम सुबह बहुत ही जल्दी उठा करो, लगभग 2- 3 बजे, जब परिवार के अन्य सदस्य गहरी नींद में हों, तो स्नान करके इस मंत्र का जाप करो।” उन्होंने उस समय मुझे मंत्र के कुछ अर्थ भी बताए, जिन्हें मैं इतने लंबे समय के बाद भी नहीं भूल पाया। तब से मैं जल्दी उठने लगा। लेकिन जप के दौरान मुझे नींद आ जाती थी। इस समस्या को हल करने के लिए मैं अपनी चोटी को एक लंबी रस्सी से छत पर लगे लोहे के हुक से बांध देता था।
5 – 6 महीने के बाद जप का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगा । पहले मेरे उत्तर हमेशा गलत होते थे लेकिन अब मैं परीक्षा उत्तीर्ण करने लगा। मेरे शिक्षकों ने सोचा कि मैं किसी की नकल कर रहा हूं। मैंने उनसे कहा कि ऐसा नहीं है, कि मैं केवल नियमित रूप से गायत्री मंत्र का जाप कर रहा हूं। उन्हें विश्वास नहीं हुआ लेकिन फिर भी मैंने अच्छे अंक हासिल करना शुरू कर दिया। मैंने एक कविता भी लिखी और मेरे शिक्षक से एक पौंड का इनाम मिला। मैंने अपने पिता जी को कविता दिखाई, जिन्होंने मुझे एक और पाउंड दिया।
“इसके कुछ महीने बाद एक और महत्वपूर्ण घटना भी घटी। जलालपुर जट्टों के आर्य समाज का वार्षिक उत्सव आयोजित किया गया था। महात्मा हंसराज जी ने एक व्याख्यान दिया था। मैंने इस व्याख्यान की एक रिपोर्ट तैयार की और उन्हें दिखाया। उन्होंने पूछा, ‘ तुम किसके बेटे हो?’ मैंने उत्तर दिया, ‘आर्य समाज के सचिव लाला गणेशदास जी मेरे पिता हैं’। महात्मा जी ने मेरे पिता से मेरे द्वारा किए गए काम के बारे में पूछा। मेरे पिता ने कहा, ‘वह पढ़ाई में गरीब हैं इसलिए मैंने इसके लिए मोजे बुनने की इकाई स्थापित की है। ‘ महात्मा जी ने कहा, “मुंशीजी, यह काम इस लड़के के लिए उपयुक्त नहीं है। आप इसे मुझे सौंप दो। मैं इसे उस काम में लगाऊंगा जिसके लिए वह उपयुक्त है।” पिताजी ने उत्तर दिया, ‘मैं कैसे मना कर सकता हूं? यह तुम्हारा ही बच्चा है। जैसा तुम ठीक समझो वैसा करो।
कुछ समय बाद महात्मा जी ने मुझे लाहौर बुलाया। वहाँ मैंने तीस रुपये के मासिक वेतन पर Arya Gazette में काम करना शुरू किया। समय के साथ मैं इसका संपादक बन गया।
उन दिनों मालाबार क्षेत्र में मोपला विद्रोह हुआ। हजारों हिंदुओं को मार दिया गया या जबरन इस्लाम में परिवर्तित कर दिया गया। कुछ किया जाना था। लेकिन उस समय की प्रेस पूरी तरह से चुप्पी की मुद्रा अपना रही थी। कोई भी हिंदुओं पर इस अत्याचार को छापना और प्रकाश में लाना नहीं चाहता था। बहुत विचार-विमर्श के बाद हमने हिंदुओं को संगठित करने की दृष्टि से मिलाप पत्रिका शुरू की। इसका उद्देश्य सही व्यवहार और आचरण के आधार पर हिंदू-मुस्लिम एकता की शुरुआत करना और सुरक्षा की भावना पैदा करना था। गायत्री माँ की कृपा से मिलाप का प्रकाशन आरंभिक अड़चनों के बावजूद सफल रहा। गायत्री माँ की कृपा से मुझे गाड़ी , बंगला, बच्चे और हर प्रकार की संपत्ति उपलब्ध हो गई।
जय गुरुदेव
हम कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें और आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।