वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आध्यात्मिक तरंगों का क्षेत्र है हिमालय 

20 सितम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद -आध्यात्मिक तरंगों का क्षेत्र है हिमालय 

आज का ज्ञानप्रसाद अपने सहकर्मियों को दिए वचन को पूरा कर रहा है। आज हम गुरुदेव और दादा गुरु के साथ हिमालय के सिद्ध  क्षेत्र का आँखों देखा  हाल ( live show ) वर्णन करेंगें। ऐसा लाइव शो जिसे  केवल दिव्य आत्माएँ  ही देख सकती हैं। चेतना की शिखर यात्रा 2 के अनुसार  जिस क्षेत्र में गुरुदेव जा रहे थे वहां आध्यात्मिक तरंगों (spiritual vibrations)  का वर्णन भी मिलता है। दादा गुरु द्वारा भेजा गया प्रतिनिधि जिसे गुरुदेव वीरभद्र कह कर सम्बोधन कर रहे थे असल में उसका नाम कालीपद था। पौराणिक कथाओं के अनुसार वीरभद्र भगवान्  शिव के बहादुर गण थे जिन्होंने शिवजी के कहने पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया था।     

गुरुदेव और कालीपद  साथ -साथ इस बर्फानी प्रदेश में चल रहे थे। गुरुदेव के मन में प्रश्न आया कि पिछली बार तो दादा गुरु नंदनवन में मिल गए थे परन्तु इस बार तो इन घुमावदार पहाड़ों की यात्रा करवा रहे हैं। कालीपद  ने गुरुदेव के मन को भांप लिया और कहा,

“ इस प्रदेश का परिचय और यहाँ की  ऋषि सत्ताओं का परिचय करवाने के लिए ही मुझे नंदनवन से यहाँ तक भेजा है। कालीपद  चुपचाप साथ चल रहे थे । कुछ देर बाद उन्होंने संकेत कर के गुरुदेव को रुकने को कहा और स्वच्छ शिला देख कर उसके ऊपर बैठ जाने को कहा और बिना कुछ कहे दूसरी दिशा में चले गए। कुछ ही मिंट में वापस आये और हाथ में कुछ फल थे। गुरुदेव को देते हुए कहा -”ये फल खा लो बहुत देर से कुछ खाया नहीं है ,भूख लगी होगी। उनके याद दिलाते ही गुरुदेव को भूख का अनुभव हुआ। स्मरण हुआ कि कलाप ग्राम पहुँचने से पहले कुछ कंदमूल लिए थे। प्रतिनिधि ने सेब जैसा यह फल देने के बाद कहा -मैं अब विदा लूँगा, दादा गुरु यहाँ से आगे का मार्ग दिखाएंगें। यह सुनकर मन में एकदम उल्लास फूटा ,उत्सुकता भरा रोमांच हुआ। 30 वर्ष पुराना अनुभव एकदम जाग्रत हो उठा। उस समय प्रतिनिधि ने कहा था कहीं दूर मत जाना। अगर जाना भी पड़े तो केवल एक योजन तक ही जाना। एक योजन 12 से 15 किलोमीटर के लगभग होता है। 

 दादा गुरु  की पुकार  :

गुरुदेव पिछली यात्रा की स्मृतियों में डूबे हुए थे कि दादा गुरु की पुकार सुनाई दी ,नाम लेकर पुकारा था, साथ ही उठ कर चलने को भी कहा। गुरुदेव मार्गदर्शक सत्ता को देखकर उठ खड़े हुए और पीछे- पीछे चल दिए। गुरुदेव ने सावधान किया कि यहाँ से जो भी शक्तियां अर्जित करेंगें उन्हें अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कभी मत प्रयोग करना। यह केवल उनलोगों के कर्मबंध काटने के लिए होंगीं जिनकी चेतना में दैवी उभार आया है और जो आने वाले दिनों में युग प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इन शक्तियों का उपयोग उनके लिए उन्हें बताये बिना करना है।

 दादा गुरु के साथ चलते हुए गुरुदेव को अपना शरीर बिल्कुल निरभार ( weightless ) ,एकदम रुई की तरह लग रहा था।दादा गुरु  का शरीर तो बिल्कुल एक प्रकाश की लौ के रूप जैसे दिखाई दे रही था । गुरुदेव का शरीर भी एक लौ की तरह था पर इसको स्पर्श किया जा सकता था। गुरुदेव ने अपने शरीर को स्पर्श करके चैक भी किया। अगर शरीर हल्का हो तो गुर्त्वाकर्षण ( gravity ) का प्रभाव उतना नहीं पड़ता और अपनी इच्छा से किसी भी वेग से यात्रा की जा सकती है। यही कारण है कि चाँद की सतह पर अंतरिक्ष यात्री उड़ते हुए दिखाई देते हैं। इसी कारण यात्रा बहुत ही सहज हो रही थी। आधे घण्टे में ही 100 मील से अधिक क्षेत्र की यात्रा हो गयी।  इस बार तो कुछ- कुछ सिद्ध योगी भी साधना करते हुए दिखे। गुरुदेव के मन में विचार आया कि यह सिद्ध योगी इस एकांत ,निर्जन स्थान पर साधना क्यों कर रहे हैं, संसार में भी तो जाकर साधना कर सकते हैं ,वहां प्रलोभन भी होगा और परीक्षा भी होगी। दादा गुरु ने एक दम गुरुदेव की विचार तरंग पकड़ ली परन्तु  कहा कुछ नहीं ,केवल एक बार दृष्टि भर डाली और गुरुदेव को उत्तर मिल गया। 

उत्तर आया -“इन सिद्ध योगियों को अपने लिए साधना की आवश्यकता नहीं है। वे स्वयं तो मोक्ष के द्वार पर पहुँच चुके हैं परन्तु जगत कल्याण के लिए यहाँ पर तप-अनुष्ठान कर रहे हैं “

हमारे पाठकों को गुरुदेव और दादा गुरुदेव के बीच वायरलेस कनेक्शन का आभास हो गया होगा ,यह आत्मा का संबंध है , अगर हम भी इस तरह का सम्बन्ध बनाना चाहते हैं तो हमें भी गुरुदेव जैसा समर्पण दिखाना पड़ेगा। अगर समर्पण है तो गुरु अपने शिष्य को लेने ठीक उसी प्रकार स्वयं भागते हुए आते है जैसे दादा गुरु 1926 की वसंत को आंवलखेड़ा की उस कोठरी में आए थे।

गुरुदेव ने दादा गुरु को आदरपूर्वक निहारा। दादा गुरु ने गुरुदेव को नीचे बैठने को कहा। गुरुदेव बैठ गए ,दादा गुरु भी सामने बैठ गए। गुरुदेव ने इधर -उधर देखा , कोई उचस्थान न दिखाई दिया ,उन्हें लग रहा था कि दादा गुरु को उन से ऊँचे स्थान पर होना चाहिए। उन्होंने अपने कंधे से अंगवस्त्र उतारा और बिछाते हुए दादा गुरु को उस पर बैठ जाने को कहा। शिष्य का मन रखने के लिए दादा गुरु उस आसन पर बैठ गए लेकिन कहने लगे :

 ” गुरु और शिष्य में कोई अंतर नहीं है ,केवल कक्षा का ही अंतर होता है। गुरु जिस वृक्ष का पका हुआ फल होता है शिष्य उसी वृक्ष की कच्ची और हरी टहनी है। दोनों एक ही सत्ता के समतुल्य अंग हैं। “

 यह उद्भोधन सुनकर गुरुदेव ने कहा ,

 ” यह वक्तव्य आपकी ओर से आया है ,आप आराध्य हैं आप कह सकते हैं परन्तु मैं तो शिष्य के अधिकार से ही बोल सकता हूँ। मुझे अपने श्रीचरणों में बना रहने दीजिये “

दादा गुरु ने सामने पूर्व दिशा की ओर संकेत किया और गुरुदेव ने जब उस ओर देखा तो सामने घाटी में कई तापस जप ,तप और ध्यान में लगे हुए थे। क्षेत्र में चौबीस यज्ञ कुंड बने थे। उनमें यज्ञधूम्र उठ रहा था, अग्नि शिखाएं उठ रही थीं जैसे कि अभी कुछ समय पूर्व ही साधक अग्निहोत्र करके उठे हों। अग्नि शिखाएं स्वर्मिण आभा लिए हुए थीं। उन पर नील आभा छाई हुई थी। कुछ कुंडों पर अभी भी आहुतियां दी जा रहीं थीं। जप तप करते जो सन्यासी दिखाई दिए उनमें कुछ नए थे। शरीर की अवस्था से उनकी आयु 30 से 80 वर्ष के बीच लगती थी। कुछ सन्यासियों को गुरुदेव पहचानने का प्रयास करने लगे। एक को तो पहचान भी लिया। गुरुदेव ने स्मरण किया ,15 वर्ष पूर्व रामेश्वरम में गायत्री महायज्ञ में गुरुदेव का समर्थन करने आए थे। स्थानीय लोगों का विरोध शांत करने गुरुदेव के पक्ष में लोगों को संगठित करने आए थे। उन्ही के कारण स्थानीय पुरातन -पंथी पंडितों को बाहुबल से हस्तक्षेप करने का साहस नहीं हुआ था। उसने एक दृष्टि गुरुदेव की तरफ देखा और पहचान लिया और अगले ही पल अग्निहोत्र कर्म में लग गया। दादा गुरु ने गुरुदेव की ओर देखा और कहने लगे :

 “हाँ हाँ ,यह वही साधक है जिसने रामेश्वरम में तुम्हारी सहायता की थी। तुम अभी और भी संतों को पहचानोगे जो तुम्हारी सहायता करने आयेंगें “

यज्ञ कर रहे कुछ ऋषियों को सहस्र कुंडीय गायत्री महायज्ञ में देखा था। पूर्व दिशा में सूर्य भगवन अपनी स्वर्मिण आभा प्रकट करने लगे और सविता देव बर्फ पर अपनी किरणे बिखेरते हुए क्षितिज पर चढ़ आए। गुरुदेव ने उठकर सविता देव को प्रणाम किया ,गुरुवंदना करते हुए खड़े हो गए। दादा गुरु ने गुरुदेव को अपने पास आकर बैठने का संकेत किया। गुरुदेव बैठ गए तो दादा गुरु ने अपना दाहिना हाथ उठाया और उसका अंगूठा धीरे से भँवों (eyebrows ) के मध्य लगाया और उँगलियाँ बालों में फेरीं। इतना करते ही गुरुदेव की ऑंखें मूंदने लगीं और भीतर कोई और ही जगत दिखाई देने लगा। ऐसा लगा की कोई आकृति उभर रही है जो धीरे धीरे विस्तृत होती जा रही थी और फिर विराट रूप धारण कर लिया। यह आकृति बहुत डरावनी थी लेकिन बहुत ही प्रिय लग रही थी। अगर इस आकृति की तुलना हम अपने आस -पास के जगत के साथ करें तो इसमें सब कुछ दिखाई दे रहा था। लगता था उस दृश्य में अग्नि ,सूर्य ,पृथ्वी ,गृह नक्षत्र ,अपने आप दृष्टिगोचर हो रहे हैं। ऐसा दृश्य था जैसे कि तीनो लोक इसमें समा गए हों। इस रूप के बाहिर अनेकों ऋषि ,योगी ,देवता ,दानव ,विद्वान और योद्धा हाथ जोड़ कर स्तुति करते खड़े थे। उस विराट स्वरूप को देखते हुए बाहिर से कुछ रूप थर -थर कांपते अंदर जा रहे हैं और कुछ उड़ते हुए दिख रहे हैं। उस स्वरुप का हमारे आस पास के ब्रह्माण्ड की तरह विस्तार हो रहा है ,कहीं कोई अवकाश था ही नहीं। ठीक ब्रह्माण्ड की भांति इस में मधुर ,दिव्य ,आकर्षक ,विकराल, भयावह ,भीषण और अलैकिक सब कुछ था। फिर लगा कि सब कुछ सिमट रहा है , सिकुड़ते -सिकुड़ते सब लुप्त हो गया है ,तिरोहित ( अदृश्य ) हो गया है। तिरोहित होते ही गुरुदेव ने देखा कि दादा गुरु खड़े हैं ,उन्होंने कपाल और शीश से अपना हाथ हटा लिया है। गुरुदेव के पास कोई प्रश्न ,कोई जिज्ञासा नहीं थी ,वह पूर्ण रूप से तृप्त और शांत दिखाई दे रहे थे।

हम यहाँ थोड़ा रुक कर अपने पाठकों की इस विराट स्वरुप की अनुभूति को और परिपक्व करने के लिए बी आर चोपड़ा जी के बहुचर्चित टीवी सीरियल महाभारत में चित्रित किये गए विराट स्वरुप के साथ जोड़ना चाहते हैं। भगवान कृष्ण ने जब अर्जुन को रण भूमि में विराट रूप के दर्शन करवाए थे तो कुछ इस तरह की ही पिक्चर बनी थी। अर्जुन को भी भगवान ने दिव्य चक्षु ( नेत्र ) प्रदान किये थे तभी तो वह दिव्य स्वरुप का आनंद उठा सका था और उसने भी यही कहा था -मैं तृप्त हो गया हूँ। हमने इन अक्षरों के माध्यम से , अपनी लेखनी से चुन -चुन कर अक्षरों का चयन करके आप के लिए ऐसा दृश्य चित्रित करने का प्रयास किया है कि आपको,सभी को भी दिव्यता की अनुभूति हो। जिस तरह दर्शकों ने टीवी सीरियल के उस एपिसोड को बार -बार रिवाइंड कर -कर के विराट स्वरुप का आनंद लिया था ठीक उसी तरह आप इन पंक्तियों को भी बार -बार पढ़ने को बाधित होंगें ऐसा हमारा विश्वास है। और जितनी प्रसन्नता चोपड़ा साहिब को हुई थी उससे कहीं अधिक हम भी अनुभव कर रहे हैं।

 आज के लेख को हम यहीं पर विराम देने की अनुमति ले रहे हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि कोई भी लेख 3 पृष्ठों से अधिक और 2000 शब्दों  से अधिक न हो। यह लिमिट हमने अपने पाठकों व्यस्तता को ध्यान में रख कर बनाई है क्योंकि लेखों को केवल पढ़ने का उदेश्य नहीं है ,इनको अपने ह्रदय में उतारने का उदेश्य है। इन लेखों को पढ़ने से आपको ऐसे आनंद की अनुभूति होनी चाहिए कि आप उस छोटे से बच्चे की भांति अपनी प्रसन्नता भाग -भाग कर सभी को वर्णन करें जब उसे 100 में से 100 अंक प्राप्त होते हैं। ऐसा होना चाहिए हम सबका  संकल्प और समर्पण। जय गुरुदेव 

हम कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को  ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें।

To be continued .

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