6 सितम्बर 2021 का ज्ञान प्रसाद – त्रिपदा गायत्री एवं उसके तीन चरण -वैज्ञानिक पक्ष
स्वास्थ्य कुछ अधिक लिखने को रोक रहा है , इसलिए सीधा लेख की और ही चलते हैं। आज आप पढ़िए। परमपूज्य गुरुदेव को सुनिए :
मित्रो! हमारा सत्तर वर्ष का सम्पूर्ण जीवन सिर्फ एक काम में लगा है और वह है—भारतीय धर्म और संस्कृति की आत्मा की शोध। भारतीय धर्म और संस्कृति का बीज है—गायत्री मंत्र। इस छोटे-से चौबीस अक्षरों के मंत्र में वह ज्ञान और विज्ञान भरा हुआ पड़ा है, जिसके विस्तार में भारतीय तत्त्वज्ञान और भारतीय नेतृत्व विज्ञान दोनों को खड़ा किया गया है। ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार चरण गायत्री का व्याख्यान चार वेदों के रूप में किया। वेदों से अन्यान्य धर्मग्रंथ बने। जो कुछ भी हमारे पास हैं, इस सबकी मूल जड़ हम चाहें तो गायत्री मंत्र के रूप में देख सकते हैं। इसीलिए इसका नाम गुरुमंत्र रखा गया है, बीजमंत्र रखा गया है। बीजमंत्र के नाम से, गायत्री मंत्र के नाम से इसी एक मंत्र को जाना जा सकता है और गुरुमंत्र इसे कहा जा सकता है। हमने प्रयत्न किया कि सारे भारतीय धर्म और विज्ञान को समझने की अपेक्षा यह अच्छा है कि इसके बीज को समझ लिया जाए, जैसे कि विश्वामित्र ने तप करके इसके रहस्य और बीज को जानने का प्रयत्न किया। हमारा पूरा जीवन एक क्रियाकलाप में लग गया। जो बचे हुए जीवन के दिन हैं, उसका भी हमारा प्रयत्न यही रहेगा कि हम इसी की शोध और इसी के अन्वेषण और परीक्षण में अपनी बची हुई जिंदगी को लगा दें।
बहुत सारा समय व्यतीत हो गया। अब लोग जानना चाहते हैं कि आपने इस विषय में जो शोध की, जो जाना, उसका सार-निष्कर्ष हमें भी बता दिया जाए। बात ठीक है, अब हमारे महाप्रयाण का समय नजदीक चला आ रहा है तो लोगों का यह पूछताछ करना सही है कि हर आदमी इतनी शोध नहीं कर सकता। हर आदमी के लिए इतनी जानकारी प्राप्त करना तो संभव भी नहीं है। हमारा सार और निष्कर्ष हर आदमी चाहता है कि बताया जाए। क्या करें? क्या समझा आपने? क्या जाना? अब हम आपको बताना चाहेंगे कि गायत्री मंत्र के ज्ञान और विज्ञान में, जिसकी कि व्याख्या स्वरूप ऋषियों ने सारे का सारा तत्त्वज्ञान खड़ा किया है, क्या है?
गायत्री को त्रिपदा कहते हैं। त्रिपदा का अर्थ है—तीन चरण वाली, तीन टाँग वाली। तीन टुकड़े इसके हैं जिनको समझ करके हम गायत्री के ज्ञान और विज्ञान की आधारशिला को ठीक तरीके से जान सकते हैं। इसका एक भाग है “विज्ञान वाला पहलू।” विज्ञान वाले पहलू में आते हैं तत्त्वदर्शन, तप, साधना, योगाभ्यास, अनुष्ठान, जप, ध्यान आदि। इससे शक्ति पैदा होती है। गायत्री मंत्र का जप करने से उपासना और ध्यान करने से उसके जो महात्म्य बताए गए हैं कि इससे यह लाभ होता है, अमुक लाभ होते हैं, अमुक कामनाएँ पूरी होती हैं। “अब यह देखा जाए कि यह कैसे पूरी होती हैं और कैसे पूरी नहीं होतीं? कब यह सफलता मिलती है और कब नहीं मिलती?”
किसी भी चीज को पैदा करने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है।भूमि ,पानी और खाद – हवा तो है ही। अगर यह तीनों चीजें न होंगी, तब तो मुश्किल है। तब वह बीज पल्लवित होगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। गायत्री मंत्र के बारे में भी यही तीन बातें हैं, यदि गायत्री मंत्र के साथ तीन चीजें मिला दी जाएँ तो उसके ठीक परिणाम निकलने सम्भव हैं। अगर यह तीन चीजें नहीं मिलाई जाएँगी तब फिर यही कहना पड़ेगा कि इसमें सफलता की आशा कम है।
1 . श्रद्धा :
गायत्री उपासना के सम्बन्ध में हमारा लम्बे समय का जो अनुभव है वह यह है कि जप करने की विधियाँ और कर्मकाण्ड तो वही हैं, जो सामान्य पुस्तकों में लिखे हुए हैं या बड़े से लेकर छोटे लोगों ने किए हैं। किसी को फलित होने और किसी को न फलित होने का मूल कारण यह है कि “उन तीन तत्वों का समावेश करना लोग भूल जाते हैं,” जो किसी भी उपासना का प्राण है। उपासना के साथ एक तथ्य यह जुड़ा हुआ है कि अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा की अपनेआप में शक्ति है। बहुत सारी शक्तियाँ हैं जैसे बिजली की शक्ति है, भाप की शक्ति है, आग की शक्ति है, उसी तरीके से श्रद्धा की भी एक शक्ति है। श्रद्धा हो तो पत्थर में से भगवन पैदा हो जाते हैं, रस्सी में से साँप हो जाता है। श्रद्धा के आधार पर न जाने क्या-क्या हो जाता है । अगर हमारा और आपका किसी मंत्र के ऊपर, जप, उपासना के ऊपर अटूट विश्वास, प्रगाढ़ निष्ठा और श्रद्धा है तो मेरा अब तक का अनुभव यह है कि उसको” “चमत्कार मिलना ही चाहिए और उसके लाभ सामने आने ही चाहिए। जिन लोगों ने श्रद्धा के बिना उपासनाएँ की हैं, श्रद्धा से रहित केवल मात्र कर्मकाण्ड सम्पन्न किए हैं, केवल जीभ की नोक से जप किए हैं, और अँगुलियों की सहायता से मालाएँ घुमाई हैं, लेकिन मन में वह श्रद्धा उत्पन्न न कर सके, विश्वास उत्पन्न न कर सके, ऐसे लोग खाली ही रहेंगे।
2 .परिष्कृत व्यक्तित्व :
उपासना को सफल बनाने के लिए परिष्कृत व्यक्तित्व का होना नितांत आवश्यक है। परिष्कृत व्यक्तित्व का मतलब यह है कि आदमी चरित्रवान हो, लोकसेवी हो, सदाचारी हो, संयमी हो, अपने व्यक्तिगत जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने वाला हो। अब तक ऐसे ही लोगों को सफलताएँ मिली हैं। अध्यात्म का लाभ स्वयं पाने और दूसरों को दे सकने में केवल वही साधक सफल हुए हैं जिन्होंने कि जप, उपासना के कर्मकाण्डों के साथ अपने व्यक्तिगत जीवन को शालीन, समुन्नत, श्रेष्ठ और परिष्कृत बनाने का प्रयत्न किया है। संयमी व्यक्ति, सदाचारी व्यक्ति जो भी जप करते हैं, उपासना करते हैं, उनकी प्रत्येक उपासना सफल हो जाती है। दुराचारी मनुष्य , दुष्ट मनुष्य , नीच, पापी और पतित मनुष्य भगवान का नाम लेकर यदि पार होना चाहें तो पार नहीं हो सकते। भगवान का नाम लेने का परिणाम यह होना चाहिए कि मनुष्य का व्यक्तित्व सही हो और वह शुद्ध बने। अगर व्यक्ति को शुद्ध और समुन्नत बनाने में राम नाम सफल नहीं हुआ तो जानना चाहिए कि उपासना की विधि में बहुत भारी भूल रह गई और नाम के साथ में काम करने वाली बात को भुला दिया गया। परिष्कृत व्यक्तित्व उपासना का दूसरा वाला पहलू है—गायत्री उपासना के सम्बन्ध में अथवा अन्यान्य उपासनाओं के सम्बन्ध में।
3. दृष्टिकोण और महत्वकांक्षाएं :
हमारा अब तक का अनुभव यह है कि उच्चस्तरीय जप और उपासनाएँ तब ही सफल होती हैं जब मनुष्य का दृष्टिकोण और महत्त्वाकांक्षाएँ भी ऊँची हों। घटिया उद्देश्य लेकर, निकृष्ट कामनाएँ लेकर,वासनाएँ लेकर अगर भगवान की उपासना की जाए और देवताओं का द्वार खटखटाया जाए तो देवता सबसे पहले कर्मकाण्डों की विधि और विधानों को देखने की अपेक्षा यह मालूम करने की कोशिश करते हैं कि इसकी उपासना का उद्देश्य क्या है? किस काम के लिए उपासना कर रहा है ? अगर परिश्रम को छोड़ कर, सरल और सस्ते तरीके से उदेश्य पूरा कराने के लिए देवताओं का पल्ला खटखटाता है तो देवता समझ जाते हैं कि यह कोई घटिया आदमी है और घटिया काम के लिए हमारी सहायता चाहता है। देवता भी बहुत व्यस्त हैं। देवता सहायता तो करना चाहते हैं, लेकिन सहायता करने से पहले यह तलाश करना चाहते हैं कि हमारा उपयोग कहाँ किया जाएगा? किस काम के लिए किया जाएगा? यदि घटिया काम के लिए उनका उपयोग किया जाने वाला है, तो वे कदाचित ही, कभी किसी की सहायता करने को तैयार होते हैं। ऊँचे उद्देश्यों के लिए देवताओं ने हमेशा सहायता की है।
मंत्रशक्ति और भगवान की शक्ति केवल उन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित रही है, जिनका दृष्टिकोण ऊँचा रहा है। जिन्होंने किसी अच्छे काम के लिए, ऊँचे काम के लिए भगवान की सेवा और सहायता चाही है, उनको बराबर सेवा और सहायता मिली है। इन तीनों बातों को हमने प्राणपण से प्रयत्न किया और हमारी गायत्री उपासना में प्राण-संचार होता चला गया। प्राण-संचार अगर होगा तो हर चीज प्राणवान और चमत्कारी होती चली जाती है और सफल होती जाती है। हमने अपने व्यक्तिगत जीवन में चौबीस लाख के चौबीस साल में चौबीस महापुरश्चरण किए। जप और अनुष्ठानों की विधियों को संपन्न किया।
“एक वर्ष में 24 लाख गायत्रीमंत्र का अर्थ है एक दिन में लगभग 6000 मन्त्र , 60 मालाएं।”
सभी के साथ जो नियमोपनियम थे, उनका पालन किया, यह भी सही है, लेकिन हर एक को यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी उपासना में कर्मकाण्डों का, विधि-विधानों का जितना ज्यादा स्थान है, उससे कहीं ज्यादा स्थान इस बात के ऊपर है कि हमने उन तीन बातों को जो आध्यात्मिकता की प्राण समझी जाती हैं, उन्हें पूरा करने की कोशिश की है। अटूट श्रद्धा और अडिग विश्वास गायत्री माता के प्रति रख करके और उसकी उपासना के सम्बन्ध में अपनी मान्यता और भावना रख करके प्रयत्न किया है और उसका परिणाम पाया है। व्यक्तित्व को भी जहाँ तक संभव हुआ है परिष्कृत करने के लिए पूरी कोशिश की है। एक ब्राह्मण को और एक भगवान के भक्त को जैसा जीवन जीना चाहिए हमने भरसक प्रयत्न किया है कि उसमें किसी तरह से कमी न आने पावे। हम उसमें पूरी-पूरी सावधानी बरतते रहे हैं। अपने आपको धोबी के तरीके से धोने में और धुनिए के तरीके से धुनने में हमने आगा-पीछा नहीं किया है। यह हमारी उपासना को फलित और चमत्कृत बनाने का एक बहुत बड़ा कारण रहा है। उद्देश्य हमेशा से ऊँचा रहे। उपासना हम किस काम के लिए करते हैं, हमेशा यह ध्यान बना रहा। पीड़ित मानवता को ऊँचा उठाने के लिए, देश-धर्म, समाज और संस्कृति को समुन्नत बनाने के लिए हम उपासना करते हैं, अनुष्ठान करते हैं। भगवान की प्रार्थना करते हैं। भगवान ने देखा कि यह आदमी किस नीयत से कर रहा है। भगीरथ की नीयत को देखकर के गंगाजी स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के लिए तैयार हो गई थीं और शंकर भगवान् उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गए थे। हमारे सम्बन्ध में भी वैसा ही हुआ। ऊँचे उद्देश्यों को सामने रख करके चले तो दैवी-शक्तियों की भरपूर सहायता मिली।
हम देखते हैं कि अकेला बीज बोना सार्थक नहीं हो सकता। उससे फसल नहीं आ सकती। फसल कमाने के लिए बीज एक, भूमि दो और खाद-पानी निशाना लगाने के लिए बंदूक
जिस प्रकार फसल कमाने के लिए भूमि ,पानी-हवा और बीज चाहिए ,बन्दुक से निशाना लगाने के लिए बन्दुक ,कारतूस और अभ्यास चाहिए ,मूर्ति बनाने के लिए पत्थर ,छैनी-हथोड़ा और कलाकारिता चाहिए , लेखन के लिए कागज़,कलम-स्याही और शिक्षा चाहिए – उसी प्रकार उपासना के चमत्कार देखने के लिए श्रद्धा ,परिष्कृत व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और महत्वकांक्षाएं होनी चाहिए।
गायत्री मंत्र के सम्बन्ध में हम यही प्रयोग और परीक्षण आजीवन करते रहे और पाया कि गायत्री मंत्र सही है, शक्तिशाली है। गायत्री को कामधेनु कहा जाता है, यह सही है। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा जाता है, यह भी सही है। गायत्री को पारस कहा जाता है, इसको छूकर के लोहा सोना बन जाता है, यह भी सही है। गायत्री को अमृत कहा जाता है, जिसको पीकर हम अमर हो जाते हैं, यह भी सही है। यह सब कुछ सही उसी हालत में हैं जबकि गायत्री रूपी कामधेनु को चारा भी खिलाया जाए, पानी पिलाया जाए, उसकी रखवाली भी की जाए। गाय को चारा खिलाएँ नहीं और दूध पीना चाहें तो यह कैसे सम्भव होगा? पानी पिलाएँ नहीं ठंड से उसका बचाव करें नहीं, तो कैसे सम्भव होगा? गाय दूध देती है, यह सही है, लेकिन साथ-साथ में यह भी सही है कि इसको परिपुष्ट करने के लिए गाय की सेवा भी करनी पड़ेगी।
जय गुरुदेव