25 अगस्त 2021 का ज्ञानप्रसाद- संत सत्यानंद और कीना राम जी एवं परम पूज्य गुरुदेव
आज के लेख में शब्दों की सीमा ने हमें अपनी भावनाएं और विचार नहीं रखने दिए। अब तो यही हो सकता है कि कल वाले लेख में आप सभी से अपनी कुछ बातें करें ,कुछ आपकी सुने -आपके कमैंट्स के माध्यम से। तो आइये चलें इन दो विभूतियों को जाने
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संत सत्यानंद जी कथा :
पिछले लेख को ही जारी रखते हुए आगे चलते हैं : सत्यानंद जी अपने बारे में बताने लगे कि पिछले साठ वर्षों से यहां निवास कर रहा हूँ।
आइये थोड़ा सा रुक जाएँ और चिंतन करें :
अगर हम गुरुदेव की यात्रा का वर्ष 1960 समझें तो सत्यानंद जी 1900 से यहाँ रह रहे थे ,इसका अर्थ यही निकलता है कि हम जिस घटना का विवरण दे रहे हैं आज 2021 में 121 वर्ष पुरानी है। यह पंक्तियाँ हमें इस लिए लिखनी पड़ीं कि जैसे महेंद्र जी कह रहे थे “ कौन विश्वास करेगा इस गपबाजी को” आज इंटरनेट युग में सबसे बड़ी समस्या विश्वास की ही है। आज प्रतक्ष्यवाद और वादविवाद का युग है, संशय का युग है। 5000 वर्ष पुरातन घटनाओं पर आधारित बी आर चोपड़ा द्वारा निर्देशित मैगा सीरियल महाभारत हम देखकर विश्वास कर सकते हैं क्योंकि वह मनोरंजन है। लेकिन क्या हमने कभी भी विचार किया कि डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने कितना अथक परिश्रम करके,रिसर्च करके इसकी स्क्रिप्ट लिखी थी।
विश्वास -विश्वास -केवल विश्वास ,जैसे परमपूज्य गुरुदेव ने दादा गुरु पर किया।
अब चलते हैं आगे :
सत्यानन्द जी कह रहे हैं :महायोगी त्र्यंबक बाबा ने मुझे यहां दीक्षा दी थी और साधन मार्ग की शेष यात्रा यहीं पूरी करने के लिए कहा था। तब से कलाप ग्राम छोड़कर कहीं और जाना नहीं हुआ।’ अपनी बात बीच में रोककर सत्यानंद गुरुदेव से पूछने लगे, ‘तुमने भागवत शास्त्र में कलाप ग्राम का उल्लेख पढ़ा है न।’ गुरुदेव ने सिर हिलाकर “हां” कहा।
सत्यानंद को बचपन से ही धुन सवार थी कि जीवन को परमसत्य की खोज में ही व्यतीत करना है। परंपरा के अनुसार आयु के तेरहवें वर्ष मे यज्ञोपवीत हुआ और तभी से नियमित संध्या गायत्री का जप और पूजा पाठ करने लगे। यज्ञोपवीत संस्कार के डेढ़ साल बाद उन्हें मलेरिया बुखार हुआ। उस समय मलेरिया का कोई इलाज ढूंढा नहीं जा सका था। सत्यानंद की हालत दिनोदिन खराब होती गई। डॉक्टर ने बचने की उम्मीद छोड़ दी और कह दिया कि रोगी जो भी खाना चाहे, खाने दें, जैसे रहना चाहे रहने दें। परहेज और इलाज से कोई फायदा नहीं होगा। घर के लोग रोने पीटने लगे। सत्यानंद तब अर्धचेतन अवस्था में थे। सिरहाने बैठी मां भगवद्गीता का पाठ सुनाने लगी। उस अवस्था में ही “सत्यानंद ने अनुभव किया कि एक कन्या सिरहाने बैठी है और कह रही है कि आप चिंता न करें आपका मृत्यु योग टल गया है। कन्या सत्यानंद के सिर पर हाथ भी फेरती जा रही थी।” उसके हाथ फेरने के कुछ ही क्षण बाद बुखार उतरने लगा, घरवालों के चेहरे पर प्रसन्नता खिलने लगी। तीन दिन में बुखार पूरी तरह ठीक हो गया। डाक्टरों ने देखा तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ। सत्यानंद को बाद में बोध हुआ कि रुग्ण अवस्था में उन्हें दर्शन देने और ढाढ़स बंधाने वाली शक्ति कोई और नहीं “स्वयं वेदमाता गायत्री ही थी।” इस घटना से सत्यानंद को माँ गायत्री पर इतना विश्वास हो गया कि उन्होंने आगे पढ़ना छोड़ दिया। सत्यानंद का मन ही नहीं हुआ कि परीक्षा दें। वैराग्य जाग गया और सात आठ महीने बाद हिमालय की ओर निकल गये। त्र्यंबक बाबा ने यहीं दर्शन दिए। उन्हीं के दिए संकेतों के आधार पर कलाप ग्राम पहँचे और इसे अपनी साधना भूमि बनाया। जब गुरुदेव ने कलाप ग्राम में प्रवेश किया तो उन्होंने देखा बस्ती में शान्ति व्याप्त थी। लेकिन वह शांति सन्नाटे का प्रतिरूप नहीं थी। उसमें उल्लास का पुट था। गांव में पैतीस-चालीस कुटियाएं थीं। प्रत्येक कुटिया में एक साधक परिवार था। परिवार का अर्थ गुरु और उनके शिष्य से है।
सत्यानंद ने स्वयं कहा और भागवत का उल्लेख भी किया। यह उल्लेख इस प्रकार था :
भागवत के दशम स्कंध में नारद आदि ऋषियों के यहां आने और सृष्टि के बारे में विचार करने का उल्लेख आता है। द्वापर के अंत में आसुरी आतंक बढ़ने लगा और सत्ता की होड़ में नीति अनीति, पुण्य पाप, धर्म अधर्म का भेद भुलाया जाने लगा। स्वार्थ और आपाधापी ने मनुष्य को नरपिशाच बना दिया तो इसी कलाप ग्राम में मुनियों का सत्र आयोजित हुआ। उसमें नारद, व्यास, मैत्रेय, जमदग्नि, गौतम आदि ऋषियों ने अपने समय की समस्याओं पर गहन विचार किया। पृथ्वी पर ईश्वरीय चेतना से हस्तक्षेप की रूपरेखा बनाई और सृष्टि का संरक्षण, पोषण करने वाली “दिव्य चेतना” को स्थूल रूप में व्यक्त होने के लिए मनाया गया। सत्यानंद ने कहा कि कृष्णावतार या उनसे भी पहले राम, परशुराम आदि अवतारों को सृष्टि में संतुलन के लिए दैवी हस्तक्षेप के रूप में ही समझना चाहिए। पृथ्वी पर जब भी कोई संकट आता है या बड़े परिवर्तन आते हैं तो सिद्ध संत ( ऋषियों की संसद ) यहां मिल बैठते और सूक्ष्म जगत में संतुलन लाने के लिए विचार करते हैं। ऐसी संसद का वर्णन हम अपने अन्य लेखों में भी कर चुके हैं। सत्यानंद ने कहा, ‘यह अकेला स्थान नहीं है। सिद्धाश्रम, ज्ञानगंज, शांगरिला ,शम्भाला इसी तरह के केन्द्र हैं। इनके अलावा और क्षेत्र भी होंगे। शांगरिला का अर्थ “धरती का स्वर्ग” होता है ,यहाँ हमारे टोरंटो में इसी नाम से एक फाइव स्टार होटल भी है।
इस चर्चा के बाद योगी और गुरुदेव कलाप ग्राम से बाहर निकले और आगे की यात्रा पर निकल पड़े। यह यात्रा पैदल ही हो रही थी। कहीं ऊंची चढ़ाई चढ़ना होती तो कहीं उतार
होता। खड्डु खाइयों से बचने के लिए पर्याप्त सावधानी आवश्यक थी।गुरुदेव को इसकी चिंता नहीं थी। दादा गुरु के भेजे हुए प्रतिनिधि इसहिमालय क्षेत्र से परिचित थे। गौरीशंकर पर्वत (जो नेपाल में है ) के पास पहुँचते-पहुँचते चारों ओर बर्फ ही बर्फ दिखाई देने लगी। वृक्ष वनस्पति या जीवजंतु का कहीं नामनिशान नहीं था। योगी ने एकाध स्थान पर सावधान किया कि संभल कर चलना। यहां बर्फ पर पांव फिसल सकता है। गुरुदेव ने मज़ाक में कहा कि अपने गुरु के संरक्षण में यात्रा हो रही होऔर आप जैसा सिद्ध संन्यासी साथ में हो तो फिसलने का भी क्या भय है? कदाचित कोई पांव उलटा सीधा पड़ गया तो आप संभाल ही लेंगे। वाह रे वाह – कैसी है यह गुरु भक्ति ,कैसा है यह विश्वास। योगी ने इस मज़ाक को आगे बढ़ाया, ‘अगर तुम्हारी बात का सचमुच यही आशय है तो यह भी ध्यान रखना चाहिए कि गुरुदेव पांव की हड्डी को चटखने की अनुमति भी दे देंगे।’
बाबा कीना राम जी की कथा :
एक स्थान पर बर्फ की बनी हुई गुफा दिखाई दी। उसमें से हर हर महादेव की ध्वनि आ रही थी। यह ध्वनि जप साधना में लगे किसी साधक के मुंह से निकली हुई आवाज नहीं थी। लग रहा था जैसे कोई स्नान कर रहा हो। गुरुदेव ने विस्मित होते हुए कहा, ‘इस गुफा में भी कोई झरना है क्या? लगता है कोई तपस्वी स्नान कर रहा हो।’ उत्तर मिला ‘नहीं। कोई तपस्वी नहीं बल्कि तपोनिष्ठ विभूति है बाबा कीनाराम । प्रत्यक्ष जगत से छुटकारा होने के बाद इसी सिद्ध क्षेत्र में रमण कर रहे बाबा कीनाराम के बारे में गुरुदेव ने अच्छी तरह पढ़ा हुआ था। इस संत ने औघड़ संप्रदाय का आरम्भ भले ही न किया हो लेकिन अघौड़ परंपरा में उनकी ख्याति सबसे ज्यादा है। 2017 में CNN पर Reza Aslan, द्वारा इस सम्प्रदाय पर एक डॉक्यूमेंट्री प्रस्तुत की गयी थी। इस डॉक्यूमेंण्ट्री के बारे में अगर कुछ कहें तो अपने आज के विषय से भटक जायेंगें। कीना राम का जन्म लगभग चार सौ साल पहले चंदौली में हुआ था। तंत्र और योग मार्ग के सिद्ध साधकों में लगभग प्रत्येक ने उनसे कभी न कभी मार्गदर्शन पाया था। चार सौ वर्ष पूर्व उनका जन्म और जीवन भी असाधारण ही था। औघड़पन उनमें बचपन से ही था और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रति भक्ति भी। उनके संबंध में कई चमत्कारी घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें कई बड़ा चढ़ाकर भी बताई गयी होंगी लेकिन फिर भी लोग उन्हें बहुत ही श्रद्धा से स्मरण करते हैं।
बचपन की एक घटना :
बचपन की एक घटना तो यही विख्यात है कि उन्हें अपनी पत्नी के निधन का तत्क्षण पता चल गया था। उन दिनों छोटी उम्र में विवाह हो जाना आम बात थी। बारह वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो गया और तीन साल बाद गौने की तिथि तय हो गई। यात्रा के एक दिन पहले कीनाराम ने अपनी मां से दूध और भात मांगा। मां ने मना किया कि दूध भात नहीं, दही भात खा लो। कीनाराम नहीं माने। मां को लाचारी से दूध भात ही देना पड़ा। अगले दिन जब गौने के लिए रवाना होने लगे तो खबर आई कि पत्नी का निधन हो गया है। मां रोने लगी और कीनाराम को कोसते हुए कहा, ‘मैं समझ गई थी कि कोई न कोई अशुभ होना ही है। यात्रा के समय कोई -भात खाता है क्या?’
कीनाराम ने कहा, नहीं माँ मैने तुम्हारी बहू के मरने के बाद ही दूध भात खाया। विश्वास नहीं हो तो किसी से पूछ लो। वह कल शाम को ही मर गई थी। मैंने तो रात को दूध भात खाया है। मां के माध्यम से यह बात पूरे गांव में फैल गई थी। लोगों को भी आश्चर्य हुआ कि कीनाराम को आखिर इस बात की जानकारी कैसे हुई।’ इस घटना के कुछ दिन बाद ही पुर्नविवाह की बात चलने लगी लेकिन कीनाराम ने इनकार कर दिया। घर के लोगों का दबाव फिर बढ़ता ही गया। इन दबावों से पिंड छुड़ाने के लिए कीनाराम घर से भाग गये। घूमते घामते गाजीपुर आए। उन दिनों गाजीपुर में रामानुजी सम्प्रदाय के अनुयायी सन्त शिवराम रहते थे। कीनाराम ने उनसे कहा कि आपके पास रहने और साधना करने की इच्छा थी। शिवराम जी ने उन्हें अपने यहां रख लिया। गुरु की सेवा के बाद जितना समय मिलता था वे उतनी देर भजन करते और मस्त रहते। एक दिन उन्होंने दीक्षा देने के लिए कहा पर शिवराम जी ने उसे टाल दिया। कुछ दिन बाद फिर अनुरोध किया। शिवराम जी ने फिर टाल दिया। कीनाराम बराबर याद दिलाते रहे। अन्ततः कई महीनों बाद परीक्षा लेने पर शिवराम ने कहा कीनाराम चलो गंगा तट पर तुम्हें दीक्षा देते हैं।’ गुरु का आदेश पाते ही कीनाराम प्रसन्न मन उनके साथ चल दिए। रास्ते में अपना आसन, कमण्डल कीनाराम को देते हुए उन्होंने कहा ‘तुम यह सब लेकर घाट पर चलो, मैं आता हूँ।’ गुरुदेव शिवराम जी की सामग्री लेकर कीनाराम घाट पर आकर बैठ गए । थोड़ी देर बाद उन्होंने महसूस किया कि गंगा की लहरें उनके पैरों पर आकर टकरा रही है। कीनाराम ने आचमन किया और कुछ ऊपर जाकर बैठ गए। थोड़ी देर बाद फिर वैसा ही हुआ। कीनाराम फिर उठे और काफी ऊपर जाकर बैठे। वहां भी गंगा आकर उनके पैरों से टकराने लगी। इस घटना को देखकर वह हक्के बक्के रह गए। उनके पीछे बाबा शिवराम मौन खड़े यह दृश्य देख रहे थे। उन्हें लगा कि कीनाराम अवश्य ही असाधारण व्यक्ति है। यह विलक्षण घटना थी। स्नान करने के बाद बाबा शिवराम कीनाराम को लेकर मन्दिर में गए और वहीं दीक्षा दी। दीक्षा ग्रहण करने के बाद कीनाराम प्रचंड रूप से जप साधना में लग गए। गुरु प्रेरणा से वे फिर स्वतंत्र घूमने लगे। समय आने पर हिमालय आ गए।
जय गुरुदेव
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो।