हिमालय क्षेत्र के निवासी -प्रेम के अवतार

24 अगस्त 2021 का ज्ञानप्रसाद : हिमालय क्षेत्र के निवासी -प्रेम के अवतार https://drive.google.com/file/d/1S0wWaC_U_hfI-Elp0SEp-jpAzKlIwdIY/view?usp=sharing

रिसर्च तो हम कर  रहे थे पांडुकेश्वर ग्राम की और पहुँच गए “कलाप”  ग्राम में।  हाँ ,यह दोनों ही ग्राम अपनेआप में अत्यंत दिव्यता छिपाये हुए हैं।  ऐसे ही कई ग्राम, क्षेत्र परमपूज्य गुरुदेव की हिमालय यात्रा का अध्यन करते हमें जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, हमारे पास शब्द ही नहीं हैं कि कैसे उस गुरु का धन्यवाद् करें जिन्होंने उस प्रदेश का ज्ञान दिलवा दिया जो कभी discovery चैनल पर देखे थे लेकिन फॉरवर्ड करके छोड़ दिए थे कि क्या देखना इन जगहों को , क्या विशेष है इनमें। Maptia:Home to World of Stories   के opening comments ने ही दिल को ऐसे छुआ कि पांडुकेश्वर की  रिसर्च एक तरफ रह गयी और हम लग पड़े उनकी वेबसाइट की surfing करने।  इस भागदौड़ के संसार से दूर गढ़वाल उत्तराखंड स्थित कलाप नामक एक पुरातन ग्राम जहाँ के निवासियों को  प्रमति जी  ने “प्रेम के अवतार” की संज्ञा दी है, हमारे ह्रदय के और भी करीब लाकर रख दिया।  वह लिखती  हैं -इस ग्राम के लोग बिल्कुल उसी तरह के हैं जैसे भगवान ने उन्हें पैदा किया, बिल्कुल  ही  सादा ,दुनियादारी से दूर। प्रमति जी  “कलाप ट्रस्ट” के सूत्रधार आनंद संकर के निमंत्रण पर इस  दिव्य ग्राम में आयीं थीं । हुआ यह  कि 1990 के दशक के अंत में बैंगलोर की एक महिला अपने तीन बच्चों के साथ पहाड़ों के इस हिस्से में आई। उन्होंने यहाँ अपना  घर बनाया, एक ऐसा घर जो पूरी तरह से ऑफ-ग्रिड था और सौर ऊर्जा से चलता था। उन्होंने यहां कई साल बिताए जब बादलों की गरज और बाढ़ ने उनका बाकी की दुनिया से  संपर्क तोड़ दिया।  बाढ़  से एकमात्र लकड़ी का  पुल  जो शेष दुनिया का संपर्क साधन था वह भी टूट गया। कई साल बाद, आनंद शंकर की उन बच्चों में से एक के साथ एक अनौपचारिक मुलाकात हुई। उन्होंने आनंद को दुनिया के इस हिस्से से परिचित कराया। तब से लेकर आज तक आनंद ने  कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आनंद को उस जगह से प्यार हो गया और वे बार- बार यहाँ  आते रहे।  लेकिन उन्होंने  जल्द ही यहाँ की बड़ी समस्याओं ; स्वच्छता, शिक्षा और चिकित्सा-सहायता को देखना शुरू कर दिया। 

हमें भी  इस दिव्य भूमि के साथ एक अंतरात्मा का  स्नेह हो गया है।  हमें याद भी नहीं आता कि हमने इसी विषय पर कितने ही लेख लिखे हैं। हो सकता है  इसका कारण परमपूज्य  गुरुदेव के चरणस्पर्श से इस गांव की भूमि का हमारे साथ कोई सम्बन्ध हो। यह ग्राम  उत्तराखंड के ऊपरी गढ़वाल क्षेत्र का एक गाँव है। 7,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित, यह गांव देवदार (चीढ़ ) के जंगलों के बीच बसा है। यह ऊंचाई लगभग हिमाचल प्रदेश स्थित शिमला जितनी है परन्तु शिमला जैसा विकास इस गांव में सोचना भी शायद कठिन हो, सुपिन नदी यहाँ की मुख्य नदी है जो टोंस नदी से होकर यमुना नदी की एक प्रमुख सहायक नदी है। कलाप ग्राम उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 210 किमी और नई दिल्ली से 450 किमी दूर है। निकटतम रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डा देहरादून है। कलाप के लिए कोई भी डायरेक्ट बस सर्विस नहीं है। निकटतम शहर नेटवर तक पहुंचने में देहरादून से कार से 6 घंटे या बस से 10 घंटे लगते हैं। नेटवर से कलाप पहुँचने का केवल पैदल ही मार्ग है जिसमें लगभग 4 -5 घंटे लगते हैं और सीधी पहाड़ी चढाई है।

हम अपने सहकर्मियों से निवेदन करते हैं कि इस ग्राम का  सौंदर्य और सादगी का आभास करने के लिए साथ दी गयी केवल एक मिंट की वीडियो अवश्य देख लें।  इस वीडियो में आप देख सकते हैं कि इस most remote ग्राम में जहाँ सुविधाओं की कमी के बावजूद यह लोग कितने प्रसन्न  हैं और गायत्री स्तवन तो है ही। कलाप ग्राम का वर्णन अभी आगे फिर आएगा। 

तो आइये चलें एक बार फिर गुरुदेव के पीछे -पीछे हिमालय यात्रा पर :

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कल वाले लेख में हमने देखा था कि गुरुदेव सुमेरु पर्वत से नीचे उतरे।  वहीँ पर उन्हें दादा गुरु द्वारा भेजा योगी लेने आया था। गुरुदेव ने उस योगी को वीरभद्र नाम दिया था। नाम इसलिए देना पड़ा कि वह अपना कोई परिचय नहीं दे रहा था। पूछने पर यही कहता था कि दादा गुरु  ने  अपने साथ लिवा लाने के लिए यहीं भेजा है । इस बार वे नंदनवन में नहीं हैं। पिछली बार दादा गुरु  के जिस प्रतिनिधि ने मार्गदर्शन दिया था उसका नाम वीरभद्र ही था। पिछली यात्रा में जिस वीरभद्र का सान्निध्य मिला था वह मौन ही रहा था। उसे वीरभद्र के रूप में ही पहचाना था। अभी आए गुरुभाई को भी आचार्यश्री ने इसी नाम से पुकारा। उसी से पता चला कि दादा  गुरु  कैलाश  मानसरोवर के मार्ग में मिलेंगे। 

कहाँ कलाप क्षेत्र और कहाँ कैलाश मानसरोवर – यह दूरी और यहाँ का वातावरण बिलकुल ही अविश्वसनीय और आश्चर्यजनक है लेकिन है बिलकुल ही सत्य। हम दिव्य आत्मा गुरुदेव की बात कर रहे हैं न कि किसी साधारण मानव की। 

उससे बातचीत करते हुए आचार्यश्री को लग रहा था कि रास्ते में गुरुभाई से हिमालय के बारे में कई नई जानकारियाँ मिल सकती हैं। आचार्यश्री ने जब पहली बार वीरभद्र कहकर पुकारा तो उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। आचार्यश्री ने कहा, ‘मैं गुरुदेव को भगवान शंकर के रूप में देख रहा हूँ। आप उनके गण या संदेशवाहक हैं। भगवान शंकर के गण तो वीरभद्र ही कहे जाते हैं न।’ सुनकर योगी चुप रह गए। योगी तपोवन से ही साथ हो लिया था। उसके आने से पहले ही संकेत आने लगे थे कि आगे का मार्ग दुर्गम है। मई, जून के महीने थे। मौसम थोड़ा सुहाना और गर्म-सर्द सा  था। मैदान जैसी गर्मी तो नहीं थी लेकिन हिमालय में रहने वाली शीतकाल जैसी सर्दी भी नहीं थी। उस समय चारों ओर हरियाली छाई हुई थी। आचार्यश्री के मन में इच्छा जागने लगी कि कुछ दिन यहां रहा जाए। योगी ने उस इच्छा को निरस्त कर दिया।  आचार्यश्री ने उस योगी से अपने बारे में कुछ बताते चलने का अनुरोध किया। आशय यह था कि बातें करते करते  रास्ता आसानी से कट जाएगा। वीरभद्र ने स्पष्ट मना कर दिया कि हमारे जीवन में  कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जो बताने लायक हो। आचार्यश्री ने कहा, “अपने निज के बारे में भले ही न बतायें, दादा गुरु  के सान्निध्य में हुए लाभ और अनुभूतियों के बारे मे ही बताते चलें। मुझे उनका प्रत्यक्ष सान्निध्य केवल  दो-तीन दिन के लिए ही मिला है। आप तो बहुत  भाग्यशाली  हैं जो  आपको उनका सान्निध्य प्रायः मिलता रहता है।” योगी ने आचार्यश्री की बात का खंडन किया। उन्होंने कहा -यह सच है  हिमालय के सिद्ध क्षेत्र में रहने से साधना में थोड़ी बहुत  अनुकूलता रहती है और  संसार क्षेत्र जैसे व्यवधान इधर नहीं आते,  यहां के सिद्ध वातावरण का लाभ भी मिलता है लेकिन प्रत्यक्ष सान्निध्य यानि  मोह से तो बचना ही पड़ता है। योगी के कहने का  आशय था कि दादा गुरु  का सानिध्य उन्हें भी यहां बहुत सुलभ नहीं रहा है। आचार्यश्री ने कहा कि दादा गुरु के संदेशवाहक बनकर आप तो  बहत ही  सौभाग्यशाली सिद्ध हुए हैं। योगी ने कहा कि इस तरह तो  तुम मेरे  और मुझ जैसे हजारों शिष्यों की तुलना में लाख गुना ज्यादा सौभाग्यशाली हो। तुम्हें तो दादा गुरु  ने लाखों, करोड़ों लोगों के लिए अपना संदेशवाहक चुना है। आचार्यश्री के पास वीरभद्र के इस उत्तर का कोई प्रत्युत्तर नहीं था।

सुमेरू पर्वत की सीमा पार हो चुकी थी। वरुण वन शुरू हो गया था। वहां की मिट्टी नम थी, कहीं कहीं इतनी गीली कि कीचड़ सी लगने लगती थी लेकिन इस वन में वनस्पतियां बहुत थीं। देखकर आचार्यश्री को नंदनवन याद हो आया। चौखंबा शिखर दूर से ही दिखाई दिया। कहते हैं कि पांडवों ने यहीं से स्वर्गारोहण ( स्वर्गवास ) किया था। इसी तरह का एक शिखर तिब्बत के पास भी है। योगी ने बताया कि हिमालय में इस तरह के शिखर सरोवर और पर्वतों की भरमार है।

योगी के साथ चलते हुए शाम ढलने लगी। तपोवन की सीमा जहाँ समाप्त होती थी वहीं गौरी सरोवर था। मान्यता है कि माता  पार्वती यहां सरोवर रूप में विराजती हैं। पर्वत को शिव का रूप मानते हैं। गंगा ग्लेशियर के सहारे-सहारे आगे बढ़े। कुछ मील चलने पर एक झील दिखाई दी। उस झील किनारे दो संन्यासी ध्यान लगाए बैठे थे। वस्त्र के नाम पर उन्होंने विचित्र तरह का कौपीन पहना हुआ थे। वह पत्तों और वृक्ष की छालों से बना था। कारीगरी इतनी बारीक थी कि तपस्वियों को उसके लिए समय निकालने की बात नहीं सोची जा सकती थी। इस तरह के वस्त्र किन्हीं श्रद्धालुओं या आसपास कोई बस्ती हो तो वहां के लोगों ने ही दिए होंगे। चौखंभा शिखर के पास से गुजरते हुए दूर कुछ झोपड़ियां दिखाई दीं। समतल मैदान वहां नहीं था। झोपड़ियां बनाने के लिए समतल मैदान का उपयोग किया गया था। सैकड़ों साल पहले  यहां एक बड़ा गांव था । तब यहां सिद्ध साधक रहते थे। अब उनके वंशज रहते थे।’ साथ चल रहे योगी ने बताया कि इस गांव में होते हुए चलना चाहिए। उस गांव का नाम था ‘कलाप’। यह नाम क्यों पड़ा? आचार्यश्री के मन में प्रश्न तो उठा लेकिन उसमें ज्यादा उलझे नहीं। योगी ने कह दिया था कि यह  गांव हजारों वर्ष पुराना है।इस गांव का नाम कलाप है।  कलाप गांव और उसके आसपास के गांव महाभारत की पौराणिक कथाओं में डूबे हुए हैं। कलाप का मुख्य मंदिर कौरवों के साथ लड़ने वाले योद्धा कर्ण को समर्पित है। कर्ण की मूर्ति को इस क्षेत्र के विभिन्न गांवों के बीच लेकर जाया जाता है । जब मूर्ति को एक गांव से में ले जाया जाता है, तो इसे “कर्ण महाराज उत्सव” के रूप में मनाया जाता है। कलाप में पिछला उत्सव 2014 में था, और यह एक दशक से अधिक समय के बाद ही फिर से होगा जनवरी में इस गाँव में हमेशा ही पांडव नृत्य होता है । इस नृत्य रूप में महाभारत की विभिन्न कहानियों का अभिनय किया जाता है।आपको जीने, खाने और पहनने के लिए जो कुछ भी चाहिए वह कलाप में बनाया जाता है। यह जीवन का एक अनूठा तरीका है, जो दूरस्थ ( भारत का सबसे दूर  स्थान ) स्थान की कठोरता से लगाया जाता है। यहाँ भारत की सीमा समाप्त हो जाती है। 

महाभारत के समय भी यहां सिद्ध पुरुषों का वास था। धृतराष्ट्र ने इसी क्षेत्र में आकर उग्र तप किया था और परमधाम गए थे। भागवत में यहाँ सिद्धों, ऋषियों और तापस महात्माओं के सत्र लगाने  का उल्लेख आता है। योगी के साथ आचार्यश्री ने कलाप ग्राम में प्रवेश किया। वे सीमा पर ही थे कि तीव्र प्रकाश की अनुभूति हुई। दिन का समय था। सूर्य का प्रकाश होना स्वाभाविक ही था लेकिन दिखाई दे रहा प्रकाश आभायुक्त था जैसे किसी स्वर्ण नगरी में पहुंच गए हों। गांव में प्रवेश करते ही वल्कल पहने योगी, कौपीन धारण किए बटुक और घुटे हुए सिर के संन्यासी दिखाई दिए थे। ये सभी लोग स्वस्थ थे। प्रत्येक की आयु में बाल, युवा और वृद्ध जैसा अंतर था लेकिन शरीर सभी के सक्रिय और सक्षम थे।

कलाप का अद्भुत लोक

गांव में गुलाब की भीनी-भीनी सुगंध व्याप्त थी। लगता था जैसे किसी उद्यान में आ गए हों। जहां तहां सुगंधित फूलों के पौधे लगे थे। झाड़ियां भी थीं और क्यारियां भी। उपवननुमा इस बस्ती में कहीं कहीं हवन कुंड बने थे। कुछ संन्यासियों को एक जगह बैठा देखकर योगी और आचार्यश्री रुके। सबसे बुजुर्ग दिखाई दे रहे उन संन्यासियों में से एक ने हाथ उठाकर आचार्यश्री को आशीर्वाद दिया। उस संन्यासी का नाम सत्यानंद था।  इस तरह का वर्णन सुनकर हमें तो यह क्षेत्र  सिद्धक्षेत्र का ही आभास दे रहा है  तो मित्रो हम आज का लेख यहीं पर समाप्त करने की अनुमति लेते हैं और सन्यासी सत्यानंद की रोचक दिव्य कथा अगले लेख में प्रस्तुत करेंगें। 

जय गुरुदेव 

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