सुमेरु पर्वत क्षेत्र में गुरुदेव की निखिल और महावीर स्वामी के साथ भेंट 

23 अगस्त  2021 का ज्ञानप्रसाद – सुमेरु पर्वत क्षेत्र में गुरुदेव का निखिल और महावीर स्वामी के साथ भेंट 

परमपुज्य गुरुदेव की हिमालय यात्राओं पर जितना  भी लिखा जाये कम ही है ,इससे भी बड़ी बात यह है कि उसी चैप्टर को बार -बार पढ़ने  से  revision तो होता ही है , हर बार नई बातों का पता चलता है।  जो सहकर्मी  हमारे साथ पिछले वर्ष भी थे जानते होंगें कि  इसी तरह का एक लेख तब भी लिखा था। लेकिन आज इसमें और अधिक जानकारी डाल कर ठीक उसी प्रकार edit किया है जिस प्रकार  किसी पुस्तक का नया  एडिशन तैयार किया जाता है। अक्सर  हम लोग  केवल  टाइटल को देखते हैं और छोड़ देते हैं कि यह पुस्तक तो पहले ही पढ़ी हुई है।  लेकिन ऐसा नहीं होता है – लेखक हर बार, हर एडिशन में नई जानकारी देता है चाहे कितनी भी छोटी न हों।इस लेख में हम गुरुदेव के साथ गोमुख ,गंगोत्री ,सुमेरु पर्वत क्षेत्र में चलेंगें। 21000 फुट ऊंचाई पर स्थित यह वही सुमेरु पर्वत है जो पुराणों में वर्णित अमृत मंथन के समय प्रयोग किया गया था। 21000 फुट ऊंचाई को जब हम मीलों में  बदलते हैं तो लगभग चार मील बनते हैं , यह ऊंचाई लगभग उतनी ही  है जिस ऊंचाई  पर विमान  उड़ते हैं।  तो इतनी ऊंचाई पर गुरुदेव कैसे पहुंचे – एक कल्पना ही लगती है , हाँ यह कल्पना ही है ,लेकिन केवल  हमारे  लिए, गुरुदेव जैसी  सिद्ध आत्मा के लिए नहीं। आज के लेख में आप इस क्षेत्र का आईडिया लेने के लिए  एक वीडियो भी देख सकते हैं।    https://youtu.be/oT8vp8OMtrg

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निखिल की कहानी :

गुरुदेव को योगी अकेला छोड़ कर चला गया। गुरुदेव कितनी ही देर प्रकृति का सौंदर्य निहारते रहे। फिर उठ कर चलकदमी करने लगे। अभी तक तो योगी का साथ था ,अकेलेपन का ज़्यादा अनुमान न था। गुरुदेव उठे और चल पड़े। पहाड़ी के नीचे ढलान पर एक झोंपड़ी दिखाई दी। अभी कुछ पता नहीं चल रहा था कि किस तरफ जाना है। इसलिए झोंपड़ी ने अपनी ओर आकर्षित कर दिया। जब तक आगे जाने का कोई संकेत न मिले यहीं ठीक है। गुरुदेव को दादागुरु जैसे -जैसे निर्देश देते थे गुरुदेव बिना किसी प्रश्न के पालन करते रहे। समर्पण ही कुछ ऐसा था कि किन्तु -परन्तु की कोई सम्भावना ही नहीं। वस्त्र,दरी और लोटा झोंपड़ी के अंदर रख कर आस पास के वातावरण का निहारन करने निकल पड़े। भांति -भांति के फूल ,बर्फ से ढकी चोटियाँ ,और यहाँ वहां झरनों का मनोहर दृश्य किसी सौभाग्यशाली को ही प्रदान होता है। गुरुदेव फिर झोंपड़ी में आ गए ,पूजा आराधना के बाद सोने का प्रयास करने लगे। मार्गदर्शक का सानिध्य होने के बावजूद एक प्रश्न कचोट रहा था कि आगे क्या होगा। रात्रि गहराती जा रही थी परन्तु नींद थी कि आने का नाम तक नहीं था। करवटें बदलने से उचित समझा कि बाहर आकर प्रकृति से संवाद किया जाये। झोंपड़ी के सामने एक झरने के पास शिला के ऊपर बैठ गए। झरने के दूसरी तरफ देखा तो एक युवा सन्यासी बैठे साधना कर रहे थे। दृष्टि जाते ही साधक ने ऑंखें खोली और गुरुदेव को निहारा। वह उठ कर गुरुदेव के पास आया और प्रणाम किया। उसके प्रणाम करते ही पुरानी स्मृति ह्रदय में उतर आयी। गुरुदेव को साधक का कुछ ऐसे स्मरण हो आया जैसे चलचित्र हो। ऐसे लगा जैसे कि इस युवा सन्यासी ने किसी समय गुरुदेव के सानिध्य में साधना आरम्भ की हो और सन्यासी बन कर कहीं दूर चला गया हो। स्मृति पर थोड़ा ज़ोर डाला तो स्मरण हो आया कि दीक्षा का स्थान वाराणसी था। सन्यासी गुरुदेव की तरफ देख रहा था। गुरुदेव ने कहा, ” अरे निखिल तू यहाँ क्या कर रहा है ?” निखिल कहने लगा -गुरुदेव आपके बिना तो पत्ता तक नहीं हिल सकता तो आप ऐसा क्यों पूछ रहे हो ? गुरुदेव ने फिर पूछा – जिन सिद्धियों के लिए तुम साधना कर रहे थे वह मिली कि नहीं। निखिल को फिर हैरानगी हुई लेकिन दूसरे ही पल सब स्पष्ट हो गया। गुरुदेव ने कहा – अपने शरीर को स्फटिक ( quartz ) की भांति पारदर्शी बना कर तो दिखाओ। इसके कुछ पल बाद ही निखिल का शरीर शीशे की भांति पारदर्शी हो गया और आर पार दिखने लगा। अगले ही पल निखिल वायुभूत होने लगा ( हवा में उड़ने लगा ) और देखते ही देखते गुरुदेव की आँखों से ओझल हो गया। थोड़ी देर बाद निखिल की आवाज़ आयी कि मैं इस समय धरती से चार मील ऊपर चल रहा हूँ ,नीचे गंगोत्री बह रही है और मैं गोमुख की तरफ जा रहा हूँ । तभी थोड़ी देर पश्चात् निखिल नीचे आता दिखाई दिया ,आवाज़ आयी मैं अंजुली मैं गंगोत्री का जल लेकर आ रहा हूँ। तब गुरुदेव देखते हैं निखिल नीचे शिला पर आ गया ,उसने अंजुली में लिया जल गुरुदेव के श्री चरणों मैं अर्पित कर दिया और नतमस्तक खड़ा हो गया। गुरुदेव ने निखिल की पीठ थपथपाई और कहा इसको अपनी सफलता मत मानना ,ऐसे चमत्कार ऐन्द्रजालिक हैं। ऐंद्रजालिक या इन्द्रजालिक अक्षर देवताओं के राजा इंद्र से संबंधित है। राजा इंद्र को छली या मायावी माना गया है ,आज के युग मैं जिसे जादू कहा जाता है वही ऐन्द्रजाल है। गुरुदेव ने कहा अगर तुम अपने आप को परमात्मा के कार्यों में लगा सको तो अपने आप को अधिक भाग्यशाली अनुभव करोगे। निखिल ने गुरुदेव से पूछा मुझे क्या करना चाहिए ? गुरुदेव ने कहा :

” जितनी जल्दी हो सके यह प्रदेश छोड़ कर समाज में जाओ। वहां तुम जैसे प्रतिभावान मनुष्यों की ,निर्मल ,निश्छल ( innocent, जिसको छल कपट न आता हो ), ऊर्जावान आत्मायों की अत्यंत आवश्यकता है। तुम्हारे भीतर इस प्रकार की क्षमता है ,तुम इस क्षमता को मानवीय चेतना के  उत्थान और उन्नति के लिए लगाओ। वहीँ तुम्हारी एकांत साधना पूरी होगी “

जब हमारे पाठक इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं तो उन्हें दादा गुरु द्वारा हमारे पूज्यवर को ” बोओ और काटो ” वाला निर्देश अवश्य स्मरण हो आया होगा। जब दादा गुरु ने हमारे गुरुदेव को कहा था – भगवान के खेत में बोओ और काटो तो संकेत यही था कि यह संसार ही भगवान का खेत है। जैसे मक्की का एक बीज धरती माता का संरक्षण प्राप्त कर ,सूर्य पिता की ऊर्जा से सौ गुना अधिक परिणाम देता है ठीक उसी प्रकार भगवान के कार्य में दिया हुआ अपना योगदान कितने ही गुना होकर प्रकट होता है। इस तथ्य का जीवंत परिणाम हमारे सूझवान पाठकों के समक्ष 15 करोड़ गायत्री परिवार के साधकों के रूप में दर्शित है। उस महान आत्मा को , इतने सादगी भरे साधु को, जिनकी हम सब संतान हैं हमारा सदैव आभार एवं चरण स्पर्श रहेगा।

पांडुकेश्वर /पाण्डुक्य की कहानी :

निखिल के जाने के बाद गुरुदेव समेरु पर्वत से तपोवन जाने के लिए नीचे उतर रहे थे। रास्ते में एक अत्यंत छोटा सा गांव आया ,नाम था शायद पांडुकेश्वर। स्थानीय लोग इसे पाण्डुक्य कहते थे। महाभारत के प्रसिद्ध पात्र पाण्डु के साथ जुड़ा था यह गांव। इस बस्ती में सात परिवार थे। हिमपात के कारण पक्के मकान बनाने का रिवाज़ नहीं था। कच्चे मकान और झौंपडियां ही दिखाई दीं। इस बस्ती की तीसरी ढलान पर एक झोंपड़ी में से एक वृद्ध निकल कर आए। उन्होंने मामूली से वस्त्र पहने थे। गुरुदेव ने उनको हाथ जोड़े और उन वृद्ध ने गुरुदेव के अभिवादन का उत्तर दिया और स्वागत में गुरुदेव को कहा -आइये पधारिये ,स्वागत है महाभाग। स्वागत के उपरांत खुद ही अपना परिचय दे दिया। वह सन्यासी वृद्ध कहने लगे :

मैं चालीस वर्ष से यहाँ रह रहा हूँ। मेरे साथ एक साधक और भी हैं ,जगन्नाथ स्वामी। उनके इलावा पांच और परिवार हैं। उन्होंने अपना नाम महावीर स्वामी बताया। उनके कहने पर गुरुदेव महावीर जी की झोंपड़ी में अंदर आ गए। उन्होंने कुछ फल वगैरह अर्पण किये। आवभगत करते -करते बात भी कर रहे थे। उन्होंने कहा :

जब मनुष्य के भीतर कुंडलिनी जागृत होती है ,तब उसका वास्तविक जीवन आरम्भ होता है ,उससे पहले वाले जीवन को तो पाशविक ही कहना चाहिए। शास्त्रों मैं चौरासी लाख योनियों का वर्णन आता है लेकिन कोई आवश्यक नहीं कि मनुष्य शरीर इन सब को धारण करे। मनुष्य का शरीर रहते हुए भी मानव पशुओं वाली योनि में जी रहा होता है। उदाहरण के लिए मनुष्य का जीवन होते हुए भी मानव को व्यर्थ की चिंताएं घेरे रहती हैं। हर सुबह उठना ,खाना -पीना और दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या निपटाते हुए रात्रि को सो जाना और फिर एक और दिन। इसी तरह कई वर्ष बीत जाते हैं ,इस तरह के जीवन को गधे की योनि कहते हैं। कुत्ते ,बिल्ली ,चूहे जैसे लक्षण दिखने वाले मनुष्य इसी योनियों के कहे जा सकते हैं। कुण्डिलिनी जागृत होने के बाद सात जन्मों का प्रचलन है परन्तु अगर गुरु का अनुग्रह हो तो कोई आवश्यक नहीं कि सारे जन्म काटने हैं ,इससे पहले ही निर्वाण पाया जा सकता है। लेकिन सामान्य स्थिति में सात जन्म बदलने ही पड़ते हैं।

महावीर स्वामी ने कहा यह उनका छटा जीवन है ,अभी एक जन्म शेष है। सातों जन्मों की विवेचना करते हुए योगी ने बताया कि अगला जन्म करुणा और सहृदयता के गुण अधिक लेकर आता है। लेकिन अगर पूर्व जन्म का प्रभाव अधिक हो तो मानव पीछे की ओर खिंचा जाता है। सभी जीवनों की व्याख्या में पांचवें जीवन का महत्व सबसे अधिक बताया गया है। इस जन्म में मानव के मुख पर एक विशेष आभामंडल होता है ,मनुष्य योगी होते हुए भी गृहस्थ होता है और गृहस्थ होते हुए भी योगी होता है। उस व्यक्ति के जीवन के लोभ ,वासना का आवेग कदापि नहीं होता। इतना कह कर महावीर योगी चुप हो गए।

गुरुदेव देखते रहे कि महावीर स्वामी अपने इस छटे जीवन के बारे में या फिर कुंडलिनी जागरण के बाद के बारे में बताएंगें ,परन्तु उन्होंने गुरुदेव को कहा :

” आप तो मुझसे भी आगे की भूमिका में पहुँच चुके हैं , आप गृहस्थ हैं और जिस महाकार्य का दाइत्व लेकर संकल्पित हैं आपको तो एक दिन भी इधर उधर नहीं होना चाहिए पर आप निस्पृह ( इच्छारहित ) भाव से हिमालय का विचरण कर रहे हैं। यह निस्पृह भाव छटे जीवन से कम में नहीं आता “

महावीर स्वामी की कहानी भी हमारे गुरुदेव जैसी ही है। छोटी सी आयु में ही कृष्णानद नामक गुरु मिल गए थे , उन्होंने बचपन का स्मरण कराया। कहने लगे -तुम हाई स्कूल में पढ़ते होंगे तबसे हमारा -तुम्हारा सम्बन्ध है। तुम पिछले जन्म में मेरे पुत्र थे ,इस जन्म में मैंने गृहस्थ बसाया ही नहीं इसलिए तुम्हे ही पुत्र मान लिया। इसके बाद मेरे गुरु ने यहीं रहने का निर्देश दिया। आज चालीस वर्ष हो गए हैं इसी प्रदेश में रहते हुए। गुरु जी के दर्शन कभी भी नहीं हुए परन्तु सूक्ष्म संरक्षण प्रतिक्षण मिलता रहा है।

हमारे गुरुदेव कहने लगे ,” हमें भी दो -तीन दिन से अधिक कभी ही प्रतक्ष्य सानिध्य मिला हो लेकिन हमारी साँसों में ,हमारे जीवन को सूक्ष्म मार्गदर्शन आज तक मिल रहा है।” यह कह कर गुरुदेव पहाड़ के नीचे की तरफ चल पड़े। जय गुरुदेव 

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