14 अगस्त 2021 का ज्ञानप्रसाद: दान से देवत्व की प्राप्ति -ऑनलाइन ज्ञानरथ का उदेश्य
आज का ज्ञानप्रसाद कुछ हद तक फिलोसोफी लगता है लेकिन हमने उदाहरण देकर इसे रोचक और meaningful बनाने का प्रयास किया है। हर बार की तरह आज भी हम सभी को स्मरण करा दें कि रविवार को अवकाश रहेगा और सोमवार को छः मिंट की वीडियो प्रस्तुत करेंगें। परमपूज्य गुरुदेव के शिष्यों पंडित लीलापत शर्मा जी और शुक्ला बाबा पर आधरित यह वीडियो आपके गुरुदेव के बारे में उन रहस्यों पर प्रकाश डालेगी जिनका किसी पुस्तक में वर्णन नहीं है। हम आपसे निवेदन करते हैं कि इस वीडियो य आने वाली और भी वीडियो में डिस्क्रिप्शन अवश्य पढ़ें जो एक लेख की तरह ही होगा।
तो आइये ज्ञानगंगा में डुबकी लगाकर अपने जीवन को निर्मल और पवित्र करें।
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दान की शुरुआत किसी को कुछ देने से होती है और यह एक बहुत ही सामान्य-सी क्रिया जान पड़ती है, पर यह सामान्य दिखते हुए भी असामान्य है। ऐसा इसलिए क्योंकि दान व्यक्ति में देने की प्रवृत्ति पैदा करता है, “दान देते-देते व्यक्ति में देवत्व की प्रवृत्ति पैदा होने लगती है।” जिसकी शुरुआत हमने पुण्य पाने या बदले में कुछ पाने की आशा से शुरू की थी, वह कालांतर में हमारा स्वभाव बन जाता है। हमारे अंदर जो संकीर्णता थी, स्वार्थपरता थी वह देने के अभ्यास से धीरे-धीरे दूर होने लगती है, मिटने लगती है और “हमारे अंदर देवत्व की अविरल धारा बहने लगती है।” जैसे नदी के बीच में रखी बड़ी-बड़ी चट्टानों के हटते ही नदी में जल का प्रवाह उमड़ पड़ता है-वैसे ही दान देते-देते हमारे अंदर प्रेम का प्रवाह उमड़ पड़ता है, तब हमारे लिए किसी को कुछ देना कोई सामान्य-सी क्रिया मात्र नहीं रह जाती, बल्कि देना ही हमारा स्वभाव बन जाता है, देना ही हमारा संस्कार बन जाता है। किसी के आँसू पोंछकर, उसकी आँखों में आई चमक को देखकर, उसके चेहरे पर आई मुस्कान को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो याचक रूप में साक्षात् नारायण ही मुस्करा रहे हों और वे हमारे द्वारा अर्पित दान को साक्षात् प्रकट हो स्वीकार रहे हों। तब हमारा दान देना भी पूर्णतः निष्काम हो जाता है। वास्तव में “दान में ऐसी निष्कामता ही तो सर्वव्यापी परमात्मा की सच्ची पूजा है।”
प्रारंभ में दान देते हुए ऐसा जान पड़ता है, मानो हम किसी पर उपकार व एहसान कर रहे हों, पर निष्कामता आ जाने पर ऐसा जान पड़ता है, मानो ‘मैं’ का कांसेप्ट ही बिलकुल समाप्त हो गया बल्कि ऐसा लगता है कि वे जो मेरे दान को स्वीकार कर रहे हैं, वे मेरी वस्तु को, मेरी पूजा को, मेरी प्रतिभा को स्वीकार कर मुझ पर ही बहुत बड़ा उपकार व एहसान कर रहे हैं क्योंकि उनके कारण ही तो मेरे मन की मलिनता मिट रही है। चित्त शुद्ध हो रहा है। ऐसे में मन में भाव उमड़ता है कि मैं नर से नारायण होने की ओर अग्रसर हो चलूँ , मैं स्वयं के भीतर करुणा, प्रेम व संवेदना के उमड़ते हुए सागर से आनंदित होता चलूँ। तब ऐसा लगता है कि मेरी सेवा-सहायता को मनुष्य रूप में साक्षात् नारायण ही स्वीकार कर रहे हैं; क्योंकि
यह पूरा विश्व-ब्रह्मांड ही सर्वव्यापी परमात्मा का रूप है।
अस्तु ब्रह्मांड में की गई किसी की सेवा-सहायता भी साक्षात् ईश्वर की ही पूजा है। इसलिए हमें उन सबका ऋणी होना चाहिए, जो हमारी सेवा स्वीकार करते हैं ,ठीक उसी तरह हम भी अपने सहकर्मियों के ,अपने पाठकों के ,दर्शकों के ऋणी होते हैं जब हमारा प्रतिदिन का ज्ञानप्रसाद एक अविरल ज्ञानगंगा की भांति ,ज्ञानदान की भांति आपकी सुबह को जागृत और ऊर्जावान बनाते हुए हमें एक मानसिक शांति प्रदान करता है। आप हमारी इस तुच्छ सी सेवा प्राप्त कर, इसे आदर सम्मान देकर हमारे लिए आनंद का मार्ग प्रशस्त करते हैं। संसार में जो भी है वह सब भगवान का ही तो है। भगवान ने ही तो हमें कुछ प्रतिभा ,समय य परिश्रम दिया है और यह सब हमने संसार से ही तो पाया है। किस ने हमें प्रतिभा दे दी ,किसी ने हमें संस्कार दे दिए, परिस्थितियों ने हमें संवेदना दे दी ,समय ने हमें परिश्रम दे दिया- हमने सब कुछ यहीं से तो लिया है ,इस संसार से ही तो लिया है तो क्यों न संसार से
पाई गई वस्तु संसार को ही अर्पित कर संतुष्टि का आभास करें।अगर हमने सब कुछ संसार से ही लिया तो संसार को ही लौटा कर फूले क्यों समायें, इसमें हमारी बड़ाई कहाँ से आ गयी।, स्वयं के लिए कोई मान-बड़ाई क्यों चाहें? यही कारण है कि जब हमारे सहकर्मी हमारे कार्य की सराहना करते हैं तो हम केवल इतना ही सोचते हैं कि हमारा ऋण में कुछ कमी हुई है क्योंकि हम आप सबके बहुत ही ऋणी हैं जो हमारा ज्ञानप्रसाद ग्रहण कर रहे हैं।
एक राजा भी ऐसी ही दिव्य भावना के साथ हर दिन लोगों को दान दिया करता था, पर दान देते समय राजा अपनी नजरें झुका लिया करता था। एक बार एक व्यक्ति ने पूछा-“राजन्! आप दान देते समय अपनी नजरें क्यों झुका लेते हैं?” राजा ने कहा-“जब मैं किसी को दान देता हूँ, तो लोग मेरी जय-जयकार करते हैं। शायद उन्हें लगता है कि उन्हें दान मैं दे रहा हूँ, पर सच तो यह है कि मेरे पास जो भी है, सब भगवान का ही दिया हुआ है, इसलिए “असली दाता तो भगवान ही हैं, मैं नहीं, मैं तो निमित्त मात्र हूँ।” इसलिए लोगों के मुख से अपनी जय-जयकार सुनकर मुझे शरम आती है, इसलिए मैं नजरें झुका लेता हूँ।” वास्तव में यह कितनी महान व् उच्च भावना है। ऐसी भावना के साथ किया गया दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है और दाता के लिए मोक्षदायक है, मुक्तिदायक है, आनंददायक है। तभी तो स्वामी विवेकानंद कहा करते थे-“मैं उस प्रभु का सेवक हूँ जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं।” वास्तव में हमें भी अपना समय, श्रम, प्रतिभा, धन आदि का अर्पण, समर्पण, विसर्जन-
समाजरूपी, विश्वरूपी ईश्वर की सेवा में करना चाहिए। यह हमारे लिए अभीष्ट भी है और आनंददायी व कल्याणकारी भी।
हमारी भावना तो इससे भी आगे जाने को तत्पर रहती है। हम आपसे बार -बार कहते हैं कि गुरुदेव के साहित्य का ,गुरुदेव के विचारों का प्रचार-प्रसार करने में हमारी सहायता कीजिये, क्यों कहते हैं ऐसा ? यह इसलिए कि गंगा जी ने पृथ्वी पर आने से पूर्व भगीरथ से संकल्प लिया था कि तू आगे-आगे चल में पीछे-पीछे आती हूँ, वह माँ गंगा को गंगा सागर तक ले गए। हमने भी तो संकल्प लिया है और अपने गुरु को ,परमपूज्य गुरुदेव को विश्व के कोने-कोने में पहुंचा कर ही दम लेंगें। गुरुदेव कहते थे यह अखंड ज्योति पत्रिका लेकर क्षेत्र में जाओ ,परिवारों में जाओ ,लोगों के घरों में जाओ ,अपनत्व को भावना व्यक्त करो ,उनके बच्चों का हाल -चाल पूछो ,उनकी पढ़ाई का पूछो ,उनकी नौकरी का ,व्यवसाय का पूछो, तभी तो लगेगा हमारे परिवार का सदस्य आया है, नहीं तो केवल नाम का ही होगा “गायत्री परिवार” ठीक उसी प्रकार हमारा भी प्रयास रहता है कि हम भी अपने सहकर्मियों में अपनत्व की ,भाईचारे की भावना व्यक्त कर सकें।इसीलिए हम वॉइस कॉल, वीडियो कॉल करते रहते हैं, किसी की दुःख-चिंता में, दुविधा में सहकारी बन सकें ताकि हमारा ऋण और कम हो सके। It is just a credit -debit balance, लेन -देन का संतुलन।
एक गायक, संगीतकार, कलाकार अपने गायन, संगीत व कला के सहारे लोगों में करुणा, प्रेम व संवेदना का जागरण कर सकता है। आज देश में ऐसे ही गायकों व संगीतकारों की आवश्यकता है, जो अपने गायन से, संगीत से लोगों में अश्लीलता को नहीं, बल्कि inner excellence को stimulate कर सकें। । कहने का तात्पर्य यह है कि हम GOD-GIVEN प्रतिभा को बिकाऊ न होने दें, वरन उसे व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्वहित में अर्पित करते चलें। परहित में अर्पित, समर्पित प्रतिभा ही सर्वत्र पूजनीय होती है, वंदनीय होती है। बिकाऊ प्रतिभा पैसे दे सकती है, शोहरत दे सकती है, पर सम्मान, आत्मसंतोष, आत्मगौरव कदापि नहीं दे सकती। शास्त्रों में भी दान की बड़ी महिमा गाई गई है। वेद की तो स्पष्ट उद्घोषणा ही है “शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर” अर्थात सौ हाथों से धन अर्जित करो और हजार हाथों से उसका दान करो। वहीं श्रीमद भागवगीता की स्पष्ट घोषणा है कि जो खुद कमाता है और खुद ही खाता है तो वह पाप को ही खाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परहित में अर्पित-समर्पित जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है, वरना अपने पेट व परिवार के लिए तो पशु-पक्षी भी जी लेते हैं। देना तो हमें प्रकृति भी हर-पल सिखाती है। सूर्य अपनी रोशनी, फूल अपनी खुशबू, वृक्ष अपने फल, नदियाँ अपना जल, धरती अपना सीना छलनी करके भी दोनों हाथों से हमें अन्न, जल, औषधि, फल आदि सब कुछ देते हैं। इसके बावजूद न तो सूर्य की रोशनी कभी कम हुई, न फूलों की खुशबू, न वृक्षों के फल कम हुए और न ही नदियों का मीठा जल। सूर्य समुद्र का जल सोखता है, तो उसी जल से पुन: पृथ्वी को तर भी कर देता है, तृप्त भी कर देता है। एक से लेकर दूसरे को और दूसरे से लेकर पहले को देना ही सृष्टि का काम है। प्रकृति का यह शाश्वत नियम है कि हम प्रकृति को जो कुछ भी देते हैं, उसे वह कई गुना अधिक करके वापस दे देती है। खेत में हम एक बीज बोते हैं और उसके हजारों बीज बनाकर हमें प्रकृति वापस कर देती है। विज्ञान का भी यह नियम है कि हर क्रिया के प्रति और विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है। To every action there is equal and opposite reaction( Newton’s law of motion) यहाँ तो equal से अधिक ही हो रहा है। दान के रूप में हम जो भी खुशियाँ व आनंद दूसरों को देते हैं, वह आनंद और खुशियाँ कई गुना अधिक होकर हमें मिल जाती हैं। दान, परोपकार, त्याग आदि से मिलने वाले आत्मिक आनंद के पीछे भी यही कारण है। आइए हम भी बढ़ चलें दान से देवत्व की ओर ।
जय गुरुदेव
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो।