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सिद्धाश्रम  की  संसद ने ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का संचालन किया।(सर एलन आक्टेवियन ह्यूम )

13 अगस्त 2021 का ज्ञानप्रसाद –    सिद्धाश्रम  की  संसद ने ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का संचालन किया।

कल वाले लेख में हमने ज्ञानगंज/ सिद्धाश्रम यं सिद्धक्षेत्र समझने का प्रयास किया। जितना भी ज्ञान उस में प्राप्त हुआ ,कितना समझ आया  यह तो कहना कठिन है लेकिन एक बात तो सत्य है कि इस क्षेत्र की समझ  मानवीय स्तर से कहीं ऊँची है।  इन क्षेत्रों को पारलौकिक (transcendental) दृष्टि से ही देखा जा सकता है ,सिद्ध पुरुष ,सिद्ध आत्माएं ही इसके विषय  कह सकती हैं जैसे कि हमारे परमपूज्य गुरुदेव। आज के लेख में जिस व्यक्तित्व का वर्णन किया जा रहा है उनका देहांत 31 जुलाई 1912 को हो चुका  था जब परमपूज्य गुरुदेव की आयु केवल 10 माह  थी।  परमपूज्य गुरुदेव का जन्म आंवलखेड़ा आगरा में 20 सितम्बर 1911 को हुआ था।  अगर भौतिक calculation  से  जाएँ तो गुरुदेव का उनके साथ तो  कोई सम्बन्ध ही नहीं होना चाहिए  लेकिन जो हम आज इस लेख में लिख रहे हैं  वह केवल आध्यात्मिक ,पारलौकिक,आंतरिक,  दृष्टि ही है जिसके माध्यम से गुरुदेव सब देख रहे हैं  और देख भी कब रहे हैं 1975 में , सर ह्यूम की मृत्यु के 63 वर्ष बाद।  हमें तो यह दिव्य दृष्टि लगती है , आप भी इसका विश्लेषण कीजिये और कमैंट्स के द्वारा अपने-अपने विश्लेषण  शेयर कीजिये। हम अखंड ज्योति के आभारी हैं जिसमे यह लेख प्रकाशित हुआ और हमें इसका विश्लेषण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।     


1975 की दीपावली बीत चुकी थी। हवाएँ सर्द और हिमालय की तराई में बरफीली होने लगी थीं। शांतिकुंज से दूर पहाड़ियों पर यदा-कदा बरफीली चादर दिखाई देती। ये दृश्य शांतिकुंज परिसर से भी दिखते थे। कभी वास्तव में और कभी कल्पना में। कल्पना में इसलिए कि सुबह के कुहासे को चीरता हुआ सूरज जब पूर्व दिशा में अपनी किरणें बिखेरता तो प्रतीत होता था कि बरफ फैल रही है। नहीं होने पर भी आभास तो मिलता ही कि एक श्वेत धवल चादर तन रही है।

कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि रही होगी। शांतिकुंज के बाहर और पीछे सड़क पर गायों के झुंड निकल रहे थे। सजी-धजी गायों के गले में बँधी घंटियाँ बिना किसी लय-ताल के बजती और वातावरण में संगीत बिखेर देतीं। उस दिन गोपाष्टमी थी। आस-पास के आश्रमों में गो-पूजा का उत्सव मनाया गया। पूजा के बाद गायें और उनके सेवक अर्चक नित्य कार्यों में लग गए थे। आश्रमों में बने अर्चागहों में आरती स्तवन के स्वर गूंजने लगे थे।

जो लोग तीर्थ सेवन और गंगा दर्शन के लिए आए थे, वे अपने-अपने आश्रम से निकलने लगे। राह चलते हुए वे जो भजन गाते और स्तुतिगान करते थे उनकी गुनगुनाहट वृक्षों पर चहचहाने वाले पक्षियों, उनके शावकों और घोंसला छोड़कर उड़ने की तैयारी कर रहे पखेरुओं के स्वरों से मिलकर मधुर राग छेड़ देती।

शांतिकुंज में गुरुदेव ने उस दिन का लेखन कार्य संपन्न किया और कंधों पर ओढ़ी, तह कर रखी हुई शाल खोली। उसे लपेटकर वे कक्ष से बाहर निकले और बाहर बरामदे में चहलकदमी करने लगे। कुछ कदम ही चले होंगे कि उनका ध्यान आकाश में तैरते हुए एक बादल के टुकड़े की ओर गया। वह टुकड़ा जैसे गुरुदेव के पास ही उड़ा चला आ रहा था। इस तरह उड़ रहा था, जैसे पग-पग चल रहा हो। पास आते-आते वह आकार लेने लगा। बरामदे के बाहर आकर रुक गया और मानवीय आकार लेने लगा। कुछ ही क्षणों में वहाँ एक वायवीय शरीर (pneumatic body )उभरने लगा।

आकृति धीरे-धीरे स्पष्ट हुई। उन्नीसवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों जैसी वेशभूषा में एक अधेड़ अँगरेज व्यक्तित्व सामने हवा में खड़ा था। चेहरे पर घनी-लंबी मूंछे। सिर पर थोड़े से बाल और हलकी दाढ़ी वाला यह व्यक्ति ऊँचे पूरे कद का था। गुरुदेव ने उस पुरुष छाया को पहचानते हुए अभिवादन में हाथ उठाया। उस पुरुष आकृति ने झुककर प्रणाम किया और अपना परिचय देने के लिए ओंठ खोले ही थे कि गुरुदेव ने कहा-“आइए ह्यूम   साहब। भीतर आ जाएँ। आपका स्वागत है।”

वह आकृति बरामदे में उतर आई। गुरुदेव ने उन्हें अपने कक्ष में आमंत्रित किया और अपने साथ ले जाते हुए यह भी कहा कि आपके आगमन की सूचना मिल गई थी। सुबह  नौ-दस बजे तक आपके आने की संभावना थी। प्रयोजन भी स्पष्ट था। सिर्फ आपसे मिलना बाकी था। वह साध भी पूरी हो रही है।

गुरुदेव के बताए स्थान पर बैठते हुए ह्यूम ने थोड़ा संकोच जताया। कहा कि साध तो मेरी पूरी हो रही है गुरुदेव। आपकी कृपा से हम लोगों ने सौ साल पहले जो काम शुरू किया था, वह आपके मार्गदर्शन में ही पूरा हो रहा है। ह्यूम के वायवीय शरीर ने गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया और आश्वस्त-सा होते हुए कहा कि आपसे आज की मुलाकात के बाद हम लोग विश्राम से सो सकेंगे। मैडम ने हम अंतरंग पार्षदों को जो दायित्व सौंपा है, वह भी पूरा हो सकेगा।

इस प्रसंग को कुछ पल के लिए विराम देकर flashback  में चला जाए। जिस वायवीय शरीर का यहाँ उल्लेख किया गया है, वह 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करने वाले सर एलन आक्टेवियन ह्यूम (1829-1912) का था। ब्रिटेन में जन्मे ह्युम ने भारत में बंगाल सिविल सर्विस से अपना कामकाजी जीवन शुरू किया और 1882 में रिटायर होने तक वे विभिन्न प्रशासनिक पदों पर रहे। कामकाजी जीवन के दौरान उन्होंने अनुभव किया कि सरकार के क्रियाकलापों, नीतियों और फैसलों से जनता में असंतोष फैल रहा है। इस असंतोष को संगठित करने के लिए उन्होंने समकालीन ( contemporary)  सामाजिक और राजनीतिक विभूतियों के साथ मिलकर काम शुरू किया। सन् 1884 के अंत में उन्होंने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और व्योमेशनाथ बनर्जी के साथ मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का निश्चय किया। साल भर घनघोर प्रयत्न करने के बाद उन्होंने तथा दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले आदि ने साथ मिलकर दिसंबर 1885 में कांग्रेस की स्थापना कर ली।

ए.ओ. ह्यूम के बारे में प्रसिद्ध है कि वे शरीर से भले ही भारतीय न हों, लेकिन उनकी काया में भारतीय आत्मा का निवास था।” भारत और भारतीय समाज के प्रति उनके लगाव को देखकर यह स्थापित हो चुका था कि उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए अँगरेज सरकार से भारतीयों को उनके अधिकार दिलाने की भरपूर चेष्टा की। उन्होंने यह बताने की चेष्टा भी की कि भारत के लोग अपने देश का प्रबंध सँभालने में सक्षम हैं। उन्हें भी सरकारी नौकरियों और प्रशासनिक सेवाओं में समानता मिलनी चाहिए।

यह तो ह्यूम के व्यक्तित्व का प्रशासनिक और राजनीतिक पक्ष था। दूसरा पक्ष आंतरिक और आध्यात्मिक है, जिसकी कम ही चर्चा होती है। इस पक्ष के संबंध में सूचना है कि गरमियों में ह्यूम ने अपने शिमला स्थित निवास में गोपनीय दस्तावेजों की सात बड़ी-बड़ी पुस्तकें  पढ़ी थीं। तब ह्यूम सरकारी सेवा से रिटायर हो चुके थे। इन दस्तावेजों के बारे में कहा जाता है कि शासनतंत्र ने इन्हें जिलास्तर की शाखाओं में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर तैयार किया था।

इन दस्तावेजों के बारे में  गिरिजा मुखर्जी, गुरुमुख निहालसिंह, लाला लाजपत राय और रजनी पामदत्त आदि विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से टिप्पणी की है। कुछ के अनुसार इनमें अँगरेजों के प्रति भारतीय समाज में बढ़ रहे रोष की सूचना थी, कुछ के अनुसार लोगों द्वारा ब्रिटिश सरकार को धोखा देने और अपना अलग स्वायत्त तंत्र विकसित कर लेने की जानकारी थी। ए. ओ. ह्यम के उस अध्ययन के बारे में प्रामाणिक जानकारी उनके समकालीन ब्रिटिश अधिकारी सर विलियम वेडरबर्न  ने दी थी

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय मुंबई (तब बॉम्बे) हाईकोर्ट में जज रहे और बाद में मुंबई सरकार के मुख्य सचिव बनकर रिटायर हुए वेडरबर्न  ह्यूमके अच्छे दोस्त थे। उन्होंने ह्यूम की जीवनी में लिखा है कि शिमला में बैठकर उन्होंने जो दस्तावेज देखे थे, उनमें देश भर में फैले मठों, महात्माओं और उनके शिष्यों के अलावा सिद्ध संतों के बारे में पर्याप्त सूचनाएँ थीं। उनकी गतिविधियों के अलावा भारत के भविष्य के बारे में उनकी योजनाओं और अंतर्दर्शन के बारे में भी काफी सूचनाएँ थीं।

इन सूचनाओं के आधार पर वेडरबन ने लिखा है कि  ह्यूम  का ऐसे महात्माओं से संपर्क था, जो कंदराओं में रहकर रहस्यमय साधनाएँ करते रहते थे। वे कहीं भी आ-जा सकते थे, लेकिन लोगों को दिखाई नहीं देते। वे अदृश्य रहते और संसार में किसी भी व्यक्ति, जीव और यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं से भी संवाद कर सकते थे।

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सिद्धों से संचालित संग्राम

थियोसोफिकल सोसाइटी, का एक प्रतिनिधि कूट हूमीलाल सिंह इन महात्माओं से मिलने के लिए जाया भी करता था। थियोसोफिकल सोसाइटी एक अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिक संस्था है। ‘थियोसोफी ग्रीक भाषा के दो शब्दों “थियोस” तथा “सोफिया” से मिलकर बना है जिसका अर्थ हिंदू धर्म की “ब्रह्मविद्या”, ईसाई धर्म के ‘नोस्टिसिज्म’ अथवा इस्लाम धर्म के “सूफीज्म” के समकक्ष किया जा सकता है। सोसाइटी में मास्टर कूट हूमी के नाम से प्रसिद्ध इस प्रतिनिधि ने उन अशरीरी महात्माओं के हवाले से लिखा था कि सिद्धों की उस संसद ने ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का संचालन किया। जिन क्रांतिकारियों और योद्धाओं को उन्होंने अपना माध्यम बनाया था, उन्होंने सिद्धों के निर्देशों का पूरी तरह पालन किया। संग्राम के जो परिणाम सामने आए  सिद्धपुरुष उससे संतुष्ट थे। इतिहास में वह संग्राम भले ही विफल लिखा गया हो, लेकिन सिद्ध पुरुष उसे वहीं तक ले जाना चाहते थे। वे चाहते तो इसे आगे तक ले जा सकते थे, पर उनकी दृष्टि में भारतीय जनमानस इससे आगे के परिवर्तन झेलने के लिए तैयार नहीं था। पूर्ण स्वराज्य  या नए राष्ट्र राज्य की स्थापना के लिए उनके अनुसार नब्बे वर्ष का एक चक्र पूरा होना आवश्यक था। और वह चक्र पूरा हुआ भी सही।

उस समय के उपलब्ध सोसाइटी के दस्तावेज बताते हैं कि कूट हूमी जैसे कई प्रतिनिधि सिद्ध महात्माओं के संपर्क में थे और वे  ह्यूम को उनकी योजनाओं के बारे में बताया करते थे। उन सूचनाओं के आधार पर और अपने प्रत्यक्ष संपर्कों से मिली जानकारी के अनुसार ह्यूम ने नवंबर 1886 में लार्ड डफरिन को लिखा था कि “भारत परिवर्तन के लिए तैयार हो रहा है। भविष्य में वह नए विश्व के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाएगा। इस देश में मौजूद अँगरेजी राज उस भूमिका के लिए तैयार करने का एक छोटा-सा दायित्व ही पूरा कर रहा है। जिस दिन वह दायित्व पूरा हो जाएगा, अँगरेज यहाँ एक मिनट भी नहीं रह सकेंगे। इसलिए ब्रिटेन को यह नहीं सोचना चाहिए कि इस देश पर शासन करना अथवा यहाँ का मालिक होना उसकी नियति है।”

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं  कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव

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