9 अगस्त 2021 का ज्ञानप्रसाद – मृत्यु के नाम सन्देश लिखने वाले स्वामी रामतीर्थ
मर्यादा पुरषोतम श्रीराम को कौन नहीं जानता,हमारे सबके परमपूज्य गुरुदेव श्रीराम हमारे लिए क्या हैं, हम सब जानते हैं। आज के ज्ञानप्रसाद में हम अपने सहकर्मियों के लिए एक ऐसे श्रीराम की कहानी लेकर आए हैं जिन्हे स्वामी राम (स्वामी राम तीर्थ ) के नाम से जानते हैं। विश्वगुरु स्वामी विवेकानंद (1863 -1902 ) से केवल दस वर्ष छोटे स्वामी रामतीर्थ (1873 -1906 ) का जीवन मात्र 33 वर्ष का था। इस छोटे से जीवन में ही उन्होंने जापान ,मिस्र ,अमेरिका और सम्पूर्ण विश्व भर में वेदांत को जागृत किया। 1893 में स्वामी विवेकानंद ,1902 में स्वामी राम तीर्थ और 1920 में परमहंस योगानंद USA में हिन्दू धर्म पर व्याख्यान देने वाले पहले उल्लेखनीय शिक्षक रहे हैं। हमारे पाठक जानते हैं कि हम हर किसी लेख को अत्यंत श्रद्धा और समर्पण से तैयार करते हैं। हमने बहुत प्रयास किया कि वेदांत शब्द जिसे हम प्रीतिदिन सुनते आ रहे हैं , सरल भाषा में आपके समक्ष लाया जाये लेकिन इस पर और अधिक कार्य करने की आवश्यकता है। आज का लेख दो भागों में प्रस्तुत किया जायेगा। कल वाले भाग दो में मई 1996 की अखंड ज्योति का सहारा लेकर सच्चिदानंद को समझने का प्रयास करेंगें और “सम्पूर्ण आनंद की प्राप्ति” में स्वामी राम जी का मार्गदर्शन मिलेगा। आखिर हम सब जीवन पर्यन्त इसी आनंद की प्राप्ति के लिए ही तो मृगतृष्णा में भटक रहे हैं।
तो आइये चलें स्वामी रामतीर्थ जी के संग और देखें कैसे प्रोफेसर तीर्थराम से स्वामी रामतीर्थ बने।
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स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् 1873 की दीपावली के दिन पंजाब के गुजरावालां जिले मुरारीवाला ग्राम में पण्डित हीरानन्द गोस्वामी के एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जब वह केवल कुछ ही दिन के थे उनकी माता का देहांत हो गया और उनके बड़े भाई गोस्वामी गुरुदास ने उनका पालन पोषण किया। इनका बचपन का नाम तीर्थराम था। विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक बदहाली के बीच भी उन्होंने अपनी माध्यमिक और फिर उच्च शिक्षा पूरी की। जब वह केवल 10 ही वर्ष के थे तो पिता ने उनका विवाह भी कर दिया था। वे उच्च शिक्षा के लिए लाहौर चले गए। सन् 1891 में पंजाब विश्वविद्यालय की बी० ए० परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वप्रथम आये। इसके लिए इन्हें 90 रुपये मासिक की छात्रवृत्ति भी मिली। अपने अत्यंत प्रिय विषय गणित में सर्वोच्च अंकों से एम० ए० उत्तीर्ण कर वे उसी कालेज Forman Christian College में गणित के प्रोफेसर नियुक्त हो गए। वे अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिये दे देते थे। इनका रहन-सहन बहुत ही साधारण था। लाहौर में ही उन्हें स्वामी विवेकानन्द के प्रवचन सुनने तथा सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिला। उस समय वे पंजाब की सनातन धर्म सभा से जुड़े हुए थे। लाहौर की सनातन धर्म सभा के तत्वावधान में भक्ति पर व्याख्यान देते थे।1899 में दीपावली वाले दिन प्रो॰ तीर्थराम ने लाहौर से अन्तिम विदा ली।अपनी पत्नी,दो बच्चे और कुछ अन्य लोग उनके साथ हिमालय गए। अलकनन्दा व भागीरथी के पवित्र संगम पर पहुंचकर उन्होंने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया। टिहरी के समीप पहुँचकर नगर में प्रवेश करने के बजाय वे कोटी ग्राम में शाल्माली वृक्ष के नीचे ठहर गये। ग्रीष्मकाल होने के कारण उन्हें यह स्थान सुविधाजनक लगा। मध्यरात्रि में प्रो॰ तीर्थराम को आत्म-साक्षात्कार हुआ। उनके मन के सभी भ्रम और संशय मिट गये। उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया और “वह प्रो॰ तीर्थराम से रामतीर्थ हो गये।” उन्होंने द्वारिका पीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केश व मूँछ आदि का त्यागकर सन्यास ले लिया। तबीयत खराब होने के कारण उनकी पत्नी बाद में अपने एक बेटे के साथ लौट आई। दूसरे को स्कूली शिक्षा के लिए टिहरी में छोड़ दिया। 1902 में स्वामी विवेकानंद के समाधि लेने से कुछ ही दिन पहले स्वामी राम तीर्थ ने संन्यास ले लिया था। द्वारका मठ के स्वामी माधव तीर्थ ने पहले ही उन्हें जब चाहें संन्यास लेने की अनुमति दे दी थी। कुछ साल बाद वे पहाड़ों से मैदानों में प्रचार करने के लिए लौट आए। उनकी उपस्थिति का प्रभाव अद्भुत था। उनके संक्रामक आनंद और ओम की कूक ने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।

राम तीर्थ ने अपने आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत भगवान के भक्त के रूप में की और फिर श्री माधव तीर्थ की प्रेरणा से अध्ययन करते हुए वेदांत की ओर रुख किया। विवेकानंद ने उनके आध्यात्मिक जीवन को एक महान प्रोत्साहन दिया, जिन्हें उन्होंने पहली बार लाहौर में देखा था। जब उन्होंने इस महान स्वामी को एक संन्यासी के रूप में देखा तो स्वामी जी के इस रूप ने उनमें गेरू वस्त्र धारण करने की लालसा जगा दी। इसके उपरांत सर्वव्यापी भगवान के दर्शन के लिए उनका जुनून और अधिक बढ़ने लगा और यह जुनून भगवान के साथ एकता के लिए तरस गया । भोजन और कपड़ों के प्रति उदासीन स्वामी राम हमेशा परम आनंद से भरे रहते थे।अक्सर उनके गालों के नीचे एक अश्रुधारा बहती रहती थी। स्वामी राम जीवित वेदांती थे। उन्होंने सभी नामों और रूपों में भगवान को देखा और महसूस किया।उन्होंने हमेशा खुद को third person के रूप में रैफर किया, जो कि अहंकार से खुद को अलग करने के लिए हिंदू धर्म में एक सामान्य साधना है। जैसे हम अक्सर सुनते आते हैं कि हर कोई बकरे की तरह “मैं,मैं” करता रहता है। इसका उदाहरण हम ऐसे दे सकते हैं :
For everything Swami Ram used to say : HE DOES THAT -GOD DOES THAT. But the majority of the people say: I did that . उनके सुंदर शब्द अक्सर पेड़ों, नदियों और पहाड़ों को संबोधित किए जाते हैं।
विदेश-यात्रा
स्वामी रामतीर्थ ने सभी बन्धनों से मुक्त होकर एक संन्यासी के रूप में घोर तपस्या की। प्रवास के समय उनकी भेंट टिहरी रियासत के तत्कालीन नरेश कीर्तिशाह से हुई। टिहरी नरेश पहले घोर नास्तिक थे। स्वामी रामतीर्थ के सम्पर्क में आकर वे भी पूर्ण आस्तिक हो गये। महाराजा ने स्वामी रामतीर्थ के जापान में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में जाने की व्यवस्था की। वे जापान से अमरीका तथा मिस्र भी गये। विदेश यात्रा में उन्होंने भारतीय संस्कृति का उद्घोष किया तथा विदेश से लौटकर भारत में भी अनेक स्थानों पर प्रवचन दिये। उनके व्यावहारिक वेदान्त पर विद्वानों ने सर्वत्र चर्चा की। स्वामी रामतीर्थ ने जापान में लगभग एक मास और अमेरिका में लगभग दो वर्ष तक प्रवास किया। वे जहाँ-जहाँ पहुँचे, लोगों ने उनका एक सन्त के रूप में स्वागत किया। उनके व्यक्तित्व में चुम्बकीय आकर्षण था, जो भी उन्हें देखता वह अपने अन्दर एक शान्तिमूलक चेतना का अनुभव करता। दोनों देशों में राम ने एक ही संदेश दिया-“आप लोग देश और ज्ञान के लिये सहर्ष प्राणों का बलिदान कर सकते हैं। यह वेदान्त के अनुकूल है। पर आप जिन सुख साधनों पर भरोसा करते हैं उसी अनुपात में इच्छाएँ बढ़ती हैं। शाश्वत शान्ति का एकमात्र उपाय है आत्मज्ञान। अपने आप को पहचानो, तुम स्वयं ईश्वर हो।” डॉ अल्बर्ट हिलर के आतिथ्य के तहत San Francisco में उन्हें बहुत सम्मान मिला और कई समाज संगठन शुरू किए, उनमें से एक Hermetic Brotherhood था, जो वेदांत के अध्ययन के लिए समर्पित था। उनके आकर्षक व्यक्तित्व का अमेरिकियों पर बहुत प्रभाव पड़ा। धर्मनिष्ठ अमेरिकियों ने उन्हें living Christ के रूप में भी देखा। उन्होंने अक्सर भारत में जाति व्यवस्था के अधर्म और महिलाओं और गरीबों की शिक्षा के महत्व के बारे में बात करते हुए कहा कि “महिलाओं ,बच्चों और कामकाजी वर्गों की शिक्षा का अनादर करना उन शाखाओं को काटने जैसा है। यह राष्ट्रीयता के पेड़ की जड़ों को मौत के घाट उतारने जैसा है। यह तर्क देते हुए कि भारत को शिक्षित युवाओं की जरूरत है, मिशनरियों की नहीं, उन्होंने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों की सहायता के लिए एक संगठन शुरू किया और भारतीय छात्रों के लिए कई छात्रवृत्तियां स्थापित करने में मदद की।
टिहरी (गढ़वाल) से उन्हें अगाध स्नेह था। वे पुन: यहीं लौटकर आये। टिहरी उनकी आध्यात्मिक प्रेरणास्थली थी और वही उनकी मोक्षस्थली भी बनी। 17 अक्टूबर 1906 को दीपावली के दिन उन्होंने मृत्यु के नाम एक सन्देश लिखकर गंगा में जलसमाधि ले ली। उस समय उनकी आयु केवल 33 वर्ष की थी।
To be continued
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव