
30 जुलाई 2021 का ज्ञानप्रसाद – उदाहरणों के साथ विचार क्रांति ( सुनसान के सहचर )
कौन हैं गुरुदेव के सहचर ?
आदरणीय मृतुन्जय भाई साहिब के अनुसार शुक्ला बाबा की स्थिति अभी भी उसी तरह बनी हुई है। हम सब गुरुदेव के चरणों में शुक्ला बाबा के लिए आयुदान के पुष्प समर्पित कर रहे हैं।
एक सप्ताह पूर्व संजना बेटी की अपलोड हुई “प्रकृति “ वीडियो आप सबने देखी , इस वीडियो में कितनी वेदना है । आजकल के लेखों को पढ़ने के उपरांत इस वीडियो की महत्ता और भी बढ़ जाती है। जिस प्रकृतिक और दिव्य वातावरण की बात हम कर रहे हैं , जहाँ कभी हनुमान जी ने संजीवनी बूटी खोज करके लक्ष्मण जी की जान बचाई थी, इसी वातावरण में पूज्यवर के जो सहचर थे, कैसे हम अंधाधुंध, बिना सोचे समझे इतने पवित्र ,पावन, खूबसूरत वातावरण को तहस -नहस कर चुके हैं ,केवल अपने स्वार्थ के लिए। यह है इस बुद्धिमान, परमपिता परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति का कारनामा। विकिपीडिया में संजीवनी बूटी का स्थान फूलों की घाटी बताया गया है। लेकिन प्रकृति ,सृष्टि यह विनाश चुपचाप सहन नहीं कर रही है , हम सभी उसके दंड भुगत रहे हैं चाहे वह दंड किसी भी शक्ल में हमारे सामने आएं। आने वाली कितनी पीडियां यह दंड भुगतेंगी कोई नहीं जानता। हमारे विचारों में क्रांति लाने की आवश्यकता है ,केवल कहने से नहीं ,रटने से नहीं ,प्रचार -प्रसार के उद्घोष से ही नहीं ,कुछ ठोस करने की आवश्यकता है। वृक्षारोपण का कार्य अत्यंत सराहनीय है लेकिन इसमें भी कुछ experts की सहायता से पौधों का एवं जगह का चयन करने की आवश्यकता है। परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी एक वीडियो में eucalyptus का वर्णन किया हुआ है।
परमपूज्य गुरुदेव बता रहे हैं : आज कुटिया से बाहर निकलकर इधर- उधर भ्रमण करने लगा तो चारों ओर सहचर दिखाई देने लगे। विशाल वृक्ष पिता और पितामह जैसे दिखने लगे। ऊँचे लम्बे भोजपत्र के पेड़ ऐसे लगते थे, मानों गेरुआ कपड़ा पहने कोई तपस्वी महात्मा खड़े होकर तप कर रहे हों। भोजपत्र वही अमूल्य पेड़ हैं जिनके पत्तों पर कभी हमारे ऋषियों ने धार्मिक ग्रन्थ लिखे थे। आज के लेख में हम आपके समक्ष एक पिक्चर भी लाये हैं जिसमें आप गेरुआ रंग तो देख ही रहे हैं साथ में इस पेड़ के तने से कागज़ जितना पतला भाग भी उत्तर रहा है। एक और चीज़ देखने वाली यह है कि सृष्टि ने स्वयं ही एक नोटबुक के पन्नों की तरह इन पत्रों पर भी लाइनें लगाई हुई हैं। अगस्त्य मुनि महाविद्यालय रुद्रप्रयाग के प्राचार्य और प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी प्रोफेसर जी एस रजवार का मानना है कि यह पेड़ अति दुर्लभ हैं और सिर्फ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पैदा होते हैं। उन्होंने चिंता भी जताई है कि climate change के फलस्वरूप यह अमूल्य पेड़ लुप्त हुए जा रहे हैं। भोजपत्र की medicinal value तो है ही लेकिन जिस कारण यह हमारे ग्रंथ लिखने के काम आता था वह है इसका अद्भुत lifespan .
गुरुदेव आगे कहते हैं : देवदारु और चीड़ के लम्बे लम्बे पेड़ सिक्योरिटी गार्ड की तरह सावधान खड़े थे, मानों मनुष्य जाति में प्रचलित दुर्बुद्धि को अपने समाज में न आने देने के लिए कटिबद्ध रहने का व्रत उनने लिया हुआ हो। छोटे-छोटे फूलों के गुच्छे नन्हें-मुन्ने बच्चे-बच्चियों की तरह पंक्ति बना कर बैठे थे। वायु के झोंकों के साथ हिलते हुए ऐसे लगते थे मानों प्रारम्भिक पाठशाला में छोटे-छोटे छात्र सिर हिला- हिला कर पहाड़े ( tables) याद कर रहे हों। पल्लों पर बैठे हुए पशु- पक्षी मधुर स्वर में ऐसे चहक रहे थे, मानों यक्ष- गन्धर्वो की आत्माएँ खिलोने जैसे सुन्दर आकार धारण करके इस वन श्री का उद्गम गुणगान और आभिवन्दन करने के लिए ही स्वर्ग से उतरे हों। किशोर बालकों की तरह हिरन उछल-कूद मचा रहे थे। जंगली भेड़ें ऐसी निश्चिन्त होकर घूम रही थी मानों इस प्रदेश की गृहलक्ष्मी यही हों। मन बहलाने के लिए चाबीदार कीमती खिलौने की तरह छोटे- छोटे कीड़े पृथ्वी पर चल रहे थे। उनका रंग,रूप, चाल-ढाल सभी कुछ देखने योग्य था। उड़ते हुए पतंगे, फूलों के सौन्दर्य से मुकाबला कर रहे थे ,जैसे कह रहे हों हम में से कौन अधिक सुन्दर और कौन अधिक असुन्दर है। नवयौवन का भार जिससे सम्भलने में न आ रहा हो, ऐसी इतराती हुई पर्वतीय नदी बगल में ही बह रही थी। उसकी चंचलता और मतवालापन का सीन देखते ही बनता था। गंगा में और भी नदियाँ आकर मिलती हैं। “मिलन के संगम पर ऐसा लगता था मानो दो सहोदर बहिनें ससुराल जाते समय गले मिल रही हो, लिपट रही हों।” पर्वतराज हिमालय ने अपनी पुत्रियों (नदियों) का विवाह समुद्र के साथ किया हो। ससुराल जाते समय बहिनें कितनी आत्मीयता के साथ मिलती हैं सड़क पर खड़े-खड़े इस दृश्य को देखते-देखते जी नहीं भरता, लगता है हर घड़ी इसे देखते ही रहें। वयोवृद्ध राजपुरुषों और लोकनायकों की तरह पर्वत शिखर दूर-दूर ऐसे बैठे थे मानो किसी गम्भीर समस्या को सुलझाने में दत्तचित्त होकर संलग्न हों। हिमाच्छादित चोटियां उनके सफेद केशों की झाँकी करा रही थीं। उन पर उड़ते हुए छोटे-छोटे बादल ऐसे लगते थे मानो ठण्ड से बचाने के लिए नई रुई का बढ़िया टोपा उन्हें पहनाया हो ।
कितना उच्च कोटि का वर्णन है -धन्य हैं आप गुरुवर
“जिधर भी दृष्टि उठती, उधर ही एक विशाल कुटुम्ब अपने चारों ओर बैठा हुआ नजर आता था। उनके जबान न थी, वे बोलते न थे, पर उनकी आत्मा में रहने वाला चेतन बिना शब्दों के ही बहुत कुछ कहता था। जो कहता था हृदय से कहता था और करके दिखाता था। ऐसी बिना शब्दों वाली किन्तु अत्यन्त मार्मिक वाणी इससे पहले कभी भी सुनने को नहीं मिली थी। उनके शब्द सीधे आत्मा तक प्रवेश करते और रोम-रोम को झंकृत किये देते थे। अब सूनापन कहाँ ? अब भय किसका ? सब ओर सहचर ही सहचर जो बैठे थे।”
सुनहरी धूप ऊँचे शिखरों से उतरकर पृथ्वी पर कुछ देर के लिए आ गई थी, मानो अविद्याग्रस्त हृदय में सत्संगवश स्वल्प स्थाई ज्ञान उदय हो गया। ऊँचे पहाड़ों की आड़ में सूरज देवता इधर-उधर ही छिपे रहते हैं, केवल दोपहर को ही कुछ घण्टों के लिए उनके दर्शन होते हैं। उनकी किरणें सिकुड़ते हुए जीवों में चेतना की एक लहर दौड़ा देती हैं। सभी में गतिशीलता और प्रसन्नता उमड़ने लगती है। आत्मज्ञान का सूर्य भी प्राय: वासना और तृष्णा की चोटियों के पीछे छिपा रहता है पर जब कभी जहाँ कहीं वह उदय होगा वहीं उसकी सुनहरी किरणे एक दिव्य हलचल उत्पन्न करती हुई अवश्य दिखाई देगी। अपना शरीर भी स्वर्णिम किरणों का आनन्द लेने के लिए कुटिया से बाहर निकला और मखमल के कालीन जैसी बिछी हरी घास पर टहलने की दृष्टि से एक ओर चल पड़ा। कुछ ही दूर रंग-बिरंगे फूलो का एक बड़ा पठार था। आँखें उधर ही आकर्षित हुई और पैर उसी दिशा में उठ चले। यह फूल ऐसे लग रहे थे जैसे छोटे बच्चे सिर पर रंगीन टोप पहने हुए पास-पास बैठकर किसी खेल की योजना बनाने में व्यस्त हों, मैं उन्हीं के बीच जाकर बैठ गया। लगा- जैसे मैं भी एक फूल हूँ। यदि ये पौधे मुझे भी अपना साथी बना लें तो मुझे भी अपना खोया बचपन पाने का पुण्य अवसर मिल जाए। भावना आगे बढ़ी। जब अन्तरत्मा खुश होती है तब तर्कवादी उलटे-सीधे विचार भी ठण्डे पड़ जाते हैं।
“मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है। ये अपनी दुनियाँ आप बसा लेते हैं। काल्पनिक ही नहीं शक्तिशाली भी और सजीव भी। ईश्वर और देवताओं तक की रचना उसने अपनी भावना के बल पर की है और उनमें अपनी श्रद्धा पिरोकर उन्हें इतना महान् बनाया है जितना कि वह स्वयं है। अपनी भावना फूल बनने को मचली तो वैसा ही बनने में देर न थी। लगा कि इन पंक्ति बनाकर बैठे हुए -पुष्प बालकों- ने मुझे भी सहचर मानकर अपने खेल में भाग लेने के लिए सम्मिलित कर लिया है।
जिसके पास बैठा था वह बड़े से पीले फूल वाला पौधा बडा हँसोड़ तथा वाचाल था। अपनी भाषा में उसने कहा: दोस्त, तुम मनुष्यों में व्यर्थ जा जन्मे। उनकी भी कोई जिन्दगी है ?हर समय चिन्ता, हर समय उधेड़बुन, हर समय तनाव, हर समय कुढ़न। अब की बार तुम पौधे बनना, हमारे साथ रहना। देखते नहीं हम सब कितने प्रसन्न हैं , कितने खिलते हैं, जीवन को खेल मानकर जीने में कितनी शान्ति है, यह सब लोग जानते हैं। देखते नहीं हमारे भीतर का आन्तरिक उल्लास सुगन्ध के रूप में बाहर निकल रहा है। हमारी हँसी फूलों के रूप में बिखरी पड़ रही है। सभी हमें प्यार करते हैं। सभी को हम प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनन्द से जीते हैं और जो पास आता है उसी को आनन्दित कर देते हैं। जीवन जीने की यही कला है। मनुष्य बुद्धिमानी का गान करता है पर किस काम की वह बुद्धिमानी जिससे जीवन को साधारण सी, हँस- खेलकर जीने की प्रक्रिया हाथ न आए। फूल ने कहा: ” मित्र मैं तुम्हें ताना मारने के लिए या अपनी बड़ाई करने के लिए नहीं कह रहा हूँ। मैंने यह एक तथ्य ही तो कहा है । अच्छा बताओ जब हम धनी, विद्वान्, गुणी, सम्पन्न, वीर और बलवान न होते हुए भी अपने जीवन को हँसते हुए तथा सुगन्ध फैलाते हुए जीवन जी सकते हैं तो आप मनुष्य वैसा क्यों नहीं कर सकते ? हमारी अपेक्षा मनुष्य के पास असंख्यगुना साधन उपलब्ध हैं लेकिन फिर भी वह चिन्तित है,असन्तुष्ट है तो क्या इसका कारण उसकी बुद्धिहीनता नहीं है ? प्रिय तुम बुद्धिमान हो जो उन बुद्धिहीनों को छोड़कर कुछ समय के लिए ही सही हमारे साथ हँसने- खेलने चले आए। चाहो तो हम तुच्छ आत्माओं से भी जीवन विद्या का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य सीख सकते हो।”
मेरा मस्तक श्रद्धा से झुक गया- ” पुष्प मित्र, तुम धन्य हो। स्वल्प साधन होते हुए भी तुम यह जानते हो कि जीवन कैसे जीना चाहिए । एक हम हैं जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढ़न में ही व्यतीत करते हैं। मित्र, सच्चे उपदेशक हो, वाणी से नहीं जीवन से सिखाते हो ,यहाँ सीखने आया हूँ तो तुमसे बहुत सीख सकूँगा। सच्चे साथी की तरह सिखाने में संकोच न करना। “
हंसमुख पीला पौधा, खिलखिलाकर हँस पड़ा, सिर हिला- हिलाकर वह स्वीकृति दे रहा था और कहने लगा- सीखने की इच्छा रखने वाले के शिक्षक पग- पग पर मौजूद हैं; पर आज सीखना कौन चाहता है? सभी तो अपनी अपूर्णता के अहंकार में अकड़े – से फिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाए तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा, सच्ची शिक्षा खुदबखुद हमारे हृदय में प्रवेश करने लगे।
जय गुरुदेव ,धन्यवाद्