27 जुलाई 2021 का ज्ञानप्रसाद -हिमालय में गुरुदेव के सहचर कौन थे ?
आज का लेख कल वाले लेख की ही continuation में लिख रहे हैं लेकिन लेख की तरफ बढ़ने से पहले आप सभी से नतमस्तक होकर क्षमाप्रार्थी हैं कि अगर लेख में रोज़ की तरह तल्लीनता न दिखाई दे तो अन्यथा न लें। आदरणीय शुक्ला बाबा की बिगड़ती स्थिति ने पिछले कुछ समय से मन को विचलित रखा लेकिन अब मन के विचारों को एकत्रित करके The work must go on के सिद्धांत पर चलते हुए लेखन का कार्य प्रारम्भ किया है। आप सभी ने हमारे एक ही सन्देश पर अपने-अपने पुरषार्थ से शुक्ला बाबा के स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रयास लिया ,ह्रदय से धन्यवाद्। हम सब कितने सौभाग्यशाली हैं जो परमपूज्य गुरुदेव के सानिध्य में एक सुनसान झोंपड़ी में रात्रि के समय हिमालय के दिव्य वातावरण का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। हाँ यह लेख जिन्हे हम आजकल लिखने का प्रयास कर रहे हैं थोड़े “real life” से परे हैं ,फिलोसोफिकल हैं लेकिन हम अपने विवेक और अल्प बुद्धि से रोमांचक और सरल बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
तो विचारों की उथल पुथल के साथ चलते हैं :
विचार प्रवाह अपनी दिशा में तीव्र गति से दौड़ा चला जा रहा था, लगता था वह सूनेपन को अनुपयुक्त ही नहीं हानिकारक और कष्टदायक भी सिद्ध करके छोड़ेगा, तब शौक अपना प्रभाव उपस्थित करेगा – इस मूर्खता में पड़े रहने से क्या मिलेगा ? अकेले में रहने की अपेक्षा जन- समूह में रहकर जो कार्य हो वह सब क्यों न प्राप्त किया जाय ?
विवेक ने मन की गलत दौड़ को पहचाना और कहा :
यदि सूनापन ऐसा ही अनुपयुक्त होता तो ऋषि,मुनि,साधक, सिद्ध, विचारक और वैज्ञानिक क्यों उसे खोजते ? क्यों उस वातावरण में रहते ? यदि एकान्त का कोई महत्त्व न होता तो समाधि- सुख और आत्मदर्शन के लिए क्यों उसकी तलाश होती? स्वाध्याय,चिन्तन के लिए तप और ध्यान के लिए क्यों सूनापन ढूँढ़ा जाता ? दूरदर्शी महापुरुषों का मूल्यवान् समय क्यों उस असुखकर अकेलेपन में व्यतीत होता? लगाम खींचने पर जैसे घोड़ा रुक जाता है, उसी प्रकार वह सूनेपन को कष्टकर सिद्ध करने वाला विचार प्रवाह भी रुक गया।
1 )निष्ठा ने कहा- एकान्त साधना की आत्म प्रेरणा गलत नहीं हो सकती।
2 )श्रद्धा ने कहा- जो शक्ति इस मार्ग पर खींच लाई, वह गलत मार्गदर्शन नहीं कर सकती।
3 )भावना ने कहा- जीव अकेला आता है अकेला जाता है, अकेला ही अपनी शरीर रूपी कोठरी में बैठा रोता है। क्या सभी अकेले रहने वाले दुखी ही रहते हैं ? सूर्य अकेला चलता है, चन्द्रमा अकेला उदय होता है, वायु अकेले चलती है, इसमें उन्हें कोई कष्ट है क्या ?
विचार से विचार कटते हैं, psychology के इस सिद्धान्त ने अपना कार्य पूरा किया। आधी घड़ी पूर्व जो negative विचार अपनी पूर्णता अनुभव कर रहे थे, अब वे कटे वृक्ष की तरह गिर पड़े, प्रतिरोधी विचारों ने उन्हें परास्त कर दिया। ज्ञानी लोग इसीलिए
“अशुभ विचारों को शुभ विचारों से काटने का महत्त्व बताते हैं। बुरे से बुरे विचार चाहे वे कितने ही प्रबल क्यों न हों, उत्तम प्रतिपक्षी विचारों से काटे जा सकते हैं। अशुभ मान्यताओं को शुभ मान्यताओं के अनुरूप कैसे बनाया जा सकता है”
यह उस सूनी रात में करवटें बदलते हुए गुरुदेव ने प्रत्यक्ष देखा। अब मस्तिष्क एकान्त की उपयोगिता- आवश्यकता और महत्ता पर विचार करने लगा। रात धीरे-धीरे बीतने लगी। अनिद्रा से ऊबकर कुटिया के बाहर निकला तो देखा कि:
नोट : “यह व्याख्या बहुत ही रोमांचक है कृपया इसे ध्यान से धीरे-धीरे ही पढ़कर आनंद लें” –
गंगा की धारा अपने प्रियतम समुद्र से मिलने के लिए व्याकुल प्रेयसी की भाँति तीव्रगति से दौड़ी चली जा रही थी। रास्ते में पड़े हुए पत्थर उसका मार्ग अवरुद्ध करने का प्रयत्न करते, पर वह उनके रोके रुक नहीं पा रही थी। अनेकों पत्थरों की चोट से उसके अंग-प्रत्यंग घायल हो रहे थे तो भी वह न किसी की शिकायत करती थी और न निराश होती थी। इन बाधाओं का उसे ध्यान भी न था। अन्धेरे का, सुनसान का उसे कोई भय न था। अपने हृदयेश्वर ( प्रियतम) से मिलन की व्याकुलता उसे इन सब बातों का ध्यान भी नहीं आने देती थी। प्रिय के ध्यान में निमग्न हर-हर कल-कल का प्रेम गीत गाती हुई गंगा, निद्रा और विश्राम को तिलांजलि देकर चलती ही जा रही थी।
“पंडित लीलापत शर्मा जी का कहना बिल्कुल सत्य हो रहा है न – ऐसा लेखक हमने अपने जीवन में नहीं देखा”
चन्द्रमा सिर के ऊपर आ पहँचा था। गंगा की लहरों में उसके अनेकों प्रतिबिम्ब चमक रहे थे, मानो एक ब्रह्म अनेक शरीरों में प्रविष्ट होकर एक से अनेक होने की अपनी माया दृश्य रूप से समझा रहा हो। दृश्य बड़ा सुहावना था। कुटिया से निकलकर गंगा तट के एक बड़े शिलाखण्ड पर जा बैठा और निर्मिमेष होकर उस सुन्दर दृश्य को देखने लगा। थोड़ी देर में झपकी लगी और उस शीतल शिलाखण्ड पर ही नींद आ गई।
गुरुदेव की नींद में आते हुए विचार प्रवाह :
लगा कि वह जलधारा कमल पुष्प -सी सुन्दर एक देव कन्या के रूप में परिणत होती है। वह अलौकिक शान्ति, समुद्र-सी सौम्य मुद्रा से ऐसी लगती थी मानो इस पृथ्वी की सारी पवित्रता एकत्रित होकर मानुषी शरीर में अवतरित हो रही हो। वह रुकी नहीं समीप ही शिलाखण्ड पर जाकर विराजमान हो गई, लगा मानो जागृत अवस्था में ही यह सब देखा जा रहा हो। उस देव कन्या ने धीरे-धीरे अत्यन्त शान्त भाव से मधुर वाणी में कुछ कहना आरम्भ किया। मैं मन्त्रमोहित की तरह एकचित्त होकर सुनने लगा। वह बोली : नर-तनधारी आत्मा तू अपने को इस निर्जन वन में अकेला मत मान। दृष्टि पसार कर देख- चारों ओर तू ही तू बिखरा पड़ा है। अपने को मनुष्य तक सीमित मत मान। इस विशाल सृष्टि में मनुष्य केवल एक एक छोटा-सा प्राणी है उसका भी एक स्थान है, पर वही सब कुछ नहीं है। “जहाँ मनुष्य नहीं वहाँ सूना है ऐसा क्यों माना जाय?” अन्य जड़ चेतन माने जाने वाले जीव भी विश्वात्मा के वैसे ही प्रिय हैं जैसा मनुष्य तू। उन्हें क्यों अपना सहोदर नहीं मानता? उनमें क्यों अपनी आत्मा नहीं देखता? उन्हें क्यों अपना सहचर नहीं समझता। इस निर्जन में तुम्हारे साथ मनुष्य नहीं हैं पर अन्य अगणित जीवधारी भी तो मौजूद हैं। पशु-पक्षियों की, कीट- पतंगों की, वृक्ष -वनस्पतियों की अनेक योनियां इन पर्वतों में निवास करती हैं। “सभी में आत्मा है, सभी में भावना है। यदि तू इन अचेतन समझे जाने वाले चेतनों की आत्मा से अपनी आत्मा को मिला सके तो हे पथिक तू अपनी खण्ड आत्मा को समग्र आत्मा के रूप में देख सकेगा।” धरती पर अवतरित हुई वह दिव्य सौन्दर्य की अद्भुत प्रतिमा देव- कन्या बिना रुके कहती ही जा रही थी :
” मनुष्य को भगवान ने बुद्धि दी, पर वह अभागा उसका सुख कहाँ ले सका? तृष्णा और वासना में उसने उस दिव्य वरदान का दुरुपयोग किया और जो आनन्द मिल सकता था, उससे वंचित हो गया। वह प्रशंसा के योग्य प्राणी करुणा का पात्र है परन्तु सृष्टि के अन्य जीव इस प्रकार की मूर्खता नहीं करते। उनके चेतन की मात्रा भले ही कम हो, पर अपनी भावना को उनकी भावना के साथ मिलाकर तो देख और फिर बता अकेलापन कहाँ है ?? सभी तो तेरे सहचर हैं सभी तो तेरे बन्धु-बान्धव है।”
करवट बदलते ही नींद की झपकी खुल गई। हड़बड़ा कर उठ बैठा। चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो वह अमृत-सा सुन्दर उपदेश सुनाने वाली देवकन्या वहाँ न थी। लगा मानो वह इस सरिता में समा गई हो, मानुषी रूप छोड़ कर जलधारा में खो गई हो। वे मनुष्य की भाषा में कहे गये शब्द सुनाई तो नहीं पड़ते थे, पर कल-कल की ध्वनि में भाव वही गूँज रहे थे, सन्देश वहीँ मौजूद था। ये चमड़े वाले कान उसे कहाँ सुन पा रहे थे, पर कानों की आत्मा उसे अब भी समझ रही थी, ग्रहण कर रही थी।
यह जागृति थी या स्वप्न ?
सत्य था या भ्रम ?? मेरे अपने विचार थे या दिव्य सन्देश ?? कुछ समझ नहीं पा रहा था। आँखें खोलीं , सिर पर हाथ फेरा। जो सुना- देखा था उसे ढूँढने का पुन: प्रयत्न किया पर कुछ मिल नहीं पा रहा था, कुछ समाधान नहीं हो पा रहा था। इतने में देखा कि उछलती हुई लहरों पर थिरकते हुए अनेक चन्द्रमा प्रतिबिम्ब एक रूप होकर चारों ओर से इकट्ठे हो रहे हैं और मुस्कराते हुए कुछ कह रहे हैं । इनकी बात सुनने की चेष्टा की तो नन्हें बालक की तरह वे प्रतिबिम्ब कहने लगे:
हम इतने चन्द्र तुम्हारे साथ खेलने के लिए हँसने- मुस्कुराने के लिए मौजूद है। क्या हमें तुम अपना सहचर नहीं मानोगे ? क्या हम अच्छे साथी नहीं है? मनुष्य तुम अपनी स्वार्थी दुनियाँ में से आये हो,जहाँ “जिससे जिसकी ममता होती है, जिससे जिसका स्वार्थ सधता है, वह प्रिय लगता है। जिससे स्वार्थ सधा वह प्रिय अपना, जिससे स्वार्थ न सधा वह पराया, वह बेगाना । यही है तुम्हारी दुनिया का दस्तूर, उसे छोड़ो। हमारी दुनियाँ का दस्तूर सीखो।कोई नीचता नहीं, कोई ममता नहीं, कोई स्वार्थ नहीं। यहाँ सभी अपने हैं। सबमें अपनी ही आत्मा है, ऐसा सोचा जाता है। तुम भी इसी प्रकार सोचो। फिर हम इतने चन्द्र बिम्बों के सहचर रहते तुम्हें सूनापन प्रतीत न होगा। तुम यहाँ साधना करने आये हो न। साधना करने वाली इस गंगा को देखते नहीं, किस प्रकार प्रियतम के प्रेम में तल्लीन होकर, उनसे मिलने के लिए कितनी तल्लीनता और आतुरता से चली जा रही है। रास्ते के विघ्न उसे रोक पाते हैं क्या ? अन्धकार और अकेलेपन को वह कहाँ देखती है ? लक्ष्य की यात्रा से एक क्षण के लिए भी उसका मन कहाँ विरत होता है ? यदि साधना का पथ अपनाना है तो तुझे भी यह अपनाना होगा। जब प्रियतम को पाने के लिए तुम्हारी आत्मा भी गंगा की धारा की तरह express स्पीड से जा रही होगी तो कहीं भीड़ में आकर्षण लगेगा और कहीं सूनेपन में भय।
“गंगातट पर निवास करना है तो गंगा की प्रेम साधना भी सीखो”
शीतल लहरों के साथ अनेक चन्द्र बालक नाच रहे थे। मानो अपनी मथुरा में कभी हुआ रास,नृत्य प्रत्यक्ष हो रहा हो। लहरें गोपियाँ बनी, चन्द्र ने कृष्ण रूप धारण किया, हर गोपी के साथ एक कृष्ण! कैसा अद्भुत रास नृत्य यह आँखें देख रही थीं। मन आनन्द से विभोर हो रहा था। ऋतम्भरा प्रज्ञा कह रही थी
“देख अपने प्रियतम की झाँकी देख। हर काया में आत्मा उसी प्रकार नाच रही है जैसे गंगा की शुभ लहरों के साथ एक ही चन्द्रमा के अनेक प्रतिबिम्ब नृत्य कर रहे हों।”
सारी रात बीत गयी सूर्योदय की लालिमा फूट रही थी जो देखा, अद्भुत था। सूनेपन का भय चला गया। कुटीया की ओर पैर धीरे-धीरे लौट रहे थे।
इति जय गुरुदेव
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद्
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