हमारा  मस्तिष्क हमारा नौकर  ( सुनसान के सहचर )

26 जुलाई 2021 का ज्ञानप्रसाद – हमारा  मस्तिष्क हमारा नौकर 

आदरणीय लीलापत शर्मा जी को कौन नहीं जानता।  परमपूज्य गुरुदेव के मथुरा से प्रस्थान करने के पश्चात् गायत्री तपोभूमि  के व्यस्थापक रहे स्वर्गीय लीलापत शर्मा जी परमपूज्य गुरुदेव और वंदनीय माता जी के इतने प्रिय शिष्य थे कि वंदनीय माता जी अक्सर कहतीं थीं कि अगर मेरा बड़ा बेटा देखना है तो मथुरा जाओ। 14 मई 2002 को गुरुसत्ता के साथ एकाकार हुई इस दिवंगत आत्मा को  हम तो क्या सारा  ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार नतमस्तक है, उनके चरणों में हमारा शत -शत  नमन। हमारे सहकर्मी /पाठक सोच रहे होंगें कि आज  14 मई तो है नहीं, तो फिर यह भूमिका आज के ज्ञानप्रसाद के साथ कैसे सम्बंधित है। बिल्कुल  सम्बंधित है , इसके लिए आपको थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।  जिस लेख को हम आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं उसका एक -एक शब्द पंडित जी द्वारा दिए गए संक्षिप्त उद्बोधन को सत्य ठहराता है।  हम तो यह कहेंगें कि  केवल सत्य ठहरता   ही नहीं ,उस पर मुहर लगाता  है।  बात  1992 वाले शपथ समारोह के उद्बोधन की हो रही है जिसमें लगभग एक लाख परिजनों की उपस्थिति में  नैष्ठिक साधकों ने पूज्यवर की जन्मस्थली आंवलखेड़ा की मिट्टी ( रज ) को हाथ में लेकर  गुरुदेव  के कार्यों  को आगे चलाने की शपथ ली थी।  आप अनुमान लगा सकते हैं उस समरोह में कितना जोश और श्रद्धा का संचार हुआ होगा। 

परमपूज्य गुरुदेव के बारे में पंडित जी कहते हैं “ हम बताएंगें कि हमने गुरुदेव को किन -किन रूपों में देखा।” वह डबरा ,ग्वालियर  के बारे में बता रहे हैं कि उनके पास कुछ कार्यकर्ता आये और कहने लगे हम 5 कुंडीय यज्ञ करवाना चाहते हैं ,हम  तो इन बातों को मानते नहीं थे ,साधु महात्माओं से हमें चिढ़  थी।  लेकिन उन कार्यकर्ताओं ने जाती बार वहां अखंड ज्योति पत्रिका छोड़ दी।  पंडित जी इसको पढ़ने लगे  और इतना मग्न हो गए कि इसे समाप्त  करके  ही साँस लिया ।  पंडित जी उस उद्बोधन में कह रहे थे “कि मैंने परमपूज्य गुरुदेव को एक लेखक के रूप में जाना ,मैंने इससे बेहतर आज तक कोई  लेखक नहीं देखा।” 

तो मित्रो यही  है आज के लेख की पृष्ठभूमि बनाने का उद्देश्य। परमपूज्य गुरुदेव का लेखक का व्यक्तित्व। जो चर्चा हम आगे करने जा रहे हैं इसमें गुरुदेव की शब्दावली के साथ -साथ हमारा विश्लेषण भी चलेगा।  हमने अपने आप को बहुत रोका कि इस विश्लेषण को संक्षिप्त रखा जाये लेकिन एक -एक वाक्य इतना philosophical इतना विज्ञानं संवत कि हम विश्लेषण करते हुए बहुत ही आनंदित हुए और वही आनंद आपके साथ शेयर कर रहे हैं। 

परमपूज्य गुरुदेव की हिमालय यात्रा पर आधारित आज का लेख पढ़ने में उच्स्तरीय तो है ही ,लेकिंन इसमें जो फिलॉसोफी छुपी हुई है उसे शब्दों में वर्णन करना इतना कठिन कार्य है कि हम अपनी  अल्प-बुद्धि, विवेक और अल्पज्ञान से केवल  यही कह सकते हैं “ इस लेख को पढ़ने से अधिक मनन करके अन्तःकरण में उतारने की आवश्यकता है” हम प्रयास करेंगें कि हर बार की तरह इस लेख को भी सरल बना सकें। आज का  लेख हमें यह  निर्णय करने में सहायक हो सकता है कि  “विचार क्रांति” जो गायत्री परिवार का ,हमारे परमपूज्य गुरुदेव का एक बहुचर्चित सन्देश है, उद्घोष है- असल में है क्या। नकारात्मक विचारों की उथल पुथल हमारे अंतःकरण में ऐसी  घर्षण को जन्म देती है कि मनुष्य का सर्वनाश होते एक पल भी नहीं लगता ,परिवारों के परिवार नर्क में जाने  में बिल्कुल संकोच नहीं करते। 

हम कई बार सोचते हैं कि जिन पुस्तकों से ,वीडियोस से,चर्चाओं से हम इन लेखों को लिखते हैं ,उनके रिफरेन्स /लिंक आपको क्यों नहीं दे देते ताकि आप स्वयं ही इनको पढ़ लें। लेकिन हमारा मन नहीं मानता।  यह एक human nature है कि जब भी कोई नई बात  ,अच्छी बात पता चलती है तो हमारा मन भाग कर सभी को बताने के लिए उत्तेजित हो जाता है, ठीक उस बच्चे की तरह जो अपनी क्लास में फर्स्ट पोजीशन हासिल  करने के बाद सबको बताना चाहता है। और ज्ञान तो  है ही ऐसा – इसका जितना प्रचार -प्रसार  किया जाये उतना ही और अधिक  विस्तार होता जाता है। इसका प्रतक्ष्य प्रमाण हम और आप प्रतिदिन देख रहे हैं – आप भी कितने उत्सुक होते हैं हमारे साथ ,सबके साथ communicate करने को।      

“तो आइये चलें चलें उस बियाबान जंगल में जहाँ परमपूज्य गुरुदेव सुनसान झोंपड़ी में नींद लेने का प्रयास  कर रहे हैं :”           

रात का समय था  झोंपड़ी के चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। प्रकृति सुन्न  है, सुनसान का सूनापन अखर रहा है। दिन बीता, रात आई। अपरिचित ,अनजान  वातावरण के कारण नींद नहीं आ रही  थी । हिंसक पशु , चोर, साँप, भूत, आदि तो नहीं थे  पर अकेलापन डरा रहा था। शरीर के लिए करवटें बदलने के अतिरिक्त कुछ काम न थामस्तिष्क खाली था चिन्तन की पुरानी आदत सक्रिय हो उठी। सोचने लगा- 

अकेलेपन में डर क्यों लगता है? भीतर से एक समाधान उपजा- मनुष्य सहयोगिता का ,सहभागिता  का,सहकारिता का  अंश है। उसका पोषण समाहुकिता  द्वारा ही तो  हुआ। जल तत्व से ओत-प्रोत मछली का शरीर जैसे जल में ही जीवित रहता है, वैसे ही  मानव इस इतने  बड़े संसार  का एक छोटा सा अंग  है।  समाज का एक घटक होने के कारण उसे समूह में ही आनन्द आता है। अकेलेपन में उस व्यापक समूह  से connection न हो जाने के कारण आन्तरिक पोषण बन्द हो जाता है, इस अभाव में बेचैनी होती है और उस बैचनी का कारण  सूनेपन का डर हो सकता है।

कल्पना ने और आगे दौड़ लगाई।सोचते सोचते इस कल्पना ने  जीवन के अनेक संस्मरण ढूंढ़ निकाले। सूनेपन में  अकेले विचरण करने के अनेक प्रसंग याद आये, उनमें आनन्द नहीं था समय ही काटा गया था। स्वाधीनता संग्राम में जेल यात्रा के उन दिनों की याद आई जब काल कोठरी में बन्द रहना पड़ा था। वैसे तो उस काल कोठरी में कोई कष्ट न था पर सूनेपन का मानसिक दबाव पड़ा था। एक महीने के बाद जब कोठरी से छुटकारा मिला तो पके आम की तरह पीला पड़ गया था। खड़े होने में आँखों तले अन्धेरा आ जाता था।

हमारा मस्तिष्क हमारा नौकर :

चूंकि सूनापन बुरा लग रहा था इसलिए मस्तिष्क के सारे कलपुर्जे उसकी बुराई साबित करने में जी जान से लगे हुए थे।  हमारा मस्तिष्क एक जानदार नौकर के समान ही तो ठहरा। जिस तरह की अंतःकरण से  भावना उठती है  और  उसी मान्यता से विवश  होकर  विचारों का एक बड़ा सा पहाड़  खड़ा कर देता है।  इसके लिए  यह मस्तिष्क  प्रमाण, कारण और उदाहरण दे-दे कर इतना बड़ा जमावड़ा बना  देता है कि  हमारी समझ से बाहिर  होता है। हम सभी के साथ कभी न कभी, कोई एक रात अवश्य ही आयी होगी जब हमारी नींद उखड़ गयी होगी ,डिस्टर्ब हो गयी होगी तो हमने भी इसी तरह के विचारों के नेगेटिव (ज़्यादातर ) पहाड़ खड़े किये होंगें।  जैसे परमपूज्य गुरुदेव कह रहे हैं इन सभी  विचारों की  जड़ यह सूनापन ही तो है। दिन में तो ऐसी बात कम ही होती है क्योंकि हम अकेले नहीं होते  हैं और जो लोग रात को ही दिन बना लेते हैं यानि बजाय करवटें बदलने के अपने मन को किसी सकारात्मक कार्य में व्यस्त कर लेते हैं उनके साथ शायद ऐसी स्थित न आयी हो।  

यह बात  सही है  या गलत- इसका  निर्णय करना विवेक/ बुद्धि का काम है। मस्तिष्क की जिम्मेदारी तो इतनी भर है, कि  उसकी रुचि  जिधर भी चले उसके समर्थन के लिए औचित्य सिद्ध करने के लिए आवश्यक विचार सामग्री उपस्थिति कर दे। अगर हमारी रूचि अकेले रहने की है, एकांत में रहने की है, सूनेपन में रहने की है तो हमारे विचार उसी को support करते जायेंगें और हम तरह -तरह के उदाहरण ,तथ्य देकर अपने  point of view को सही साबित करते रहेंगें।  मान लीजिये दो  मित्र इस पॉइंट पर  बहस कर रहे हैं  कि सूनापन अच्छा  होता है यं बुरा।  दोनों अपने -अपने तर्क दिए जा रहे हैं, इन तर्कों को उदाहरण देकर support किया जा रहा है। वार्ता  बहुत ही लम्बी हो जाती है और बिना किसी निष्कर्ष के झगडे पर अंत हो जाती है।  यही स्थिति मस्तिष्क की और  हमारी होती है।  वह हमारा नौकर  जो ठहरा, उसे जैसे कहते जायेंगें वह बिना किसी तर्क वितर्क के हमारे हर आर्डर को मानता  जायेगा ,नौकर जो ठहरा। और फिर यहाँ होता है विचारों का संग्राम, विचारों की क्रांति जिसकी हम आये दिन पता नहीं कितनी ही मालाएं जप लेते हैं ,कितनी बार  तोते की तरह रटे जा रहे हैं। 

परमपूज्य गुरुदेव के मस्तिष्क ने  अब  philosophical   ढंग से सोचना आरम्भ किया ।जो  लोग अपने को अकेला मानते, अकेले ही लाभ-हानि की बात सोचते हैं वह स्वार्थी होते हैं  उन्हें अपना कोई नही दिखता।  इसलिए वे “सामूहिकता” के आनन्द से वंचित रहते हैं। उनका अन्तःकरण एक  सूने श्मसान  की तरह साँय- सॉय करता रहता है। ऐसे अनेकों परिचित व्यक्तियों के जीवन चित्र सामने आ खड़े हुए जिन्हें धन की , वैभव की, समृद्धि की कमी नहीं; पर स्वार्थ सीमित” होने के कारण सभी उन्हें पराये लगते हैं सभी को शिकायत और कष्ट है। बहुत से लोगों ने  अपने आप को  कई बार इस स्थिति में फंसा हुआ पाया होगा और कष्ट भरी जीवन यातना सह  रहे होंगें। और उनका किसी और पर तो बस  चलता नहीं , उस परमपिता परमात्मा को ही कोसना  शुरू कर देते हैं – क्यों दिया यह जन्म ,क्यों दिया ऐसा जन्म ,क्यों दिए यह सारे कष्ट। इन विचारों के पहाड़  और संग्राम में हम यह भी भूल जाते हैं की हम उसकी ,”परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति हैं “

तो मित्रो आज का यह लेख अभी पूरा नहीं हुआ है , इसी कड़ी को आने वाले लेखों के साथ जोड़ते जायेंगें आगे अभी बहुत  कुछ बाकि  है।  हम प्रयास कर रहे हैं कि विचार क्रांति कैसे दैनिक जीवन में unwanted परिस्थितियों का निवारण करने में सक्षम है- इस पर चर्चा करें।   मस्तिष्क को नौकर बनाने  के बजाये उसके मालिक बनने का प्रयास करें और अपने आप की ताड़ना करना सीख  लें।  इस तरह  के लेखक केवल हमारे  गुरुदेव ही हो सकते हैं।

 क्रमशः जारी ( To be continued )

धन्यवाद् 

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं  कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद्

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