वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

तप शक्ति परमपूज्य  गुरुदेव के सन्दर्भ में 

16 जुलाई 2021 का ज्ञानप्रसाद – तप शक्ति परमपूज्य  गुरुदेव के सन्दर्भ में 

आज का ज्ञानप्रसाद हमारे सहकर्मियों को तप शक्ति के बारे में बताता हुआ परमपूज्य गुरुदेव के साथ कनेक्ट करने का प्रयास करेगा।  गुरुदेव का सम्पूर्ण जीवन ही तप और तितिक्षापूर्ण था जिसके बारे में जितना लिखा जाये कम है , हम केवल संक्षेप में ही कुछ प्रस्तुत करने में सफल हो पाएं हैं जिससे हमारे पाठकों को अवश्य ही प्रेरणा मिलेगी।  गुरुदेव द्वारा दिए गए आदर्शों और ऑनलाइन ज्ञानरथ के 12 मानवीय मूल्यों पर चल आकर हम अपने जीवन को कितना ही सरल बना सकते हैं।   

क्या है तप की शक्ति और उस शक्ति के कुछ उदाहरण :

तप की शक्ति अपार है। जो कुछ अधिक से अधिक शक्ति सम्पन्न तत्व इस विश्व में है, उसका मूल तप में ही सन्निहित है। सूर्य तपता है इसलिये ही वह समस्त विश्व को जीवन प्रदान करने लायक प्राण भण्डार का अधिपति है। ग्रीष्म की ऊष्मा से जब वायु मण्डल भली प्रकार तप लेता है तो मंगलमयी वर्षा होती है। सोना तपता है तो खरा, तेजस्वी और मूल्यवान बनता है। जितनी भी धातुएं हैं वे सभी खान से निकलते समय दूषित, मिश्रित व दुर्बल होती हैं पर जब उन्हें कई बार भट्टियों में तपाया, पिघलाया और गलाया जाता है तो वे शुद्ध एवं मूल्यवान बन जाती हैं। कच्ची मिट्टी के बने हुए कमजोर खिलौने और बर्तन जरा से आघात में टूट सकते हैं। तपाये और पकाये जाने पर मजबूत एवं रक्त जैसे लाल हो जाते हैं। कच्ची ईंटें भट्टे में पकने पर पत्थर जैसी पक्की  हो जाती हैं । मामूली से कच्चे कंकड़ पकने पर चूना बनते हैं और उनके द्वारा बने हुये विशाल भवन  दीर्घ काल तक बने खड़े रहते हैं।

मामूली सा अभ्रक (Mica ) जब सौ, बार अग्नि में तपाया जाता है तो चन्द्रोदय रस बन जाता है जो कई प्रकार की यौन बिमारियों और शक्ति प्राप्त करने के काम आता है। अभ्र्क एक किस्म का रसायन होता है।   अनेकों बार अग्नि संस्कार होने से ही धातुओं की मूल्यवान भस्म रसायन बन जाती हैं और उनसे अशक्ति एवं कष्ट साध्य रोगों में ग्रस्त रोगी जीवन  प्राप्त करते हैं। इस तरह के कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनका कोई अंत ही नहीं है।

प्राचीन काल में विद्या का अधिकारी वही माना जाता था जिसमें तितीक्षा (सर्दी -गर्मी  दुःख आदि सहन करने की शक्ति ) एवं कष्ट सहिष्णुता की क्षमता होती थी, ऐसे ही लोगों के हाथ में पहुंच कर विद्या उसका समस्त संसार का लाभ करती थी। आज विलासी और लोभी प्रकृति के लोगों को ही विद्या सुलभ हो गई। फल स्वरूप वे उसका दुरुपयोग भी खूब कर रहे हैं। अक्सर ऐसा  देखा गया है कि  आजकल अशिक्षितों की अपेक्षा सुशिक्षित ही मानवता से अधिक दूर हैं और वे ही विभिन्न प्रकार की समस्यायें उत्पन्न करके संसार की सुखशान्ति के लिए अभिशाप बने हुए हैं। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार के प्रत्येक सहकर्मी सदैव उन  12 मानवीय मूल्यों का सम्मान करने को वचनबद्ध हैं जिनकी सहायता से हम सब सामूहिक तौर पर परमपूज्य गुरुदेव के कार्यों और विचारों का प्रचार -प्रसार करने को संकल्पित हैं।  यह कार्य चाहे  शुक्ला-सविंदर भाई साहिब का वृक्षरोपण संकल्प  हो , संजना बेटी का प्रकृति-संवर्धन और नारी सशक्ति- करण वाली कवितायेँ  हो  य फिर किसी  भी प्रकार की सहकारिता का कार्य हो, सभी एक दूसरे से आगे ,बढ़चढ़ कर योगदान देने में अग्रसर हैं।  यह पुरषार्थ भी किसी तप से कम नहीं हैं।  

प्राचीन काल में अभिभावक अपने बालकों को तपस्वी मनोवृत्ति का बनाने के लिए उन्हें गुरुकुलों में भेजते थे और गुरुकुलों के संचालक बहुत समय तक बालकों में कष्ट  सहन करने की प्रवृति को  जागृत करते थे और जो इस बेसिक  परीक्षा से सफल होते थे, उन्हें ही परीक्षा में सफल  मान कर विद्यादान देते थे । आरुणि जैसे  अनगनित  छात्रों को  जिन कठोर परीक्षाओं में से गुजरना पड़ता था। इसका वृत्तान्त सभी को मालूम है। 

ब्रह्मचर्य तप का प्रधान अंग माना गया है। बजरंगी हनुमान, बालब्रह्मचारी भीष्मपितामह के पराक्रमों से हम सभी परिचित हैं। शंकराचार्य, दयानन्दप्रभृति अनेकों महापुरुष अपने ब्रह्मचर्य व्रत के आधार पर ही संसार की महान् सेवा कर सके। प्राचीन काल में ऐसे अनेकों ग्रहस्थ होते थे जो विवाह होने पर भी पत्नी समेत अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते थे।

आत्मबल प्राप्त करके तपस्वी लोग उस तप बल से न केवल अपना आत्म कल्याण करते थे वरन् अपनी कुछ  शक्ति अपने शिष्यों को देकर उनको भी महापुरुष बना देते थे। समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठकर एक मामूली सा मराठा बालक, छत्रपति शिवाजी बना। रामकृष्ण परमहंस के साथ रहकर और  शक्ति  पाकर  नरेन्द्र, संसार का श्रेष्ठ धर्म प्रचारक विवेकानन्द कहलाया।

परमपूज्य गुरुदेव ने  भी अपने जीवन के आरम्भ से ही  तपश्चर्या का कार्य अपनाया है।  24 वर्ष के 24 महापुरश्चरणों के कठिन तप द्वारा प्राप्त  शक्ति का उपयोग उन्होंने लोक कल्याण के लिए  किया जिसके  फलस्वरूप अनगनित  व्यक्ति  भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति की उच्च कक्षा तक पहुंचे हैं। अनेकों को भारी व्यथा-व्याधियों से, चिन्ता-परेशानियों से छुटकारा मिला है। साथ ही धार्मिक  जागृति एवं नैतिक उन्नति की दिशा में आशा जनक कार्य हुआ है। लगभग  15 करोड़ ( वर्ष 2021  का अनुमान ) गायत्री उपासकों का निमार्ण एवं यज्ञों का संकल्प इतना महान् कार्य है  जो  सैकड़ों व्यक्ति मिलकर कई जन्मों में भी पूर्ण नहीं कर सकते, लेकिन  वह सब कार्य बड़े आनन्द पूर्वक पूर्ण हो रहे हैं । ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार भी वानर- रीछ की भूमिका निभाते हुए इस  विश्वव्यापी यज्ञ में अपनी आहुतियां अनवरत दिए जा रहा है।  यह हमारे परमपूज्य गुरुदेव का मार्गदर्शन और हर एक सदस्य की उनके प्रति अटूट श्रद्धा ही है जो हम सबसे यर्ह कार्य करवा  रही है।     

गायत्री तपोभूमि का निर्माण, युगतीर्थ शांतिकुंज का विस्तार ,ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ,देव संस्कृति यूनिवर्सिटी परमपूज्य गुरुदेव की जन्मस्थली आंवलखेड़ा का विकास,गायत्री परिवार का निर्माण एवं वेद भाष्य का प्रकाशन ऐसे कार्य हैं जिनके पीछे साधना तपश्चर्या का ही प्रताप झांक रहा है। यह कार्य तो केवल कुछ एक ही हैं  ,सभी का वर्णन य नाम देना  असम्भव सा लगता है।  परमपूज्य गुरुदेव ने इससे आगे और भी प्रचण्ड तप करने का निश्चय किया है और भावी जीवन को तप-साधना में ही लगा देने का निश्चय किया है तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। गुरुदेव कहते हैं हम  तप का महत्व समझ चुके हैं।  संसार के बड़े से बड़े पराक्रम, पुरुषार्थ एवं उपार्जन की तुलना में  तप-साधना का मूल्य अत्यधिक है। जौहरी कांच को फेंक कर रत्न की साज संभाल करता है। गुरुदेव ने  भी भौतिक सुखों को लात मार कर तप की सम्पत्ति एकत्रित करने का निश्चय किया है।  गुरुदेव तो ऐसा भी कहते थे कि  भौतिक  सुखों से  मोहग्रस्त परिजन चाहे  खिन्न होते रहें हमारा उनसे  कोई लेना देना नहीं है। 

राजनैतिक और वैज्ञानिक गुट दोनों मिलकर इन दिनों जो रचना कर रहे हैं वह केवल आग लगाने वाली, नाश करने वाली रचना  ही है। ऐसे हथियार तो बन रहे हैं जो विपक्षी देशों को तहस नहस करने में अपनी विजय पताका गर्व पूर्वक फहरा सकें। पर ऐसे शस्त्र कोई नहीं बना पा रहा है जो लगाई हुई आग को बुझा सके, आग लगाने वालों के हाथों को रोक सके। 

कौन बनाएगा शांति शस्त्र ?

विश्व शांति के लिए  शान्ति शस्त्रों का निर्माण देशों की  राजधानियों में य  वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं हो सकता है। प्राचीन काल में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव हुई है तब तपोवनों की प्रयोगशाला में तप साधना के महान् प्रयत्नों द्वारा ही शान्ति शस्त्र तैयार किये गये हैं। आज एक बार फिर परमपूज्य गुरुदेव  तथा उनकी जैसी  और भी कई आत्माएं इसी प्रयत्न के लिए अग्रसर हई हैं।

संसार को, मानव जाति को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं, उद्योग धंधे, कारखाने, रेल, तार, सड़क बांध, स्कूल, अस्पताल आदि का बहुत कुछ निर्माण कार्य चल रहा है। इससे गरीबी, बीमारी,अशिक्षा और असभ्यता का बहुत कुछ समाधान होने की आशा की जाती है। पर मानव अन्तःकरणों में प्रेम और आत्मीयता का, स्नेह और सौजन्य का, आस्तिकता और धार्मिकता का, सेवा और संयम का निर्झर प्रवाहित किये बिना विश्व शान्ति की दिशा में कोई ठोस कार्य न हो सकेगा। जब तक सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले, गांधी, दयानन्द, शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, नारद, व्यास जैसे आत्मबल सम्पन्न मार्ग दर्शक न हों तब तक लोक मानस को ऊंचा उठाने के प्रयत्न सफल न होंगे। लोक मानस को ऊंचा उठाये बिना, पवित्र और आदर्शवादी भावनाएं उत्पन्न किये बिना  क्लेश और कलह से, रोग और दारिद्र से कदापि छुटकारा न मिलेगा। लोक मानस को पवित्र, सात्विक एवं मानवता के अनुरूप ,नैतिकता से परिपूर्ण बनाने के लिये जिन सूक्ष्म आध्यात्मिक दिव्य तरंगों का प्रवाहित किया जाना आवश्यक है, वे उच्चकोटि की आत्माओं द्वारा विशेष तप साधना से ही उत्पन्न होंगी। मानवता की, धर्म और संस्कृति की  यही सबसे बड़ी सेवा है। आज इन प्रयत्नों की तुरन्त आवश्यकता अनुभव की जाती है क्योंकि जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं असुरता का पल्ला अधिक भारी होता जाता है। देरी करने में अहित और अनिष्ट की ही अधिक सम्भावना हो सकती है। समय की इसी पुकार ने हमें वर्तमान कदम उठाने को अज्ञातवास में जाने को बाध्य किया है। हमने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये आज तक कुछ भी प्रयत्न नहीं किया है। धन ऐश्वर्य कमाना तो दूर आध्यात्मिक साधनाओं के लिये भी हमारा दृष्टिकोण व्यक्तिगत लाभ नहीं रहा। जो कुछ भी जप-तप करते हैं प्रायः उसी दिन किसी पीड़ित परेशान व्यक्ति के कल्याण के लिये अथवा संसार में धार्मिक वातावरण उत्पन्न करने के लिए उसे दान कर देते हैं।

अभी और जन्म लेने हैं :

“सुनसान के सहचर” जिस पुस्तक पर हमने यह लेख आधारित किया है उसमें परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं :  

अभी और  कई जन्म  लेने का विचार है। संसार में धर्म की स्थापना हुए  बिना, मानव प्राणी के अन्तराल में मानवता की समुचित प्रतिष्ठापना किये बिना किसी स्वर्ग मुक्ति में जाने का हमारा विचार बिलकुल ही नहीं है। इसलिये हम अपने लिये कोई सिद्धि नहीं चाहते। विश्व हित ही हमारा  अपना हित है। इसी लक्ष को लेकर तप की अधिक उग्र अग्नि में अपने को तपाने को वर्तमान कदम उठाया है।

जय गुरुदेव 

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं  कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव

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