वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

धरती का स्वर्ग कहाँ पर है ?

14 जुलाई 2021  का ज्ञानप्रसाद -धरती का स्वर्ग कहाँ पर है ?

आज के लेख की पृष्ठभूमि हमने कल, 13  जुलाई वाले लेख में बनाई थी और आप सबने उस पृष्ठभूमि  को बहुत ही पसंद किया, आपके कमेंट इसके साक्षी हैं। परमपूज्य गुरुदेव के जीवन के  साथ सम्बंधित हर  कोई  लेख अति प्रेणादायक होता है और दिव्यता का आभास देता है।  इसी तरह के लेख हम पहले  भी कई बार लिख चुके हैं लेकिन हर बार एक नई  ऊर्जा लेकर उससे भी बेहतर  लिखने की इच्छाशक्ति हमारे  अंदर नवीन ideas का संचार करती है।  लेकिन यह इच्छाशक्ति आपके सहयोग  के बिना अपूर्ण है। आपकी सहकारिता को हम नमन   करते हैं और गुरुदेव के चरणों में आइये देखें धरती का स्वर्ग कहाँ है।  


हम सभी जानते हैं कि  परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शक, हमारे दादा गुरु परमपूज्य  सर्वेश्वरानन्द जी 1926 की वसंत को प्रातः आंवलखेड़ा आगरा  स्थित गुरुदेव की  पूजा की कोठरी में प्रकट हुए और कई निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गए।  यह एक सौभाग्य य  संयोग ही हो सकता है  कि जीवन को आरम्भ से अन्त तक एक समर्थ सिद्ध पुरुष के संरक्षण में गतिशील रहने का अवसर मिल गया। उस महान् मार्ग दर्शक  ने जो भी आदेश दिये, वे ऐसे थे जिसमें गुरुदेव के  जीवन की सफलता के साथ-साथ लोक-मंगल का महान् प्रयोजन भी जुड़ा रहा।  केवल 15 वर्ष की आयु से दादा गुरु की  अनुकम्पा बरसनी शुरू हुई और गुरुदेव ने   प्रयत्न किया  कि महान गुरु के गौरव के अनुरूप शिष्य बना जाय। सो एक प्रकार से उस सत्ता के सामने आत्म-समर्पण ही हो गया। कठपुतली की तरह अपनी समस्त शारीरिक और भावनात्मक क्षमताएं उन्हीं के चरणों पर समर्पित हो गई। जो जो  आदेश, जब जब भी , होता रहा  उसे पूरी श्रद्धा के साथ शिरोधार्य और कार्यान्वित किया जाता रहा।  जीवन के अंत तक अपने मार्गदर्शक के आदेशों को मानते रहे ,वैसे  तो अंत कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि गुरुदेव जैसी दिव्य सत्ताओं का कभी भी अंत नहीं होता और हम जैसे अनगनित  बच्चे  प्रतिक्षण परमपूज्य गुरुदेव की उपस्थिति को अनुभव कर रहे हैं।  

अपने जीवन के  क्रिया-कलापों को परमपूज्य गुरुदेव ने  एक कठपुतली की उछल-कूद  जैसा बताया हैं।  ठीक उसी तरह जैसे एक कठपुतली अपने मदारी की डोर की हरकतों से उछलती है ,कूदती है, परमपूज्य गुरुदेव अपने मार्गदर्शक के निर्देश का पालन करते रहे। ऐसा था हमारे परमपूज्य गुरुदेव का समर्पण। 

यह दिव्य साक्षात्कार मिलन तब हुआ जब गुरुदेव अपनी आयु के  15 वर्ष समाप्त करके 16 वें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे।  इस  दिव्य  मिलन को ही  विलय भी कहा जा सकता है। विलय को आज की आधुनिक भाषा में समझने का प्रयास करें तो Fusion सबसे उचित प्रतीत होता है। जैसे म्यूजिक में फ्यूज़न होता है यां दूध में पानी का विलय होता है ,ठीक इसी प्रकार का विलय था  गुरुदेव और दादा गुरु का। 

केवल  दो पदार्थों- जौ  की रोटी और छाछ पर  24 वर्ष तक निर्वाह करना ,अखण्ड दीपक के समीप 24 गायत्री महापुरश्चरण करने की आज्ञा हुई। महापुरश्चरण का अर्थ होता है 24 लाख मन्त्र  एक वर्ष में ,यानि 60  माला एक दिन में। गुरुदेव ने 24  वर्ष तक अनवरत यह टाइम टेबल निभाया। 24 लाख के 24 महापुरश्चरण पूरा होते ही  दस वर्ष धार्मिक चेतना उत्पन्न करने के लिये प्रचार और संगठन, लेखन, भाषण एवं रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला चली। उन वर्षों में एक ऐसा संघ तन्त्र जिसे हम आज अखिल विश्व गायत्री परिवार के नाम से जानते हैं, बनकर खड़ा हो गया, जिसे  नवनिर्माण,युगनिर्माण  के लिए उपयुक्त आधारशिला कहा जा सके। 

गुरुदेव ने जितनी शक्ति 24 वर्ष की पुरश्चरण साधना से अर्जित की थी , वह दस वर्ष में खर्च हो गयी।

 दादा गुरु ने इससे भी बड़े कार्य करवाने थे तो उस  अधिक ऊंची जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये नई शक्ति की आवश्यकता पड़ी। सो इसके लिये फिर आदेश हुआ कि इस शरीर को एक वर्ष तक हिमालय के उन दिव्य स्थानों में रहकर विशिष्ट साधना करनी चाहिये।  ऐसे स्थानों पर साधना करनी चाहिए जहां अभी भी आत्म-चेतना का शक्ति प्रवाह प्रवाहित होता है। अन्य आदेशों की तरह यह आदेश भी शिरोधार्य ही ही रहा।  

1958 में परमपूज्य गुरुदेव ने  एक वर्ष के लिये हिमालय में तपश्चर्या के लिये प्रयाण किया ।

गंगोत्री में भागीरथ के तपस्थान पर और उत्तरकाशी में परशुराम के तपस्थान पर यह एक वर्ष की साधना सम्पन्न हई। गुरुदेव को लेखन का व्यसन तो  था ही  ,addiction थी यह सब अनुभूतियाँ  गुरुदेव अपनी  डायरी में लिखते रहे ताकि उनके  अनुभवों से और लोग भी लाभ उठा सकें।  जहां-जहां रहना हआ, वहां-वहां भी अपनी स्वाभाविक प्रवत्ति के अनुसार मन में भाव भरी हिलोरें उठती रहीं। इन  अनुभूतियों को  गुरुदेव ने अखण्ड-ज्योति में छपने के लिए भेज दिया गया और वह  छप भी  गईं। अनेक ऐसी थीं जिन्हें प्रकट करना अपने जीवनकाल में उपयुक्त नहीं समझा गया सो नहीं भी छपाई गई। उन दिनों के अखंड ज्योति के अंक हम देखें तो  साधक की डायरी के पृष्ठ  ‘सुनसान के सहचर’ आदि शीर्षक से प्रकाशित हुए।  ये जो लेख अखण्ड-ज्योति पत्रिका में छपे वे लोगों को बहुत ही अच्छे लगे।  बात पुरानी हो गई पर लोगों की दिलचस्पी बढ़ती ही गयी  लोग इन लेखों को  पढ़ने के लिये उत्सुक थे। सो फिर निर्णय लिया गया कि  इन लेखों को पुस्तकाकार में प्रकाशित कर देना चाहिए। इस तरह “सुनसान के सहचर” नामक  पुस्तक का जन्म हुआ। घटनाक्रम अवश्य पुराने हो गए  हैं  पर उन दिनों की जो विचार अनुभूतियां उठती रहीं, वे स्थाई हैं, अनंत हैं।  उनकी उपयोगिता  और महत्व में समय के पीछे पड़ जाने के कारण कुछ भी  अन्तर नहीं आया है। आशा की जानी चाहिये वे भावनाशील अन्तःकरणों को वे अनुभूतियां अभी भी गुरुदेव की  ही तरह  स्पंदित कर सकेंगी और पुस्तक की उपयोगिता एवं सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।

जब हम पुस्तक की उपयोगिता देख रहे थे हमने देखा कि  स्कैन कॉपी के प्रथम पन्ने  पर दर्शाया गया है कि इस  पुस्तक को  Faculty of arts के  graduate स्तर के सिलेबस  की पढ़ाई में मान्यता प्राप्त है।  टेक्स्ट कॉपी में ऐसा कोई वर्णन नहीं मिला ,साथ  ही हम यह जानने में असफल रहे कि  यह मान्यता किस यूनिवर्सिटी द्वारा दी गयी है, शायद देव संस्कृति यूनिवर्सिटी ही हो।   एक और बात जो देखने वाली है- वह यह कि जिस पुस्तक को आधार  बना कर हम यह लेख लिख रहे हैं 2003 का एडिशन हैं और उस एडिशन का मूल्य केवल 15  रूपए है। 119 पन्नों की पुस्तक ,केवल पुस्तक ही नहीं बल्कि ज्ञान-अमृत कहें तो गलत नहीं होगा इतना कम मूल्य। हम अपने लेखों में कई बार कह चुके हैं कि  परमपूज्य गुरुदेव का साहित्य लागत  से भी कम मूल्य पर उपलब्ध है ,इसका कारण तो एक ही हो सकता है कि कोई यह बहाना न लगा सके कि  यह साहित्य हमारी जेब से बाहिर है।  और हम तो यह कहेंगें कि ऐसे अनमोल साहित्य को किसी भी कीमत पर लेकर पढ़ना चाहिए। हमने कल वाले लेख भी लिखा था कि आजकल गुरुदेव का साहित्य और भी सुलभ और फ्री उपलब्ध हो गया है।  आप  http://literature.awgp.org/ वेबसाइट से फ्री डाउनलोड भी कर सकते हैं।  लेकिन अभी  सारा साहित्य digitilize नहीं हुआ है।   

धरती का स्वर्ग कहाँ  पर है ? 

बद्रीनारायण से लेकर गंगोत्री के बीच का लगभग 400 मील परिधि का वह स्थान है, जहां प्रायः सभी देवताओं और ऋषियों का तप-केन्द्र रहा है। इसे ही धरती का स्वर्ग कहा जा सकता है। स्वर्ग कथाओं से जो घटनाक्रम एवं व्यक्ति चरित्र जुड़े हैं, उनकी यदि इतिहास, भूगोल से संगति मिलाई जाय तो वे धरती पर ही सिद्ध होते हैं। इस  बात से बहुत वजन मालूम पड़ता है जिसमें इन्द्र के शासन एवं आर्य सभ्यता की संस्कृति का उद्गम स्थान हिमालय का उपरोक्त स्थान बनाया गया है। अब वहां बर्फ बहुत पड़ने लगी है। ऋतु परिस्थितियों की श्रृंखला में अब वह हिमालय का हृदय” असली उत्तराखण्ड इस योग्य नहीं रहा कि वहां आज के दुर्बल शरीरों वाला व्यक्ति निवास स्थान बना सके। इसलिये आधुनिक उत्तराखण्ड नीचे चला गया और हरिद्वार से लेकर बद्रीनारायण-गंगोत्री-गोमुख तक ही उसकी परिधि सीमित हो गई है।

हिमालय के हृदय  नामक क्षेत्र   में जहां प्राचीन स्वर्ग की भी विशेषता विद्यमान है, वहां तपस्याओं से प्रभावित शक्तिशाली आध्यात्मिक क्षेत्र भी विद्यमान है। गुरुदेव के  मार्ग दर्शक (दादा गुरु ) वहां रहकर प्राचीनतम ऋषियों की इस तप संस्कारित भूमि से अनुपम शक्ति प्राप्ति करते हैं। कुछ समय के लिये गुरुदेव को  भी उस स्थान पर रहने का सौभाग्य मिला और वे दिव्य स्थान उन्हें  भी देखने में आये।  उनका जितना दर्शन हो सका उसका वर्णन उन वर्षों की  अखण्ड-ज्योति में प्रस्तुत किया गया था। उन लेखों के पढ़ने से  संसार में एक ऐसे स्थान का पता चलता है, जिसे ‘आत्म-शक्ति का ध्रुव’ कहा जा सकता है। धरती के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुवों में विशेष शक्तियां हैं। आध्यात्म शक्ति का एक ध्रुव परमपूज्य गुरुदेव के अनुभव में भी  आया  जिसमें अत्यधिक महत्वपूर्ण उपलब्धियां भरी पड़ी हैं। सूक्ष्म शक्तियों और शरीरधारी सिद्धपुरुषों  की शक्तियों की दृष्टि से यह प्रदेश बहुत ही उपलब्धियों का स्रोत है। परमपूज्य गुरुदेव ने इस पुस्तक में और अन्य पुस्तकों में भी इस दिव्य केंद्र की महत्ता पर बहुत ही ज़ोर दिया है। इसका कारण यही है कि लोगों का ध्यान इस दिव्य केंद्र की ओर  बना रहे  और इसकी शक्ति को हमेशा अपने अंतःकरण में स्थापित करते रहें। परमपूज्य गुरुदेव को अपने बच्चों का इतना ख्याल रहता है कि उन्होंने युगतीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार में देवात्मा हिमालय का मंदिर ही स्थापित कर दिया ताकि अगर मेरे बच्चे इस मंदिर के अंदर बैठ कर साधना करें ,ध्यान लगाएं तो अपनेआप को दिव्य सत्ताओं के संरक्षण में अनुभव करें।  आपको जब भी युगतीर्थ शांतिकुंज में जाने का सौभाग्य प्राप्त होता है तो समाधि स्थल ,अखंड दीप ,गायत्री मंदिर ,सप्तऋषि क्षेत्र के दर्शन तो करें हीं  लेकिन देवात्मा हिमालय मंदिर  जाना न भूलें।  हम तो यह कहेंगें कि आप इस मंदिर में सीढ़ियों पर बैठ कर दिव्यता का अनुभव अवश्य ही करें।  

धन्यवाद् और आप प्रतीक्षा  करिये  एक और अद्भुत लेख के लिए। 

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं  कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s



%d bloggers like this: