वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

1 जुलाई  2021 का ज्ञानप्रसाद – अगर मानव पुरषार्थ करता रहे तो ?

1 जुलाई  2021 का ज्ञानप्रसाद – अगर मानव पुरषार्थ करता रहे तो ?

कल वाला लेख थोड़ा उच्स्तरीय था क्योंकि दो  भारी  भरकम शब्द जिन पर हमने सारा लेख आधारित किया था  आज के लेख की पृष्ठभूमि तो बनाते ही हैं लेकिन  समझने में इतने सरल नहीं थे।  यहाँ पर आता है आज के युग का यूट्यूब और गूगल का ज्ञान जिसे हम अक्सर self -study  कहते हैं।  self -study  से अक्सर कई काम तो चल जाते हैं लेकिन अगर कोई ग़ूढ  ज्ञान प्राप्त करना हो तो फिर उसकी तह तक जाने की आवश्यकता होती है। इसीलिये  हमने  Ph.D डिग्री का रेफरन्स दिया था। 

गायत्री मन्त्र जिसे  महामंत्र की संज्ञा दी गयी है, अगर अनुवाद करें तो बुद्धि और विवेक की ही तो बात हो रही है और उस परमसत्ता को निवेदन किया जा रहा है कि  वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर जाने को प्रेरित करें। यही है विवेकशीलता – सही समय पर सही फैसला , बुद्धि का सही उपयोग मनुष्य को सफलता की उन  ऊंचाइयों  तक ले जाता है जिसका  वह अनुमान भी नहीं कर सकता। लेकिन इंसान की प्रवृति ऐसी है कि वह  केवल इस शरीर  को ही सब कुछ समझ बैठा है।  मनुष्य इस शरीर से ऊपर ,कहीं  बहुत ऊपर कुछ और भी है।  वह इस शरीर के पालन पोषण में सारा जीवन व्यतीत कर देता है।  भूख लगना  एक प्राकृतिक प्रक्रिया है लेकिन मनुष्य यह भूल जाता है कि  उसी  भगवान ने जिस दिन इस मानव को पैदा किया  था तो  यह विश्वास दिलाया था कि ‘ हे मनुष्य, जब तक तू जिंदा रहेगा, तब तक बराबर कोशिश करता रहूँगा और बराबर तेरी सहायता करता रहूँगा। कोई भी दिन ऐसा नहीं आएगा  कि “अगर तू अपना पुरुषार्थ करता रहा,” तो पेट भरने के लिए कमी पड़े।  यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात हमने  commas  में लिखी है और वह है –अगर तू अपना पुरुषार्थ करता रहा – तो।  इसीलिए तो GOD HELPS THOSE WHO HELP THEMSELVES का सन्देश  इतना  प्रभावशाली है। माँ के पेट के अंदर से  ही भगवान  हमारा संरक्षण कर रहे हैं, जन्म लेते ही गर्म-गर्म दूध मिल रहा है ,  कपड़े  धोने के लिए तुम्हारी माता  है ,तेरा खर्च उठाने के लिए तुम्हारे  पिता हैं।  यह सब तुम्हारे संरक्षक हैं और मेरे ही नुमायंदे हैं।  भगवान  तो कहते हैं – जब में कीड़ों मकोड़ों का पेट भरता हूँ तो तुम्हे पेट भरने की चिंता क्यों होनी चाहिए। हाय  रे मनुष्य तू अपना कर्तव्य ही भूलता चला गया ,केवल इस शरीर को ही सब कुछ समझता रहा और गायत्री मंत्र के शिक्षण को भूलता गया और लात से रौंदता ही चला गया।  पेट पालन के चक्र में मनुष्य  ऐसी भगदौड़ और मृगतृष्णा में उलझ गया  कि उसे और ही कई प्रकार की आदतें  लग गयीं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण थी  दूसरों के ऊपर अपना रौब जमाना  और दूसरों की आँखों में बड़ा मनुष्य  बनने का इच्छुक होना । उसे  समस्त जीवन यही लगता रहा कि अगर मनुष्य  इस तरह का नहीं बना, तब उसकी सारी सामर्थ्य और सारी-की सारी जो विशेषताएँ हैं, भगवान ने जिनके लिए मनुष्य को बनाया है, वे उसके पास नहीं रह जाएँगी। मनुष्य निकम्मा और बेकार होकर रह जाएगा। मनुष्य का अहंकार जब तक बना रहा, उसकी पूर्ति में जब तक वह इच्छुक है, तब तक वह भगवान की इच्छा को पूरा नहीं कर सकता। न उसके पास समय बच सकता है, न शक्ति, न पैसा बच सकता है। अहंकार इंसान  का बादल के बराबर, सुरसा के मुंह के बराबर है। इतना बड़ा है कि उसमें एक जीवन क्या, हजारों जीवन समाप्त हो जाएँ, तो भी इसकी पूर्ति नहीं हो सकती। और इन विकारों में डूबा हुआ इंसान यह उम्मीद लगाता रहा कि उसे भगवान का प्यार मिलेगा, ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ मिलेंगी। यह  कैसे संभव हो सकता है।  मनुष्य तो अपने आप को ही सजने –  संवारने में लगा रहा ,कभी  सोचा भी नहीं कि भगवान ने अपना प्रतिनिधि बनाकर क्यों इस धरती पर भेजा था। ऋतंभरा प्रज्ञा यह सिखाती है कि मनुष्य  कभी भी अहंकार में न  डूबे । बड़ा  बनने की चाह और ललक में अपने जीवन को बरबाद न  करे। ऋतंभरा प्रज्ञा के तीन शिक्षण हैं, गायत्री मंत्र के तीन चरण हैं । ऋतंभरा अर्थात ब्रह्मविद्या, ऋद्धियों-सिद्धियों से भरी विद्या। इसका स्वरूप समझा जाना चाहिए जैसा कि गुरुदेव ने अपने जीवन में इस महाविद्या का स्वरूप समझने की कोशिश की।गुरुदेव ने ऋतंभरा प्रज्ञा का पहला चरण यह समझने की कोशिश की कि मनुष्य को यश का भूखा नहीं होना चाहिए, बड़प्पन का भूखा नहीं होना चाहिए, अहंकार का पुतला नहीं होना चाहिए। इसका एक उदाहरण हम बार बार अपने लेखों में वर्णित कर चुके हैं।  गुरुदेव ने चौबीस वर्ष तक अपने मार्गदर्शक की आज्ञा का पालन किया और अपने बारे में जब भी किसी ने पूछा ,कोई वीडियो बनानी चाही तो उन्होंने कहा – हम कोई राजेश खन्ना हैं ,कोई  धर्मेंद्र हैं क्या हमारी वीडियो बनायेगें। जब वीडियो बनवाई भीं तो केवल ज्ञानप्रसार के लिए न कि विज्ञापन के लिए।  हम सब अपने आपकी  गुरुदेव के साथ तुलना  तो कदाचित नहीं कर सकते लेकिन उनसे मार्गदर्शन लेकर  अहंकार और यश प्राप्ति  को  अपने से दूर भगाने का संकल्प तो ले ही सकते हैं। इसीलिए हम  अक्सर ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार के स्तम्भों का स्मरण करते  रहते हैं जिन पर यह अद्भुत भवन टिका हुआ है।  इतना ही नहीं अपने सहकर्मियों के साथ भी इन मानवीय मूल्यों को शेयर  करते रहते हैं।  हम बहुत ही सौभाग्यशाली हैं कि  छोटे -छोटे बच्चों से लेकर वरिष्ठ सहकर्मियों तक सभी  एकजुट होकर ज्ञानरथ की गतिविधियों में सहयोग दे रहे हैं। आदरणीय सुनैना बहिन जी ने व्हाट्सप्प पर कमेंट करके लिखा है ,”विचार क्रांति का जो मिशाल आप अपने हाथ मे थामे है वह सराहनीय है।” धन्यवाद् सुनैना जी। 

ऋतंभरा प्रज्ञा का एक और चरण है जो इन्द्रियों से सम्बंधित है। इंद्रियाँ मनुष्य की बनाई गई थीं, इसलिए कि मनुष्य का जीवन आनंद से भरा हुआ रहे, उल्लास से भरा हुआ रहे। इस विवेकशील प्राणी को हँसने-हँसाने की, उल्लास की विद्या आनी चाहिए। इसके लिए उसे जिह्वा, कान, आँखें एवं कामेंद्रियाँ मिली हुई थीं। सारी-की-सारी इसलिए कि मनुष्य आनंदित होकर जिए। पर हाय रे अभागे मनुष्य! इन इंद्रियों के अंदर जो ब्रह्मवर्चस-ब्रह्मतेज था, उन्हें नष्ट करता हुआ चला गया। जीभ का सही उपयोग आया होता, तो उसे चाहिए था कि  हर इंसान से मीठा वचन और प्यार का वचन बोला होता, उल्लास और आनंद से भरने वाला वचन बोला होता, इंसान  को आगे बढ़ाने वाला वचन बोला होता। लेकिन यह  मानव  जिह्वा-इंद्रिय का ठीक से  उपयोग न कर सका। आये दिन हम सब ऐसी  घटनाओं को सुनते आ रहे हैं जिनमें सबसे बड़ा और खतरनाक अंश हमारी  जिह्वा का ही है।  इस  जिह्वा ने हमारे समाजिक और पारिवारिक वातावरण को एक प्रकार से नर्क सा बना कर रख दिया है।  इस जिह्वा पर हमने ज़रा सा भी कण्ट्रोल न किया  यदि किया होता, तो हम में ,आप में से हर कोई सौ वर्ष जिया होता। उल्लास और आनंद की बात आयी तो  मनुष्य  ने  नशे किये , जायके के लिए मिरच-मसाले खाए, जो हमारे भोजन  में शामिल नहीं थे। यहाँ पर हमने केवल एक ही इन्द्रिय की चर्चा की है – जिह्वा-इंद्रिय – अगर  साहस  करके बाकि की इन्द्रियों  की भी  चर्चा करें तो अवश्य ही मनुष्य का  

जीवन  निकृष्ट और पापी जीवन लगते देर न लगेगी। 

कुछ समय पूर्व हमने ऋद्धि और सिद्धि  पर एक विस्तृत लेख लिखा था।  ऋद्धियों और सिद्धियों के बारे में अनेक बातें बताई जाती हैं। यह कहा जाता है कि मंत्र अनेक सामर्थयों  के पुंज हैं, शक्तियों के, सिद्धियों के पुंज हैं। क्या यह बात सही है? हाँ, यह बात सही है केवल तब जब  गायत्री महामंत्र के स्वरूप को समझा जाए और जीवन में धारण किया जाए । गायत्री का स्वरूप ही न समझा जाए और उपासना  जिस तरीके से करनी चाहिए  उस तरीके से न की जाए, तो उससे न तो भीतर से सिद्धियाँ उपजती हैं, न विभूतियाँ। गायत्री महामंत्र का  स्वरूप क्या है ? स्वरूप यह कि मनुष्य का जो विवेक सो गया है, उसे जाग्रत किया जाए।

परमूज्य गुरुदेव द्वारा लिखित प्रथम पुस्तक “मैं क्या हूँ” हम सभी  को  पढ़नी चाहिए   युगतीर्थ शांतिकुंज  स्थित गायत्री मंदिर के बगल में “ भटका हुआ देवता “ , विश्व का एकमात्र मंदिर है जिसमें जाकर हमें अपने जीवन से सम्बंधित कई प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं ,ऐसे प्रश्न जिनके समाधान से मानव से महामानव बना जा सकता है।  देश विदेश से आने वाले  साधकों ने कई बार कहा  है – This unique  temple must have been designed and created by a great scientist .  अगर हो सका  तो कल वाला लेख इस अद्भुत मंदिर पर ही आधारित करेंगें। 

जय गुरुदेव   

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं  कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् 

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