23 जून 2021 का ज्ञानप्रसाद : परमपूज्य गुरुदेव द्वारा दी गयी प्रथम गुरुदीक्षा

आज का लेख बहुत ही छोटा है। गायत्री तपोभूमि का ही दूसरा पार्ट कह सकते हैं क्योंकि लेख की लम्बाई के कारण इसे कल वाले लेख में शामिल न किया जा सका। इस लेख में आप गुरुदेव द्वारा दी गयी प्रथम गुरुदीक्षा का वर्णन तो पढेंगें ही ,उसका कारण भी जानेंगें। लेख आरम्भ करने से पूर्व आइये हम सब संकल्प लें कि हमारी सबसे नई सहकर्मी और बिटिया संजना कुमारी को प्रोत्साहित करने की कोई भी कसर बाकी नहीं छोड़ेंगें। इस युवा पीढ़ी/ बच्चों को हम सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहेंगें। लगभग 10 घंटे लगाकर हमने उस बच्ची द्वारा लिखी और बोली गयी कविता को अंतिम रूप दिया है ,हमें बहुत ही प्रसन्नता हुई है। बच्ची और उसके परिवार के साथ हमारी लगभग एक घंटा बात हुई ,बहुत ही प्रतिभाशाली परिवार है। हो सकता है कल वाले लेख में आप केवल वीडियो ही देख सकें ,ऐसा केवल इसलिए कि आप इस वीडियो को अधिक से अधिक परिजनों में शेयर करके इस बच्ची का उत्साहवर्धन करें। आप हमारा उत्साहवर्धन तो करते ही हैं ,अब इसकी बारी है , बाकी बच्चों की तरह यह भी हम सबकी बिटिया रानी है। इस कविता में बहुत ही ह्रदय विदारक वाणी, लेखनी और भाव व्यक्त किये हैं। तो चलें लेख की ओर ।
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साधना की सफलता का मूल तो साधक की अटूट निष्ठा एवं आत्मशोधन है, किंतु एक पक्ष जो बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, वह है सुसंस्कारित साधनास्थली में साधना करने की सुविधा उपलब्ध होना। जहाँ यह उपलब्ध हो जाती है, वहाँ थोड़े ही पुरुषार्थ से दिव्यदर्शी साधक अपना लक्ष्य सिद्ध कर लेते हैं। पर पूज्य गुरुदेव ने अपनी जीवनयात्रा के साधना कालरूपी पूर्वार्द्ध की पूर्णाहुति के लिए एवं भावी गतिविधियों को क्रियारूप देने के लिए जिस स्थान का चयन किया, वह महर्षि दुर्वासा की तपःस्थली थी। यह स्थान यमुना किनारे मथुरा से वृंदावन जाने वाले मार्ग पर स्थित है। परमपूज्य गुरुदेव के स्वयं के शब्दों में मथुरा में गायत्री तीर्थ बनने की योजना किसी व्यक्ति के संकल्प से नहीं, वरन माता की प्रेरणा से बनी है। कितने ही सूक्ष्म एवं रहस्यमय कारणों से वह स्थान मथुरा चुना गया। आज यही स्थान विश्वभर में गायत्री तपोभूमि नाम से प्रख्यात हुआ। आजकल (2019 से ) तपोभूमि में निर्माणधीन कार्य चल रहा है।
भूमि का चयन करना और उससे भी कठिन कार्य निर्माण का होता है। धर्मधारणा भारत में आज भी जिंदा है, पर उन दिनों जब चारों ओर मूढ़मान्यताएँ घर किए हुए थीं और गायत्री के संबंध में भ्रांतियाँ संव्याप्त थीं , यह काम भगीरथ के गंगावतरण के समान दुष्कर ही था। गुरुदेव ने पाठकों की मनोभूमि बनाई एवं गायत्री तीर्थ बनाने की आवश्यकता बताते हुए प्रेरणा जगाई। यों, यह कार्य गुरुदेव ,इस युग के विश्वामित्र, अकेले भी कर सकते थे , पर परिजनों के अंश-अंश सहयोग द्वारा उनका अपनत्व संस्था से जोड़ते हुए ही वह कार्य होना है, यही उनका लक्ष्य था। साथ ही सहयोग देने वाले हर व्यक्ति को उन्होंने ‘गायत्री-उपासक‘ कहा तथा प्रत्येक से हाथ से मंत्र लेखन व नियमित अनुष्ठान करने को कहा। उनके स्वयं के चौबीस महापुरश्चरणों की समाप्ति का समय आ रहा था। गायत्री जयंती, 1953 में उसकी औपचारिक पूर्णाहुति होनी थी। अखण्ड ज्योति, नवंबर 1951 के अंक में गायत्री तपोभूमि का संभावित रूप क्या होगा; इसका एक चित्र छापा व उसके नीचे एक पंक्ति दी, –
‘देखें, किन्हें पुण्य मिलता है; इस पवित्र तीर्थ को बनाने का।’
यहाँ हम यह कहना अनिवार्य समझते हैं कि जो सहकर्मी अपना अमूल्य समय निकाल कर ऑनलाइन ज्ञानरथ में अपना सहयोग दे रहे हैं उन्हें कितना पुण्य मिलेगा ,स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं। हम कोई ज्ञानी तो नहीं हैं लेकिन अपने विवेक और बुद्धि के अनुसार बच्चों और अन्य सहयोगियों में प्रेरणा की अग्नि प्रजव्लित करने का परया करते रहते हैं। हम समझते हैं कि प्रेरणा और प्रोत्साहन ज्वलंत अग्नि की चिंगारी प्रकट कर सकते हैं।
1952 की गायत्री जयंती, तक परमपूज्य गुरुदेव ने हस्तलिखित गायत्री मंत्र चौबीस लाख की संख्या में गायत्री तपोभूमि पहुँचाए जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की। प्रत्येक व्यक्ति से 2400 मंत्र लिखकर भेजने को कहा। इस प्रकार एक हजार चुने हुए साधकों द्वारा इस लक्ष्यपूर्ति के लिए तिथि निर्धारित कर दी व उस दिन तक उन्हें हस्तलिखित गायत्री मंत्र प्राप्त हो गए। पर मंदिर निर्माण अभी भी होना था। दिसंबर, 1952 की अखण्ड ज्योति में उन्होंने घोषणा कर दी कि 1953 की गायत्री जयंती को कई महान कार्यों की पूर्णाहुति होगी।
उसमें प्रथम थी-सहस्रांशु गायत्री ब्रह्मयज्ञ की पूर्णाहुति, 125 करोड़ गायत्री महामंत्रों का जाप, 125 लाख आहुतियों का हवन, 125 हजार उपवास तीनों ही पूरे होने आ रहे थे, वे सभी गायत्री जयंती तक पूरे हो जाने की संभावना उन्होंने व्यक्त की थी। दूसरा था-सवा करोड़ हस्तलिखित मंत्रों के संकल्प की पूर्ति व उसकी भी पूर्णाहुति।
तीसरा था-स्वयं के 24-24 लाख के 24 पुरश्चरणों की पूर्णाहति । चौथा था-गायत्री मंदिर में गायत्री माता की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा। ऋषिकल्प सात्त्विकता का इस आयोजन में पूरा ध्यान रखे जाने का उन्होंने आश्वासन दिया और स्वयं 15 वैशाख से 10 ज्येष्ठ तक चौबीस दिन मात्र गंगाजल पीकर, निराहार उपवास रखने की घोषणा की।
यह प्राण-प्रतिष्ठा पर्व कितना महत्त्वपूर्ण था, इसको भली भाँति समझा जा सकता है जब हम देखते हैं कि इसके लिए पूर्व से पूज्य गुरुदेवं ने क्या-क्या तैयारियाँ की थीं। 1) भारतवर्ष के सभी 2400 प्रमुख तीर्थों का जल एवं सभी सिद्धपीठों (51 ) की रज एकत्रित कर, सभी तीर्थों व सिद्धपीठों को गायत्री तीर्थों में प्रतिनिधित्व देने की घोषणा कर छह माह में यह कार्य पूरा भी कर लिया। बारह महाशक्तिपीठों का चरणोदक भी स्थान-स्थान से मँगाया गया। 2 ) साढ़े सात सौ वर्षों से जल रही एक महान सिद्धपुरुष की धूनी की अग्नि की स्थापना करने की बात भी कही गई।
इस आयोजन में बहुत बड़ी भीड़ को नहीं, मात्र 125 गायत्री-उपासकों को बुलाया गया, जिन्होंने संतोषजनक ढंग से समस्त विधि-विधानों को पूरा कर गायत्री-उपासना संपन्न की थी। साथ ही ज्ञानवृद्ध, ,आयुवृद्ध, लोकसेवी,पुण्यात्मा सत्पुरुषों के पते भी माँगे गए, ताकि उनसे इस पुण्य आयोजन हेतु आशीर्वाद लिया जा सके। कितना सुनियोजित व शालीनता, सुव्यवस्था से भरा-पूरा आयोजन होगा जिसमें स्वयं को “सिद्ध पुरष न बताकर” सबके आशीर्वाद माँगे, ताकि भूमि के संस्कारों को जगाकर एक सिद्धपीठ विनिर्मित की जा सके। सब कुछ इसी प्रकार चला एवं चौबीस दिन का जल-उपवास पूज्य गुरुदेव ने निर्विघ्न पूरा किया। जो साधक ब्रह्मयज्ञ में आए थे, उन्हें मात्र दूध दिया जाता व लकड़ी की खड़ाऊँ पर चलने, यथासंभव सारी तप-तितिक्षाओं का निर्वाह करने को कहा गया। गायत्री जयंती के दिन वाराणसी से पधारे तीन संतों ने ब्रह्मयज्ञ की शुरुआत की। अरणि-मंथन द्वारा अग्नि प्रज्वलन का प्रयास किया गया, पर तीन-चार बार करने पर भी असफलता हाथ लगी। पूज्य गुरुदेव अधूरे बने गायत्री मंदिर के फर्श पर बैठे सारी लीला देख रहे थे। उनने जटापाठ, घनपाठ, सामगान के लिए उपयुक्त निर्देश दिए तथा अरणि-मंथन हेतु आई काष्ठ को अपने हाथ से स्पर्श कर गायत्री मंत्र जप कर वापस किया। एक सहयोगी को बुलाकर कहा कि नारियल की पूँज लाओ। उसके आने पर उसमें भी मंत्रोच्चारण द्वारा प्राण फूंके तथा पुन: अरणि-मंथन किए जाने का निर्देश दिया। जैसे ही काष्ठों का घर्षण हुआ, मूंज को स्पर्श करा दिया, वैसे ही तुरंत अग्नि प्रज्वलित हो उठी; इसी यज्ञकुंड में धूनी की अग्नि स्थापित कर दी गई। यज्ञ पूर्ण हुआ एवं संध्या को सभी के साथ संतरे का रस लेकर पूज्य गुरुदेव ने अपना उपवास तोड़ा।
एक गायत्री अनुष्ठानरूपी महायज्ञ, जो सन् 1926 में इस महापुरुष ने आरंभ किया था, की पूर्णाहुति इस पावन दिन हुई।
अपने जीवन की पहली गुरुदीक्षा :
घोषणा की गई कि आगामी पाँच वर्षों में एक शतकुंडीय यज्ञ, एक नरमेध यज्ञ एवं एक सहस्रकुंडीय महायज्ञ अंत में संपन्न होगा, जिसमें विराट स्तर पर गायत्रीसाधक भाग लेंगे। पूर्णाहुति के दिन ही उनने शाम को एक और घोषणा की कि अभी तक उन्होंने किसी को गुरु के नाते दीक्षा नहीं दी है। अभी तक सत्यधर्म की दीक्षा ही वे देते आए हैं। अब वे अगले दिन प्रातः “अपने जीवन की पहली गुरुदीक्षा देंगे।” जो लेना चाहें, वे उस दिन उपवास रखें। स्वयं वे भी निराहार रहेंगे तथा अपने समक्ष साधकों को बिठाकर यज्ञाग्नि की साक्षी में दीक्षा देंगे। दीक्षा का यह प्रारंभिक दिन था व इसके बाद अनवरत क्रम चल पड़ा। यही दिन दीक्षा के लिए क्यों चुना। यह एक साधक द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि 24 लाख के चौबीस महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति व चौबीस दिन के जल-उपवास की समाप्ति पर उनमें अब पर्याप्त आत्मबल का संचय हो चुका है तथा अब वे अपनी परोक्षसत्ता के संकेत पर अन्यों को अपने मार्ग पर चलने की विधिवत् आध्यात्मिक प्रेरणा दे सकते हैं। ब्रह्मवर्चस् संपन्न गुरुदेव ने पूर्णाहति के अगले दिन वाले गुरुवार से दीक्षा देना आरंभ किया व उनके माध्यम से स्थूल-सूक्ष्मरूप में ज्ञानदीक्षा, प्राणदीक्षा, संकल्पदीक्षा लगभग पाँच करोड़ से अधिक व्यक्ति उनके महानिर्वाण तक ले चुके थे।
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव