वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परमपूज्य गुरुदेव का महाप्रयाण

18 जून 2021 का ज्ञानप्रसाद :

परमपूज्य गुरुदेव का महाप्रयाण 21  जून  2021 –परमपूज्य गुरुदेव की पुण्यतिथि पर उनके प्रति सच्ची 

श्रद्धांजलि 

अगर हम अंग्रेजी कैलेंडर  के हिसाब से ही चलें तो परमपूज्य गुरुदेव का महाप्रयाण 2 जून 1990 को  गायत्री जयंती वाले दिन  हुआ था परन्तु तिथियों के मुताबिक इस वर्ष (2021) को  गायत्री जयंती ज्येष्ठ शुक्ल दशमी 21 जून को  पड़ती है। 20 जून,4 :21 दोपहर से 21  जून दोपहर 1 :31 तक।   गुरुदेव ने स्वयं यह महान  दिन अपने महाप्रयाण के लिए चुना। कई वर्ष पूर्व ही गुरुदेव ने अपने महाप्रयाण के संकेत देने और घोषणा करनी आरम्भ कर दी थी। परमपूज्य गुरुदेव कोई साधारण आत्मा तो थे नहीं – वह  स्वेच्छा से अपने स्थूल शरीर का त्याग करके सूक्ष्म में विलीन होने की सामर्थ्य रखते थे।  इस टॉपिक पर हमने कई लेख लिखे हैं ,कई वीडियो बनाई हैं ,हमारे सहकर्मी हमारे चैनल को browse कर सकते हैं।

क्या है महानता  21 जून 2021 की ?    

‘गंगा’ का महत्व भारतीय समाज में कितना है, इसे शब्दों में नहीं लिखा जा सकता। पुण्यसलिला, त्रिविध पापनाशिनी भागीरथी ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन इस धराधाम पर अवतरित हुई, इसलिए इस पर्व को ‘गंगा दशहरा’ कहा जाता है।ऐसी मान्यता है कि दस महापातक (महापाप ) भी गंगा का तत्वदर्शन जीवन में उतारने से छूट जाते हैं, । गंगा के समान ही पवित्रतम हिंदूधर्म का आधार स्तम्भ गायत्री महाशक्ति के अवतरण का दिन भी यही पावन तिथि है, इसलिए इसे ‘गायत्री जयंती’ के रूप में मनाया जाता है। गायत्री को वेदमाता, ज्ञान-गंगोत्री एवं आत्मबल-अधिष्ठात्री कहते हैं। यह गुरुमंत्र भी है एवं भारतीय धर्म के ज्ञान विज्ञान का आदिस्रोत भी। गायत्री को एक प्रकार से ज्ञानगंगा कहा जाता है एवं इस प्रकार गायत्री महाशक्ति एवं गंगा दोनों का अवतरण एक ही दिन क्यों हुआ, यह भलीप्रकार स्पष्ट हो जाता है। 

एक तरफ  भागीरथ ने तप करके गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारा था, तो दूसरी तरफ महर्षि  विश्वामित्र ने प्रचण्ड तप साधना करके गायत्री को देवताओं तक सीमित न रहने देकर सर्वसाधारण के हित के लिए इस  जगत तक पहुँचाया। दोनों ही पर्व एक तिथि पर आने के कारण भारतीय संस्कृति की विलक्षणता भी सिद्ध होती है एवं इस पर्व को मनाने का माहात्म्य भी हमें ज्ञात होता है।

गायत्री जयंती -गंगा दशहरा का दिन गुरुदेव द्वारा महाप्रयाण का चयन :

एक और विलक्षण तथ्य  गायत्री परिजनों को भलीभाँति विदित है कि इस विराट गायत्री परिवार के अभिभावक-संरक्षक- संस्थापक वेदमूर्ति तपोनिष्ठआचार्य पं. श्रीराम शर्मा जी ने अपने स्थूल शरीर के बंधनों से मुक्त होकर इसी पावन दिन माँ गायत्री की गोद में स्थान पाया था। हमारे अधिष्ठाता-गायत्री महाविद्या के तत्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने वाले परमपूज्य गुरुदेव ने अपने पूर्वकथन द्वारा इसी पावन दिन का चयन कर स्वयं को सूक्ष्म में विलीन किया  था। हमारे परमपूज्य गुरुदेव जिन्हे इस युग के भागीरथ  एवं विश्वामित्र की संज्ञा  प्राप्त है, जिन्होंने अस्सी वर्ष की आयु में चार सौ वर्ष के बराबर जीवन जीकर एक अतिमानवी पुरुषार्थ कर दिखाया, उनके लिए और कौन-सी श्रेष्ठ तिथि हो सकती थी।  स्वयं को अपनी आराधक माँ गायत्री की महासत्ता में विलीन करने के लिए  प्रात: आठ बजकर पाँच मिनट पर 2  जून, 1990  (गायत्री जयंती) के पावन दिन, आज से 31  वर्ष पूर्व आचार्यश्री ने अपनी अस्सी वर्ष की सुनियोजित यात्रा सम्पन्न कर महाप्रयाण किया था।

इस वर्ष यह पर्व 21  जून को आ रहा है।

इस पावन पर्व की वेला में गायत्री महाशक्ति को समर्पित एक सच्चे साधक के स्वरूप के विषय में जानने का प्रयास करें, तो हमें इनके द्वारा बताए गए, मार्गदर्शन को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। उनका व्यक्तित्व एक साधक की प्राणऊर्जा का अक्षयकोष था। उन्होंने  साधना के नये आयामों को  खोला एवं इसे गुह्यवाद-रहस्यवाद के लटके-झटकों से बाहर निकालकर सच्ची जीवन साधना के रूप में प्रस्तुत किया। अपने ऊपर प्रयोग करके , स्वयं वैसा जीवन जीकर परमपूज्य गुरुदेव ने  साधना से सिद्धि को परिष्कृत जीवन रूपी प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष के रूप में प्रतिपादित किया, घोषित किया  और प्रमाणित भी किया ।  

हम ढेरों साधकों की जीवनी देखते हैं : हम उनसे क्या शिक्षण लें ? क्या सभी हिमालय चले जाएँ, कुण्डलिनी जगाने के सम्मोहन (hypnosis ) भरे जाल में उलझकर जीवनसंपदा गंवा बैठें  या मरघट में बैठकर तांत्रिक साधना करें?  बिल्कुल  नहीं। हमारे गुरुदेव ने  लोकमानस के बीच रहकर उनके जैसा जीवन जीकर बताया कि अध्यात्म सौ फीसदी व्यावहारिक है, सत्य है एवं इसे उन्होंने अपनी जीवन रूपी प्रयोगशाला में स्वयं अपनाकर देखा व खरा पाया है।साधना व जीवन को दूध व पानी की तरह घुलाकर जैसे जीवनसाधना की जा सकती है, इसे हम गायत्री जयंती के पावनपर्व के प्रसंग में गुरुसत्ता की जीवनी को देख-पढ़, आत्मसात कर अपने लिए भी एक मार्गदर्शन के रूप में पा सकते हैं। 

अभी तक यही धारणा रही है- चाहे वे बुद्ध हों, पतंजलि हों , गोरक्षनाथ हों, आद्यशंकर हों अथवा महावीर हों  -सभी यही करते रहे हैं कि “जीवन और साधना दो विरोधी ध्रुवों पर स्थित शब्द हैं।” जो जीवन से मोह करता हो, वह साधना से लाभ नहीं प्राप्त कर सकता एवं जो साधना करना चाहता हो, उसे जीवन का त्याग करना होगा। संन्यास के रूप में एक श्रेष्ठ परंपरा इसीलिए पलायन का प्रतीक बन गयी और  वैराग्य भिक्षा वृत्ति का चोगा  पहनकर रह गया। परमपूज्य गुरुदेव ने संधिकाल की  वेला में, आस्था संकट की चरम विभीषिका की घड़ियों में , जीवन और साधना को एकाकार करके  प्रस्तुत किया और साधना को जीवन जीने की कला के रूप में प्रतिपादित ही नहीं, प्रमाणित करके दिखा दिया।  परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में न केवल बुद्ध की करुणा दिखाई देती है महावीर का त्याग भी  दिखाई देता है।  सब विलक्षण संयोग  होने पर भी, पूर्वजन्म के सुसंस्कारों की प्रारब्ध जन्य प्रबल प्रेरणा होते हुए भी, उन्होंने जीवन से मुख नहीं मोड़ा-  एक गृहस्थ का जीवन जिया, ब्राह्मणत्व को जीवन में उतारकर दिखाया।  सही अर्थों में “स्वे स्वे आचरण शिक्षयेत्” की वैदिक परम्परा को पुनः जीवित कर  गुरुदेव हम सबके समक्ष एक ज्वलंत उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुए। स्वेस्वे आचरण शिक्षयेत् का अर्थ है – जैसा आचरण एक श्रेष्ठ पुरुष का होता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। हमारे अभिभावक, विराट गायत्री परिवार के पिता न केवल भाव- संवेदना से ओतप्रोत थे, आज की कुटिलताओं से भरी दुनिया में लोकाचार-शिष्टाचार कैसे निभाया जा सकता है, इसके भी श्रेष्ठतम उदाहरण हैं। न जाने कितने चमत्कारों का विश्वकोष पूज्यवर के जीवन से जुड़ा है, पर लौकिक जीवन में वे एक सामान्य, व्यवहार-कुशल, एक सीधे सरल लोकसेवी के रूप में ही प्रतिष्ठित रहे। जीवनभर उन्हें कोई उस रूप में नहीं जान पाया, जिस रूप में महाकाल की अंशधर वह सत्ता हमारे बीच आयी थी।

सूक्ष्मीकरण साधना उनकी चौबीस वर्ष के चौबीस लक्ष के महापुरश्चरणों के प्रायः  32 वर्ष बाद संपन्न हुई थी। यदि महापुरश्चरण गुरु के आदेशों के अनुरूप जीवन को साधक के रूप में विकसित करने हेतु थे, तो सूक्ष्मीकरण का पुरुषार्थ विश्वमानव को केन्द्र बनाकर किया गया प्रचंड साधनात्मक पराक्रम था।  विश्व की कुण्डलिनी  जागरण की दिशा में एक अभूतपूर्व प्रयोग था। उन्होंने लिखा भी कि उनकी उस साधना का उद्देश्य  जन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अगणित भागीरथों  का सृजन था। इसी क्रम में 1988 की  आश्विन नवरात्रि में  उन्होंने युगसंधि महापुरश्चरण की घोषणा की  जिसे बारह वर्ष तक चलना था,  नवयुग के आगमन तक। आज गायत्री जयंती की वेला में , 2021  की गायत्री जयंती की  वेला में -उस महासाधक का पुरुषार्थ याद हो आता है  जिसने  नरपशु-सा जीवन जीने वाले हम सभी को नरमानव के रूप में रूपांतरित कर देवमानव बनने का पथ दिखा दिया। 2021 का वर्ष शांतिकुंज का गोल्डन जुबली वर्ष -स्वर्ण जयंती वर्ष तो है ही ,पूज्य गुरुदेव के मथुरा प्रस्थान का भी स्वर्ण जयंती वर्ष है।  जून 1971 में ही गुरुदेव  तपोभूमि मथुरा छोड़ कर शांतिकुंज हरिद्वार आ गए थे। 

 गायत्री जयंती की वेला में साधना के परिप्रेक्ष्य में अपनी गुरुसत्ता के जीवनक्रम का अध्ययन करने वाले हम  सभी जिज्ञासुओं को उस गायत्री साधक के रूप में सच्चे  ब्राह्मणत्व को जगाने वाला स्वरूप समझ में आना चाहिए। ब्राह्मणत्व रूपी उर्वर  भूमि में ही गायत्री साधना का बीज  पुष्पित-पल्लवित हो वटवृक्ष बन पाता है। गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है- इस मूलमंत्र से जिसने अपनी शैशव अवस्था आरंभ की थी, उसने जीवनभर ब्राह्मण बनने की  जीवन- साधना को अपनाया। 

ब्राह्मण’ शब्द आज एक जाति का परिचायक हो गया है:

 ब्राह्मणवाद, मनुवाद न जाने क्या-क्या  कहकर उलाहने दिये जाते हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने ब्राह्मणत्व को सच्चा आध्यात्मिक  नाम देते हुए कहा कि हर कोई गायत्री महामंत्र के माध्यम से जीवन-साधना द्वारा ब्राह्मणत्व अर्जित कर सकता है। उन्होंने ब्राह्मणत्व को मनुष्यता का सर्वोच्च सोपान कहा। आज जब समाज ही नहीं समग्र राजनीति जातिवाद से प्रभावित नजर आती है, तो समाधान  एक ही  नज़र आता है- 

“परमपूज्य गुरुदेव के ब्राह्मणत्व प्रधान तत्वदर्शन का घर-घर में  विस्तार-प्रचार -प्रसार।” 

न कोई जाति का बंधन हो, न धर्म-संप्रदाय का।हम  सभी विश्वमानवता की धुरी में बंधकर यदि सच्चे ब्राह्मण बनने का प्रयास करें और  समाज से कम-से-कम लेकर अधिकतम देने की प्रक्रिया सीख सकें, आदर्श जीवन जी सकें, तो सतयुग की वापसी दूर नहीं है। गायत्री साधक के रूप में सामान्य जन को अमृत, पारस, कल्पवृक्ष रूपी लाभ सुनिश्चित रूप से आज भी मिल सकते हैं, पर उसके लिए पहले ब्राह्मण बनना होगा। गुरुवर के शब्दों में ब्राह्मण की पूँजी है- विद्या और तप। अपरिग्रही ही वास्तव में सच्चा ब्राह्मण बनकर गायत्री की समस्त सिद्धियों का स्वामी बन सकता है।   अपरिग्रह का अर्थ है कोई भी वस्तु संचित ना करना,इक्क्ठा न करना। 

अगर अगले दिनों  सतयुग य  ब्राह्मण युग  आएगा तो  वह इसी साधना से, जिसे बड़ी सरल बनाकर युगऋषि हमें सूत्र रूप में दे गए एवं अपना जीवन वैसा जीकर चले गए। ब्राह्मण बीज को संरक्षित कर ब्राह्मणत्व को जगा देना सारी धरित्री को गायत्रीमय कर देना ही परमपूज्य गुरुदेव की पुण्यतिथि पर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। जय गुरुदेव 

कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद्

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