परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा लेख 11-दादा गुरु ने कहा ,”विश्वास की कमी रही न ?”

14  जून 2021  का ज्ञानप्रसाद –दादा गुरु ने कहा ,”विश्वास की कमी रही न ?”

आज का लेख परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा का 11वं  और अंतिम लेख है।  कल से हम एक नई श्रृंखला  “ सलाखों के अंदर गायत्री साधना” शीर्षक से आरम्भ कर रहे हैं।  दो कड़ी की यह श्रृंखला बहुत ही अद्भुत और प्रेरणादायक है। गुरुदेव की आत्मकथा के 11 अंक लिखते -लिखते ,हर अंक में यही संदेह रहा कि कैसे पूरी होगी यह श्रृंखला तो उसका उत्तर आज वाले  लेख के शीर्षक में मिल ही गया  -”विश्वास की कमी रही न” परमपूज्य गुरुदेव ने सब कुछ इतनी सहजता से सम्पन्न करा दिया , इतना ही नहीं आपके सबके माध्यम से श्रेय भी हमें ही दे दिया।  धन्य हैं  गुरुदेव आप – कार्य खुद करते हैं  और श्रेय हमें देते हैं – नमन ,नतमस्तक। 

_____________________________    

इसी प्रभात वेला में प्रकाशपुंज मार्गदर्शक के पहले जैसी स्थिति में फिर दर्शन हुए, । देखते ही तन्द्रा आरम्भ हुई और क्रमशः अधिक गहरी होती गई । मूक भाषा में पूछा गया-

इन 24 वर्षों में कोई चित्र-विचित्र अनुभव हुआ हो तो बता ?” 

मेरा एक ही उत्तर था-

“निष्ठा बढ़ती ही गयी है और इच्छा उठती रही है कि अगला आदेश हो और उसकी पूर्ति इससे भी अधिक तत्परता तथा तन्मयता को संजोकर की जाए । आकांक्षा तो एक ही है कि अध्यात्म आडम्बर है या विज्ञान ? इसकी अनुभूति स्वयं कर सकें, ताकि किसी से बलपूर्वक कह सकना सम्भव हो सके ।”

अपनी बात समाप्त हो गयी । मार्गदर्शक ने कहा 

विश्वास में एक पुट और लगाना बाकी है, ताकि वह समुचित रूप से परिपक्व हो सके । इसके लिए 24  लाख आहुतियों का गायत्री यज्ञ करना अभीष्ट है ।” मैंने इतना ही कहा कि-“शरीरगत क्रियाएँ करना मेरे लिए शक्य है, पर इतने बड़े आयोजन के लिए जो राशि जुटाई जाएगी और प्रबन्ध में असाधारण उतार-चढ़ाव आयेंगे उन्हें कर सकना कैसे बन पड़ेगा? निजी अनुभव और धन इस स्तर का है नहीं, तब आपका नया आदेश कैसे निभेगा ?” 

मन्द मुसकान के बीच उस प्रकाशपुंज ने फिर कहा:  

“विश्वास की कमी रही न ? हमारे कथन और गायत्री के प्रतिफल से क्या नहीं हो सकता? इसमें सन्देह करने की बात कैसे उठ पड़ी? यही कच्चाई है, जिसे निकालना है । शत-प्रतिशत श्रद्धा के बल पर ही परिपक्वता आती है।”

मैं झुक गया और कहा: “रूपरेखा बता जाइये । मैं ऐसे कामों के लिए अनाड़ी हूँ।” उन्होंने संक्षेप में किन्तु समग्र रूप में बता दिया कि एक हजार कुण्डों में 24 लाख आहुतियों का गायत्री यज्ञ कैसे हो? इन दिनों जो प्रमुख गायत्री उपासक हैं, उन्हें एक लाख की संख्या में कैसे निमन्त्रित किया जाए ? मार्ग में आने वाली कठिनाइयाँ अनायास ही हल होती चलेंगी। दूसरे दिन से वह कार्य आरम्भ हो गया । चार दिन पहले आयोजन आरम्भ होना था । एक लाख आगन्तुक और इससे दो-तीन गुने दर्शकों के लिए बैठने, निवास करने, भोजन, शयन, लकड़ी, सफाई, रोशनी, पानी आदि के अनेकानेक कार्य एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए थे । जैसे मन में आया, वैसा ढर्रा चलता रहा । आगन्तुकों के पते कलम अपने आप लिखती गई । आयोजन के लिए छह-सात मील का एरिया आवश्यक था । वह कहीं  खाली  मिल गया, कहीं माँगने पर किसानों ने दे दिया । जिनके पास डेरे, तम्बू, राशन, लकड़ी, कुओं में लगाने के पम्प-जेनेरेटर आदि थे, उन सभी ने देना स्वीकार कर लिया । ऐसे कामों में एडवांस माँगने का रिवाज है, पर न जाने कैसे लोगों का विश्वास जमा रहा कि हमारा पैसा मिल जाएगा । न किसी ने देने के लिए कहा और न ही दिया गया । पूरी तैयारी होने में एक महीने से भी कम समय लगा । सहायता के लिए स्वयं-सेवकों का अनुरोध छापा गया तो देखते ही देखते वे भी 500  की संख्या में आ गए । सभी ने मिलजुलकर काम हाथों में ले लिया । नियत समय पर निमन्त्रित गायत्री उपासकों की एक लाख की भीड़ आ गई । उनके साथ ही दर्शकों के हुजूम थे । अनुमान दस लाख आगन्तुकों का किया जाता है । स्टेशनों पर अन्धाधुन्ध भीड़ देखी गयी और बस स्टैण्डों पर भी वही हाल । भले अफसरों ने स्पेशल ट्रेनें और बसें छोड़ना आरम्भ किया । मथुरा शहर से चार मील दूर यज्ञ स्थल था । अपने-अपने बिस्तर सिर पर लादे सभी आते चले जाते थे । एक लाख के ठहरने का प्रबन्ध किया गया था, पर उसी में चार लाख समा गए । भोजन के लंगर चौबीस घण्टे चलते रहे । किसी को भूखे रहने की, छाया न मिलने की शिकायत न करनी पड़ी। कुओं में पम्प वालों ने अपने पम्प लगा दिए । बिजली कम पड़ी तो दूर-दूर कस्बों तक से गैस बत्तियाँ आ गई। टट्टी-पेशाब और स्नान की समस्या सबसे अधिक पेचीदा होती है । वह भी इतनी सुव्यवस्था से सम्पन्न हो गयी कि देखने वाले चकित रह गए। जंगल में पैसा पास न रखने एवं अमानत रूप में दफ्तर में रखने का ऐलान किया गया । फलतः अमानतें जमा होती चली गयीं । सब कुछ व्यवस्था से था । किसी का  पैसा भी  न खोया । देखने वाले इस आयोजन की तुलना इलाहाबाद के कुम्भ मेले से करते थे, पर पुलिस या सरकार का एक भी  आदमी न था । लोगों ने अपनी ओर से डिस्पेन्सरियाँ, प्याऊ व स्वल्पाहार केन्द्र खोल रखे थे। मीलों का एरिया खचाखच भरा हुआ था । यज्ञ नियत समय पर विधिवत होता रहा । यज्ञशाला की परिक्रमा देने तीस पचास मील दूर से अनेकों बसें आई थीं । पूर्णाहुति के दिन हम और हमारी धर्मपत्नी हाथ जोड़कर खड़े रहे । सभी से प्रसाद लेकर (भोजन करके) जाने की प्रार्थना की । न जाने कहाँ से राशन आता गया । न जाने कौन उसका मूल्य चुकाता गया । न जाने किसने इतने बड़े राशन के पर्वत को खा-पीकर समाप्त कर दिया । सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह कि न किसी का एक पैसा खोया, न किसी को चोट लगी और न किसी को ढूंढना-खोजना पड़ा । पैसा कहीं से आता व कहीं से जाता रहा।  स्वयंसेवकों को टिकट दिला दिए गए । लोग कहते थे,

रेत के बोरे आटा बन जाते, पानी का घी बन जाता है, यह किम्बदन्ती यहाँ सही होती देखी गयी । कुम्भ मेलों जैसी संरक्षकों, बजट, टैक्स आदि की यहाँ कोई व्यवस्था न थी । फिर भी सारी व्यवस्था यहाँ सुचारु रूप से ऐसे चल रही थी, मानो किसी यन्त्र पर सारा ढर्रा घूम रहा हो ।

मथुरा के इर्द-गिर्द सौ-सौ मील तक यह चर्चा फैल गयी कि “महाभारत के बाद इतना बड़ा आयोजन इसी बार हो रहा है । जो उसे देख न सकेंगे, जीवन में दुबारा ऐसा अवसर न मिल सकेगा ।”  इस जनश्रुति के कारण आदि से अन्त तक प्रायः दस लाख व्यक्ति उसे देखने आए ।

आयोजन समाप्त होने के बाद भी तीन दिन तक परिक्रमा चलती रही । कुण्डों की भस्म लोग प्रसादस्वरूप झाड़झाड़ कर ले गए। वस्तुतः आयोजन हर दृष्टि से अलौकिक-दर्शनीय था । हजार कुण्ड की भव्य यज्ञशाला । एक लाख प्रतिनिधियों के बैठने लायक पण्डाल, 24  घण्टे चलने वाली भोजन-व्यवस्था, रोशनी, पानी, बिछावट-जिधर भी दृष्टि डाली जाए, आश्चर्य लगता था । सात मील का पूरा क्षेत्र ठसाठस भरा था । पूर्णाहुति के बाद भी तीन दिन तक आगन्तुक भोजन करते रहे । अक्षय भण्डार कभी चुका नहीं । जो आरम्भ में आए थे, उन्होंने जाते ही अपने क्षेत्रों में चर्चा की और बसों-बैलगाड़ियों की भीड़ बढ़ती चली गयी । भीड़ और भव्यता देखकर हर आगन्तुक अवाक रह जाता था । ऐसा दृश्य वस्तुतः इन लाखों में से किसी ने भी इससे पूर्व देखा न था ।

यह गायत्री महा-पुरश्चरण के जप-तप, साधन एवं पूर्णाहुति यज्ञ की चर्चा हुई । “सबसे बड़ी उपलब्धि” इस आयोजन की यह थी कि आमन्त्रित किन्तु अपरिचित गायत्री उपासकों में से प्रायः एक लाख हमारे मित्र, सहयोगी एवं घनिष्ट बन गए । कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर चलने लगे । गायत्री परिवार का इतना व्यापक गठन देखते-देखते बन गया और नवयुग के सूत्रपात का क्रिया-कलाप इस प्रकार चल पड़ा मानो उसकी सुनिश्चित रूपरेखा किसी ने पहले से ही बनाकर रख दी हो।

इति  जय गुरुदेव 

कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद्

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s



%d bloggers like this: