परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा लेख 9-ऋद्धियाँ एवं सिद्धियाँ क्या हैं ?

11 जून 2021 का ज्ञानप्रसाद –ऋद्धियाँ एवं सिद्धियाँ क्या हैं ?

आज का लेख थोड़ा सा लम्बा है ,इसलिए हम भूमिका देने के बजाय सीधा लेख पर केंद्रित रहेंगें। 

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विगत साठ वर्षों की हमारी जीवनचर्या अलौकिक घटना-प्रसंगों एवं दैवीसत्ता के मार्गदर्शन में संचालित ऐसी कथा-गाथा है, जिसके कई पहलु ऐसे हैं जो अभी भी जनसाधारण के समक्ष उजागर नहीं किए जाने चाहिए । किन्तु पहली बार हमने अपने मार्गदर्शक के निर्देश पर अपनी जीवनयात्रा के उन गुह्य पक्षों ( गुप्त ) का प्रकटीकरण करने का निश्चय किया है, जिससे सर्व-साधारण को सही दिशा मिले । ऐसे कुछ प्रसंगों को पाठक पिछले पन्नों पर पढ़ चुके हैं।

ऋद्धि-सिद्धियों के सम्बन्ध में सर्व-साधारण को अधिक जिज्ञासा रहती है । हमारे विषय में एक सिद्ध-पुरुष की मान्यता जन-मानस में बनती रही है । बहुत खण्डन करने एवं अध्यात्म दर्शन का सत्व सामने रखने पर भी यह मान्यता संव्याप्त है ही कि हम एक चमत्कारी सिद्धपुरुष हैं ।” अब हमें इस वसन्त पर निर्देश मिला कि अपनी जीवन-गाथा को एक खुली पुस्तक के रूप में सबके समक्ष रख दिया जाए, ताकि वे चमत्कारों एवं उन्हें जन्म देने वाली साधना-शक्ति की सामर्थ्य से परिचित हो सकें?

ऋद्धियाँ एवं सिद्धियाँ क्या हैं ?

 इस सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण बड़ा स्पष्ट रहा है । वह शास्त्रसम्मत भी है एवं तर्क की कसौटी पर खरा उतरने वाला भी । हमारे प्रतिपादन के अनुसार योगाभ्यास एवं तपश्चर्या के दो विभागों में अध्यात्म साधनाओं को विभाजित किया जा सकता है । इनमें तपश्चर्या प्रत्यक्ष है और योगाभ्यास परोक्ष । तप शरीर प्रधान है और योग मन से सम्बन्धित । इनके प्रतिफल दो हैं । एक सिद्धि, दूसरा ऋद्धि । शरीर से वे काम कर दिखाना जो आमतौर से उसकी क्षमता से बाहर समझे जाते हैं, सिद्धि के अन्तर्गत आते हैं । पुरातनकाल में वर्षा अपेक्षाकृत अधिक होती थी । नदी नाले चार महीने तेजी से बहते रहते थे । पुल नहीं थे । नावों पर ही निर्भर रहना पड़ता था । उनके भी वेगवती हो जाने और भँवर पड़ने लगने पर नावों का आवागमन भी बन्द हो जाता था । आवश्यक काम आ जाने पर तपस्वी लोग जल पर चलकर पार हो जाते थे, वे वायु में भी उड़ सकते थे । शरीर को अंगद के पैर के समान इतना भारी बना लेना कि रावण सभा के सभी सभासद मिलकर भी उसे उठा न सके, इसी प्रकार की सिद्धि है । सुरसा का मुँह फाड़कर हनुमान को निगलने का प्रयत्न करना, हनुमान का उससे दूना रूप दिखाते जाना और अन्त में मच्छर जितने लघु बनकर उस जंजाल से छुट भागना, यह सिद्धि वर्ग है । उससे शरीर को असामान्य क्षमताओं से सम्पन्न बनाया जाता है ।

ऋद्धि आन्तरिक हैं, आत्मिक हैं । साधारण मनुष्य मन को जिस सीमा तक ग्रहण  कर सकते हैं, उसकी तुलना में अत्यधिक मनोबल का, इच्छाशक्ति का भाव-प्रभाव का होना यह ऋद्धि है । ऋद्धि के अनुदान किसी के व्यक्तित्व, चरित्र एवं स्तर को ऊँचा उठा सकते हैं । जिसके पास जिसका बाहुल्य है, उसी के लिए यह सम्भव है कि अपनी विशेषता स्थिर रखते हुए भी दूसरों को अपने अनुदानों से लाभान्वित कर सके । पदार्थों का स्वरूप बदल देना, उसकी मात्रा को बढ़ा देना यह सिद्धपुरुषों का काम है । साधना से यह सब असम्भव भी नहीं है ।

ऋद्धि-सिद्धियाँ कितने प्रकार की होती हैं ? उन्हें किस प्रकार प्राप्त किया जाता है और फिर उनका प्रयोग उपयोग किस प्रकार किया जाता है ? इसका विवरण योगग्रन्थों, तन्त्रों तथा विद्वानों  से हमने जाना एवं अनुभव भी किया है, किन्तु इनका प्रयोग कभी प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया । वस्तुतः इसकी आवश्यकता हमें कभी नहीं पड़ी । अपनी समस्त इच्छाएँ उसी दिन समाप्त हो गई, जिस दिन महान मार्गदर्शक का साक्षात्कार हुआ । आदेश जब भी मिलते हैं, तब उन्हें पूरा करने के लिए जिस प्रकार के सहयोगियों की, साधनों की, सूझ-बूझ की आवश्यकता पड़ती है वह हाथों-हाथ हमें उपलब्ध होती चली गयी । ऋद्धि-सिद्धियों की आवश्यकता इसी निमित्त पड़ सकती थी । वे सिर पर लदतीं तो व्यर्थ का अहंकार चिपकता और वह व्यक्तित्त्व को पतनोन्मुख बनाता । इसलिए अच्छा ही हुआ कि ऋद्धि-सिद्धियों की उपलब्धि के लिए उनके विधान एवं प्रयोग जानने के बावजूद प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ी जो अतिशय दुष्कर काम थे वे होते चले और उसे भगवान का आदेश या अनुग्रह कहकर अपनी ओर से मेहनत करने की, बखान करने की, अहन्ता लादने की आवश्यकता नहीं पड़ी । यह अच्छा ही हुआ । भविष्य के लिए अपनी कोई निजी योजना नहीं  जिसके लिए सिद्धियों का संग्रह किया जाए । दिव्य आदेश आते हैं तो उनकी पूर्ति के लिए जो जितना अभीष्ट है, वह उतनी मात्रा में उसी समय मिल ही जाता है, फिर व्यर्थ ही सिद्धि-साधना के झंझट में क्यों पड़ें?

सिद्धपुरुषों को स्वर्ग और मुक्ति का दैवी-अनुदान मिलता है । स्वर्ग कोई स्थान या लोक-विशेष है, यह हमने कभी नहीं माना । स्वर्ग उत्कृष्ट दृष्टिकोण को कहते हैं । इसी आनन्द को स्वर्ग कहते हैं । वह हमें निरन्तर उपलब्ध है। दुश्चिन्तन दुष्कर्म से स्पर्श ही नहीं होता, फिर नरक कहाँ से आये? मुक्ति, भव-बन्धनों से होती है । वासना, तृष्णा और अहन्ता को भवसागर कहा गया है । लोभ को हथकड़ी, मोह को बेड़ी और गर्व को गले का फन्दा  कहते हैं । जीव इन्हीं से बँधा रहता है । 

ऋद्धि की व्याख्या :

ऋद्धि आन्तरिक होती है और स्वानुभूति तक ही उसकी सीमा है । आत्म-सन्तोष, लोकसम्मान और दैवीअनुग्रह यह तीन दिव्य अनुभव कहे जाते हैं । सो अपने को हर घड़ी होते रहते हैं । 

1 आत्मसंतोष -अभावों से असन्तोष होता है। कुकर्म भी आत्म-प्रताड़ना उत्पन्न करते हैं  जो बहुत ही असहनीय है। हमें यह बिल्कुल  नहीं सहना पड़ा है । अब तो शरीर की वृद्धावस्था  के साथ-साथ कामनाओं का समाधान विवेक ही कर देता है । इसलिए न अभाव लगता है,न असन्तोष ।

2 लोकसम्मान -इसके लिए हमें अलग से कुछ नहीं करना  पड़ा । सच्चे मन से हमने हर किसी का सम्मान और सहयोग किया है । स्नेह और सद्भाव लुटाया है । जो भी सम्पर्क में आया उसे आत्मीयता के बन्धनों में बाँधा है । उसकी प्रतिक्रिया दर्पण के प्रतिच्छाया की तरह होनी चाहिए।  रबड़ की गेंद जितने जोरों से जिस एंगल  से मारी जाती है, उतने ही जोर से, उसी एंगल  में वह लौट आती है । हमारा स्नेह और सम्मान दूसरों के मन से टकराकर ज्यों का त्यों  वापस लौटता रहा है । हमने किसी को शत्रु नहीं माना । किसी के मन में अपने लिए दुर्भाव नहीं सोचा, तो अन्य कोई किसी भी मनःस्थिति में क्यों न हो, हमें उसकी अनुभूति सद्भावनाओं से भरी-पूरी ही लगती है । जीवन बीतने को आया । कोई हमारे विरोधियों, शत्रुओं, अहित करने वालों के नाम पूछे तो हम एक भी नहीं बता सकेंगे । जिन्होंने नासमझी में हानि पहुँचाई भी है, उन्हें भूला-भटका, बालबुद्धि माना है । हर किसी का सम्मान हमने किया है और लौटकर लोक-सम्मान ही हमें मिला । किसी ने न भी दिया हो तो भी हम उसे समीक्षा और हित-कामना ही मानते रहे हैं। 

3 दैवी-अनुग्रह – यह उच्चस्तरीय क्रियाकलापों और उनकी सफलताओं से भी लगता है । इसके अतिरिक्त आकाश के तारे, पौधों पर लगे हुए फूल, बादलों से बरसते हुए जल-बिन्दु, हवा से हिलते पत्ते, नदियों की लहरें, चिड़ियों का कलरव हमें अपने ऊपर दुलार लुटाते, फूल बरसाते दृष्टिगोचर होते हैं । प्रकृति की हलचलों में, प्राणियों की चहलपहल में, वनस्पतियों में जो सौन्दर्य भरा-पूरा दीखता है, वह हमारे  संसार को फूलों से भर देता है।

हमें भीतर और बाहर से उल्लास और उत्साह ही दीखता है । जीवन को उलट-पुलटकर देखने पर उसमें चन्दन जैसी सुगन्ध ही आती दीखती है । भूतकाल की ओर गरदन-मोड़कर देखते हैं तो शानदार दीखती है। वर्तमान का निरीक्षण करते हैं तो उसमें भी उमंगें छलकती दीखती हैं । भविष्य पर दूर-दृष्टि डालते हैं, तो प्रतीत होता है कि भगवान के दरबार में अपराधी बनकर नहीं जाना पड़ेगा । परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने वाले विद्यार्थी और प्रतिस्पर्दा जीतने वाले खिलाड़ी की तरह उपहार ही मिलेगा।

हमारी आत्मा ने हमें कभी बुरा नहीं कहा, तो दूसरे भी क्यों कह सकेंगे । जो कहेंगे तो अपनी व्याख्या अपने मुँह कर रहे होंगे । हमें अपनी प्रशंसा करने और प्रतिष्ठा देने को ही मन करता है । I want to reward myself. ऐसी दशा में इस लोक और परलोक में हमें अच्छाई से ही सम्मानित किया जाएगा। इससे बढ़कर मनुष्य जीवन की सार्थकता और हो भी क्या सकती है?

आत्म-साधना करने वाले ऋद्धि-सिद्धियों के अनुपात से अपनी सफलता-असफलता आँकते रहे हैं । हमें इसके लिए अतिरिक्त प्रयल नहीं करना पड़ा। ईश्वर-दर्शन हमने विराट ब्रह्म के रूप में किया है। विश्व-मानव के रूप में हमने उसे एक क्षण के लिए भी छोड़ा नहीं और न ही उसने ही ऐसी निष्ठुरता दिखाई कि हमें साथ लिए बिना अकेला ही फिरता । कभी वार्तालाप हुआ है तो उसमें एक झगड़े की ही स्थिति उत्पन्न होती रही है । राम और भरत राज्यतिलक को गेंद बनाकर झगड़ते रहे थे कि इसे मैं नहीं लूंगा, तुम्हें दूँगा । हमारा भी भगवान के साथ ऐसा ही विग्रह चला है कि तुझे क्या चाहिए जो मैं हूँ । गुम्बज की आवाज की तरह हमारा उत्तर यही रहा है कि तुझे क्या चाहिए, अपना मनोरथ बता ताकि उसे पूरा करके धन्य बनूँ । भगवान बॉडीगार्ड (अंगरक्षक) की तरह पीछे-पीछे चला है और संरक्षण करता रहा है। आगे-आगे पायलट की तरह चला है, रास्ता साफ करता हुआ और बताता हुआ । हमारी भी अकिंचन काया-गिलहरी की तरह उसके लिए सम्पूर्ण भाव से समर्पित रही है । 

क्रमशः जारी : To be continued जय गुरुदेव 

कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद्

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