परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा लेख 6-आत्मवत् सर्वभूतेषु – अपने समान सबको देखना(contd)

7 जून  2021 का ज्ञानप्रसाद : “आत्मवत् सर्वभूतेषु – अपने समान सबको  देखना”

हमें तो ऐसा अनुभव हो रहा है कि  हम एक प्राध्यापक हैं जिसके विद्यार्थी सूक्ष्म रूप में सारे विश्व में विस्तृत हैं लेकिन फिर विचार आता है कि हमारी क्या औकात कि किसी को कुछ भी सिखा  सकें ,हम तो सभी से ,आप सभी से कुछ न कुछ शिक्षा प्राप्त कर ही रहे हैं।  हम  बहुत भाग्यशाली हैं  कि  छोटे -छोटे बच्चों से भी हमें ज्ञान प्राप्त हो रहा है। 

आज के लेख के शीर्षक में आप  “आत्मवत् सर्वभूतेषु” दो शब्द देख रहे हैं और हमने  सरल करके अर्थ भी  लिखा है ,इसी पर सारा लेख   केंद्रित है।  हम देखेंगें कि  इस संसार की स्थिति देखकर  परमपूज्य गुरुदेव की क्या दशा हुई।  अब हम सबको समझ आ जायेगा कि गुरुदेव ने हमारे लिए ,केवल हमारे लिए ,हमारा जीवन सुखमय बनाने के लिए इतने कष्ट सहे। यह पंक्तियाँ जी इस समय आप पढ़ रहे हैं उन्होंने अपने अन्तःकण में उठती वेदना के कारण लिखी हैं जिनपर हम सबको ठीक एक परीक्षार्थी की तरह मनन करने की आवश्यकता है। 

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“अपने समान सबको  देखना” कहने सुनने को यह शब्द मामूली लगते हैं लेकिन इन शब्दों की परिधि वहां पहुँचती है जहाँ परमसत्ता के साथ घुल जाने की स्थिति आ पहुँचती है । इस साधना के लिए दूसरे के अन्तरंग के साथ अपना अन्तरंग जोड़ना पड़ता है और उसकी संवेदनाओं को अपनी संवेदना समझना पड़ता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता का यही मूर्तरूप है कि हम हर किसी को अपना मानें । अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में पिरोया हुआ, घुला हुआ अनुभव करें। इस अनुभूति की प्रतिक्रिया यह होती है कि दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख अनुभव होने लगता है। ऐसा मनुष्य अपने तक सीमित नहीं रह सकता, स्वार्थों की परिधि में आबद्ध( बंधे रहना ) रहना उसके लिए कठिन हो जाता है । दूसरों का दु:ख मिटाने और सुख बढ़ाने के प्रयास उसे बिल्कुल ऐसे लगते हैं, मानो यह सब अपने नितान्त व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए किया जा रहा हो ।

“संसार में अगणित व्यक्ति पुण्यात्मा और सुखी हैं, सन्मार्ग पर चलते और मानव-जीवन को धन्य बनाते हुए अपना-पराया कल्याण करते हैं । यह देख-सोचकर जी को बड़ी सान्त्वना होती है और लगता है, सचमुच यह दुनिया ईश्वर ने पवित्र उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाई है। यहाँ पुण्य और ज्ञान मौजूद है, जिसका सहारा लेकर कोई भी आनन्द-उल्लास की, शान्ति और सन्तोष की दिव्य उपलब्धियाँ समुचित मात्रा में प्राप्त कर सकता है। पुण्यात्मा, परोपकारी और आत्मावलम्बी व्यक्तियों का अभाव यहाँ नहीं है। वे संख्या में कम भले ही हों, पर अपना प्रकाश तो फैलाते ही हैं और उनका अस्तित्व यह तो सिद्ध करता ही है कि मनुष्य में देवत्व मौजूद है और उसे जो चाहे थोड़े-से प्रयत्न से सजीव एवं सक्रिय कर सकता है, धरती वीर विहीन नहीं है  । यहाँ नर-नारायण का अस्तित्त्व विद्यमान है । परमात्मा कितना महान, उदार और दिव्य हो सकता है, इसका परिचय, उसकी प्रतिकृति उन आत्माओं में देखी जा सकती है, जिन्होंने श्रेय पथ का अवलम्बन किया और काँटों को तलवों से रौंदते हुए लक्ष्य की ओर शान्ति, श्रद्धा एवं हिम्मत के साथ बढ़ते चले गये । मनुष्यता को गौरवान्वित करने वाले इन महामानवों का अस्तित्त्व ही इस जगती को इस योग्य बनाये हुए है कि भगवान बार-बार नरतनु धारण करके अवतार के लिए ललचाए । आदर्शों की दुनिया में विचरण करने वाले और उत्कृष्टता की गतिविधियों को अवलम्बन बनाने वाले महामानव बहिरंग में अभावग्रस्त दीखते हुए भी अन्तरंग में कितने समृद्ध और सुखी रहते हैं, यह देखकर अपना चित्त भी पुलकित होने लगा । उनकी शान्ति अपने अन्त:करण को छूने लगी । महाभारत की वह कथा अक्सर याद आती रही जिसमें पुण्यात्मा युधिष्ठिर के कुछ समय तक नरक जाने पर वहाँ रहने वाले प्राणी आनन्द में विभोर हो गये थे । लगता रहा जिन पुण्यात्माओं की स्मृति मात्र से अपने को सन्तोष और प्रकाश मिलता है, वे स्वयं न जाने कितनी दिव्य अनुभूतियों का अनुभव करते होंगे।  इस कुरूप दुनिया में जो कुछ सौन्दर्य है, वह इन पुण्यात्माओं का ही अनुदान है । असीम अस्थिरता से निरन्तर प्रेत-पिशाचों जैसा हाहाकारी नृत्य करने वाले अणु-परमाणुओं से भरी-बनी इस दुनिया में जो स्थिरता और शक्ति है वह इन पुण्यात्माओं द्वारा ही उत्पन्न की गई है । सर्वत्र भरे बिखरे जड़ पंचतत्वों में जो सरसता और शोभा दीखती है, उसके पीछे इन सत्पथगामियों का प्रयल और पुरुषार्थ ही झाँक रहा है । प्रलोभनों और आकर्षणों के जंजाल के बन्धन काटकर जिन्होंने सृष्टि को सुरभित और शोभामय बनाने की ठानी, उनकी श्रद्धा ही धरती को धन्य बनाती रही है । जिनके पुण्य-प्रयास लोक-मंगल के लिए निरन्तर गतिशील रहे, इच्छा होती रही उन नर- नारायणों के दर्शन और स्मरण करके पुण्य फल पाया जाए । इच्छा होती रही उनकी चरण-रज मस्तक पर रखकर अपने को धन्य बनाया जाए । जिन्होंने आत्मा को परमात्मा बना लिया, उन पुरुष-पुरुषोत्तमों में प्रत्यक्ष परमेश्वर की झाँकी करके लगता रहा अभी भी ईश्वर साकार रूप में इस पृथ्वी पर निवास करते, विचरते दीख पड़ते हैं । अपने चारों ओर इतना पुण्य-परमार्थ दिखाई पड़ते रहना बहुत कुछ सन्तोष देता रहा और यहाँ अनन्त काल तक रहने के लिए मन करता रहा । इन पुण्यात्माओं का सान्निध्य प्राप्त करने में स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि आदि का सबसे अधिक आनन्द पाया जा सकता है । इस सच्चाई के अनुभवों ने हस्तामलकवत ( पूरी तरह से समझ आने वाला ) स्वयं सिद्ध करके सामने रख दिया और कठिनाइयों से भरे जीवनक्रम के बीच इसी विश्व-सौन्दर्य का स्मरण कर उल्लसित रहा जा सका ।

आत्मवत् सर्वभूतेषु की यह सुखोपलब्धि एकांगी ( one sided ) न रही, उसका दूसरा पक्ष भी सामने अड़ा रहा । 

दूसरा पक्ष :

संसार में दुःख कम नहीं । कष्ट और क्लेश, शोक और सन्ताप, अभाव और दरिद्रता से अगणित व्यक्ति नारकीय यातनाएँ भोग रहे हैं । समस्याएँ, चिन्ताएँ और उलझनें लोगों को खाये जा रही हैं । अन्याय और शोषण के कुचक्र में असंख्यों को बेतरह पिसना पड़ रहा है । दुबुद्ध (पढ़े -लिखे ,प्रभुद्ध ) ने सर्वत्र नारकीय वातावरण बना रखा है । अपराधों और पापों के दावानल में झुलसते, बिलखते, चिल्लाते, चीत्कार करते लोगों की यातनाएँ ऐसी हैं जिससे देखने, सुनने वालों को रोमांच हो आते हैं, फिर जिन्हें वह सब सहना पड़ता है उनका तो कहना ही क्या ? सुख-सुविधाओं की साधन- सामग्री इस संसार में कम नहीं है, फिर भी दु:ख और दैन्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। एक-दूसरे को स्नेह-सद्भाव का सहारा देकर व्यथा वेदनाओं से छुटकारा दिला सकते थे, प्रगति और समृद्धि की सम्भावना प्रस्तुत कर सकते थे,

 “पर किया क्या जाए ?”

जब मनोभूमि विकृत( बिगड़ गयी ) हो गई, सब कुछ उलटा सोचा और अनुचित किया जाने लगा तो विष-वृक्ष बोकर अमृत-फल पाने की आशा कैसे सफल होती?”  सर्वत्र फैले दुःख-दारिद्रय, शोक-

संताप से किस प्रकार समस्त मानव प्राणियों को कितना कष्ट हो रहा है, पतन और पाप के गर्त में लोग किस शान और तेजी से गिरते-मरते चले जा रहे हैं, यह दयनीय दृश्य देखे, सुने तो अन्तरात्मा रोने लगी । 

“मनुष्य अपने ईश्वरीय अंश अस्तित्व को क्यों भूल गया ? उसने अपना स्वरूप और स्तर इतना क्यों गिरा दिया ?

क्रमशः जारी : To be continued जय गुरुदेव 

कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद्

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