
4 जून 2021 का ज्ञानप्रसाद : हमने उपासना कैसे की ?
परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा की शृंखला में आज हम आपके समक्ष लेख नंबर ४ प्रस्तुत कर रहे हैं। कठिन श्रम और अध्यन पश्चात् ही यह लेख आपके समक्ष लाये जा रहे हैं और आप इस अमृतपान का आनंद उठा रहे हैं ,ऐसा हमें आपके कमेंटस से पता चल रहा है। सभी परिजन अपना अपना कार्य बखूबी निभा रहे हैं ,हमारे वरिष्ठ सहकर्मी आदरणीय सविंदर जी अपने फ़ोन में आयी प्रॉब्लम के कारण इतना सक्रीय नहीं हैं लेकिन फिर भी जहाँ कहीं भी हो ,योगदान दे ही रहे हैं। समस्त कार्य पूरी निष्ठां और श्रद्धा से सम्पन्न होने के बाबजूद सविंदर जी की अनुपस्थिति हमें बहुत ही खल रही है। आशा करते शीघ्र ही वह हमारे साथ होंगें।
प्रस्तुत है परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा का लेख नंबर 4 :
कर्मकाण्ड और पूजा-पाठ की श्रेणी :
कर्मकाण्ड और पूजा-पाठ की श्रेणी में साधक तभी आता है, जब उसका जीवन-क्रम उत्कृष्टता
की दिशा में क्रमबद्ध रीति से अग्रसर हो रहा हो तथा उसका दृष्टिकोण भी सुधर रहा हो और क्रिया-कलाप में उस रीति-नीति का समावेश हो जो आत्मवादी के साथ आवश्यक रूप से जुड़े रहते हैं । धूर्त, स्वार्थी, कंजूस और शरीर तथा बेटे के लिए जीने वाले लोग यदि अपनी विचारणा और गतिविधियाँ परिष्कृत न करें तो उन्हें तीर्थ, व्रत, उपवास, कथा, कीर्तन, स्नान, ध्यान आदि का कुछ लाभ मिल सकेगा, इसमें हमारी सहमति नहीं है । यह उपयोगी तो हैं, पर इनकी उपयोगिता इतनी ही है जितनी कि लेख लिखने के लिए कलम की । कलम के बिना लेख कैसे लिखा जा सकता है? पूजा-उपासना के बिना आत्मिक प्रगति कैसे हो सकती है?
“यह जानने के साथ साथ हमें यह भी जानना चाहिए कि बिना स्वाध्याय, अध्ययन, चिन्तन, मनन की बौद्धिक विकास प्रक्रिया सम्पन्न किए बिना केवल कलम कागज के आधार पर लेख नहीं लिखे जा सकते? न कविताएँ बनाई जा सकती हैं ?”
आन्तरिक उत्कृष्टता बौद्धिक विकास की तरह है और पूजा अच्छी कलम की तरह । दोनों का समन्वय होने से ही बात बनती है । एक को हटा दिया जाए तो बात अधूरी रह जाती है । हमने यह ध्यान रखा कि साधना की गाड़ी एक पहिये पर न चल सकेगी, इसलिए दोनों पहियों की व्यवस्था ठीक तरह जुटाई जाए ।
हमने उपासना कैसे की ?
इसमें कोई रहस्य नहीं है । गायत्री महाविज्ञान में जैसा लिखा है, उसी क्रम से हमारा इसी गायत्री मन्त्र का सामान्य उपासना क्रम चलता रहा है । हाँ, जितनी देर तक भजन करने बैठे हैं, उतनी देर तक यह भावना अवश्य करते रहते हैं कि ब्रह्म की परम तेजोमयी सत्ता, माता गायत्री का दिव्य प्रकाश हमारे रोम-रोम में ओत-प्रोत हो रहा है और प्रचण्ड अग्नि में पड़कर लाल हुए लोहे की तरह हमारा भौंड़ा अस्तित्व उसी स्तर का उत्कृष्ट बन गया है, जिस स्तर का कि हमारा इष्ट देव है । शरीर के कण-परमाणुओं में गायत्री माता का ब्रह्मवर्चस समा जाने से काया का हर अवयव ज्योतिर्मय हो उठा और उस अग्नि से इन्द्रियों की लिप्सा जलकर भस्म हो गई, आलस्य आदि दुर्गुण नष्ट हो गये । रोग विकारों को उस अग्नि ने अपने में जला दिया । शरीर तो अपना है, पर उसके भीतर प्रचण्ड ब्रह्मवर्चस लहलहा रहा है । वाणी में केवल सरस्वती ही शेष है । असत्य, छल और स्वाद के असुर उस दिव्य मन्दिर को छोड़कर पलायन कर गये । नेत्रों में गुण-ग्राहकता और भगवान का सौन्दर्य हर जड़-चेतन में देखने की क्षमता भर शेष है । छिद्रान्वेषण( दोष ढूंढना ) कामुकता जैसे दोष आँखों में नहीं रहे । कान केवल जो मंगलमय है उसे ही सुनते हैं । बाकी कोलाहल मात्र है, जो श्रवणेन्द्रिय के पर्दे से टकराकर वापस लौट जाता है।
गायत्री माता का परम तेजस्वी प्रकाश सूक्ष्म शरीर में,मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में प्रवेश करते और प्रकाशवान होते देखा और अनुभव किया कि वह ब्रह्मवर्चस अपने मन को उस भूमिका में घसीटे लिए जा रहा है जिसमें पाशविक( पशु जैसी ) इच्छा-आकांक्षाएं विरत हो जाती हैं और दिव्यता परिप्लावित कर सकने वाली आकांक्षाएँ सजग हो पड़ती हैं । बुद्धि निर्णय करती है कि क्षणिक आवेशों के लिए, तुच्छ प्रलोभनों के लिए मानव जीवन जैसी उपलब्धि विनष्ट नहीं की जा सकती । इसका एक-एक पल आदर्शों की प्रतिष्ठापना के लिए खर्च किया जाना चाहिए । चित्त में उच्च निष्ठाएँ जमतीं और सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की ओर बढ़ चलने की उमंगें उत्पन्न करती हैं । सविता देवता का तेजस अपनी अन्तः भूमिका में प्रवेश करके अहं. को परिष्कृत करता है और मरणधर्मा (mortal) जीवधारियों की स्थिति से कई मील ऊपर उड़ा ले जाकर ईश्वर के सर्व-समर्थ, परम-पवित्र और सच्चिदानन्द स्वरूप में अवस्थित कर देता है।
गायत्री पुरश्चरणों के समय केवल जप ही नहीं किया जाता रहा
गायत्री पुरश्चरणों के समय केवल जप ही नहीं किया जाता रहा, साथ ही भाव-तरंगों से मन भी हिलोरें लेता रहा । कारण शरीर, यानी भाव-भूमि के अन्तस्तल में “आत्मबोध, आत्मदर्शन, आत्मानुभूति और आत्म-विस्तार की अनुभूति को अन्तर्योति के रूप में अनुभव किया जाता रहा” । लगा अपनी आत्मा परम तेजस्वी सविता देवता के प्रकाश में पतंगों के दीपक पर समर्पित होने की तरह विलीन हो गयी । अपना अस्तित्व समाप्त, उसकी स्थान पूर्ति परम तेजस द्वारा । मैं समाप्त, तू का आधिपत्य । आत्मा और परमात्मा के अद्वैत मिलन की अनुभूति में ऐसे ‘ब्रह्मानन्द की सरसता क्षण-क्षण अनुभूत होती रही, जिस पर संसार भर का समवेत विषयानन्द निछावर किया जा सकता है । जप के साथ स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर में दिव्य प्रकाश की प्रतिष्ठापना आरम्भ में प्रयत्नपूर्वक ध्यान धारणा के रूप में की गई थी, पीछे वह स्वाभाविक प्रकृति बनी और अंततः प्रत्यक्ष अनुभूति बन गई । जितनी देर उपासना में बैठा गया, अपनी सत्ता के भीतर और बाहर परम तेजस्वी-सविता की दिव्य ज्योति का सागर ही लहलहाता रहा और यही प्रतीत होता रहा कि हमारा अस्तित्त्व इस दिव्य ज्योति से ओत-प्रोत हो रहा है । प्रकाश के अतिरिक्त अन्तरंग और बहिरंग में और कुछ है ही नहीं, प्राण की हर स्फुरणा ( किरण ) में ज्योति- स्फुल्लिंगों ( चिंगारी ) के अतिरिक्त और कुछ बचा ही नहीं । इस अनुभूति में कम से कम पूजा के समय की अनुभूति को दिव्य-दर्शन और दिव्य-अनुभव से ओत-प्रोत बनाये ही रखा । साधना का प्रायः सारा ही समय इस अनुभूति के साथ बीता।
पूजा के 6 घण्टे, शेष 18 घण्टों को भरपूर प्रेरणा देते रहे । काम करने का जो समय रहा उसमें यह लगता रहा कि इष्ट देवता का तेजस ही अपना मार्ग-दर्शक है, उसके संकेतों पर ही प्रत्येक क्रियाकलाप बन और चल रहा है। लालसा और लिप्सा से, तृष्णा और वासना से प्रेरित अपना कोई कार्य हो रहा हो ऐसा कभी लगा ही नहीं । छोटे बालक की माँ जिस प्रकार उँगली पकड़ कर चलती है, उसी प्रकार उस दिव्य-सत्ता ने मस्तिष्क को पकड़ कर ऊँचा सोचने और शरीर को पकड़ कर ऊँचा करने के लिए विवश कर दिया । उपासना के अतिरिक्त जाग्रत अवस्था के जितने घण्टे रहे उनमें शारीरिक नित्य-कर्मों से लेकर आजीविका उपार्जन, स्वाध्याय, चिंतन, परिवार व्यवस्था आदि की समस्त क्रियाएँ इस अनुभूति के साथ चलती रहीं, मानो परमेश्वर ही इन सबका नियोजन और संचालन कर रहा हो । रात को सोने के 6 घण्टे ऐसी गहरी नींद में बीतते रहे, मानो समाधि लग गई हो और माता के आँचल में अपने को सौंपकर परम शान्ति और सन्तुष्टि की भूमिका में आत्म-सत्ता से तादात्म्यता (एक जुटता ) प्राप्त कर ली हो । सोकर जब उठे तो लगा नया जीवन, नया उल्लास, नया प्रकाश अग्रिम मार्गदर्शन के लिए पहले से ही पथ-प्रदर्शन के लिए सामने खड़ा है ।
24 वर्ष के 24 महापुरश्चरण काल में कोई सामाजिक, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ कंधे पर नहीं थीं । सो अधिक तत्परता और तन्मयता के साथ यह जप-ध्यान का साधना क्रम ठीक तरह चलता रहा । मातृवत् परदारेषु और परद्रव्येषु लोष्ठवत् की अटूट निष्ठा ने काया को पाप कर्मों से बचाये रखा । अन्न की सात्त्विकता ने मन को मानसिक अध:पतन के गर्त में गिरने से भली प्रकार रोक रखने में सफलता पाई । जौ की रोटी और गाय की छाछ का आहार रुचा भी और पचा भी । जैसा अन्न, वैसा मन की सच्चाई हमने अपने जीवनकाल में पग-पग पर अनुभव की । यदि शरीर और मन का संयम कठोरतापूर्वक न किया गया होता तो न जाने जो थोड़ी-सी प्रगति हो सकी, वह हो सकी होती या नहीं।
क्रमशः जारी To be continued जय गुरुदेव
कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद्