परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा लेख 1

31 मई  2021 का ज्ञानप्रसाद –

29 मई वाले इंट्रोडक्टरी लेख में हमने आपके साथ वादा किया था कि  हम गुरुदेव की ऑटोबायोग्राफी (आत्म कथा ) पर लेखों  की शृंखला पर कुछ लेख प्रस्तुत करेंगें। सभी लेख “प्रज्ञावतार का कथामृत” शीर्षक पुस्तक  पर आधारित  होंगें।  तो प्रस्तुत है इस श्रृंखला का प्रथम लेख। लेख आरम्भ करने से पूर्व हम अपने पाठकों से दो बातें कहना चाहेंगें- 1 ) हमने प्रयास किया है कि  जहाँ तक हो सके  गुरुदेव की अपनी  लेखनी में ही प्रस्तुति की जाये ,केवल कठिन शब्दों को गूगल सर्च करके अनुवाद किया है ,सरल किया  है।   इस तरह का वातावरण चित्रित करने का प्रयास किया है  आप अनुभव करें कि आप केवल लेख ही नहीं पढ़ रहे हैं, परमपूज्य गुरुदेव  प्रतक्ष्य आपको शांतिकुंज प्रांगण में  सम्बोधन कर रहे हैं।  2 ) यूट्यूब की लिमिटेशन है कि इसमें बोल्ड ,अंडरलाइन ,कलर इत्यादि की सुविधा नहीं है और यह सम्बोधन ऐसा है कि कितने ही point  highlight करने वाले हैं। जो पाठक हमारी वेबसाइट से परिचित हैं उन्हें इस तरह की सुविधा वहां मिल सकती है। आप अपनी सुविधा अनुसार कहीं भी पढ़ें, कमेंट करके मार्गदर्शन अवश्य दें। 

तो चलते हैं लेख की ओर :

परमपूज्य गुरुदेव ने आत्मकथा क्यों नहीं लिखी :    

हमारे बहुत-से परिजन हमारी साधना और उसकी उपलब्धियों के बारे में कुछ अधिक जानना चाहते हैं और  यह स्वाभाविक भी है । हमारे स्थूल जीवन के जितने अंश  प्रकाश में आये हैं वे लोगों की दृष्टि में अद्भुत हैं । उनमें सिद्धियों, चमत्कारों और अलौकिकताओं की झलक देखी  जा सकती है । कौतूहल के पीछे उसके रहस्य जानने की  उत्सुकता छिपी रहनी स्वाभाविक है, सो अगर परिजन हमारी आत्म-कथा जानना चाहते हैं और उसके लिए इन दिनों विशेष रूप से दबाव देते हैं तो उसे अकारण नहीं कहा जा सकता ।

यों हम कभी छिपाव के पक्ष में नहीं रहे, दुराव, छल, कपट हमारी आदत में नहीं, पर इन दिनों हमारी एक विवशता है कि जब तक रंग-मंच पर प्रत्यक्ष रूप से अभिनय चल रहा है, तब तक वास्तविकता बता देने पर दर्शकों का आनन्द दूसरी दिशा में मुड़ जाएगा और जिस कर्तव्यनिष्ठा को सर्व-साधारण में जगाना चाहते हैं, वह प्रयोजन पूरा न हो सकेगा । लोग रहस्यवाद के जंजाल में उलझ जाएँगे, इससे हमारा व्यक्तित्त्व भी विवादास्पद बन जाएगा और जो करने-कराने हमें भेजा गया है, उसमें भी हमें अड़चन पड़ेगी । निस्सन्देह हमारा जीवनक्रम अलौकिकताओं (super- 

natural)  से भरा पड़ा है । रहस्यवाद के पर्दे इतने अधिक हैं कि उन्हें समय से पूर्व खोला जाना अहितकर ही होगा । अतः पीछे वालों के लिए उसे छोड़ देते हैं कि वस्तुस्थिति की सच्चाई को प्रामाणिकता की कसौटी पर कसें और जितनी हर दृष्टि से परखी जाने पर सही निकले उससे यह अनुमान लगायें कि अध्यात्म विद्या कितनी समर्थ और सारगर्भित ( प्रभावकारी )  है । उस पारस से छूकर एक नगण्य-सा व्यक्ति अपने लोहे जैसे तुच्छ कलेवर को स्वर्ण जैसा बहुमूल्य बनाने में कैसे समर्थ, सफल हो सका ? इस दृष्टि से हमारे जीवनक्रम में प्रस्तुत हुए अनेक रहस्यमय तथ्यों की समय आने पर शोध की जा सकती है और उस समय उस कार्य में हमारे अति निकटवर्ती सहयोगी कुछ सहायता भी कर सकते हैं, पर अभी वह समय से पहले की बात है । इसलिए उस पर वैसे ही पर्दा पड़ा रहना चाहिए, जैसे कि अब तक पड़ा रहा है ।

हमारा साधनाक्रम कैसे चला ?

आत्मकथा लिखने के आग्रह को केवल इस अंश तक पूरा कर सकते हैं कि हमारा साधनाक्रम कैसे चला ? वस्तुतः हमारी सारी उपलब्धियाँ प्रभु-समर्पित साधनात्मक जीवन-प्रक्रिया पर ही अवलम्बित हैं । उसे जान लेने से इस विषय में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति को वह रास्ता मिल सकता है जिस पर चलकर आत्मिक प्रगति और उससे जुड़ी हुई विभूतियाँ प्राप्त करने का आनन्द लिया जा सकता है । पाठकों को अभी इतनी ही जानकारी हमारी कलम से मिल सकेगी, सो उतने से ही इन दिनों सन्तोष करना पड़ेगा। 60  वर्ष के जीवन में से 15  वर्ष का आरम्भिक बालजीवन कुछ विशेष महत्त्व का नहीं है । शेष 45  वर्ष हमने आध्यात्मिकता के प्रसंगों को अपने जीवनक्रम में सम्मिलित करते हुए बिताये हैं । पूजा-उपासना का, उस प्रयोग में एक बहुत छोटा अंश रहा है । 24  वर्ष तक 6 घण्टे रोज की “गायत्री उपासना” को उतना महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए जितना कि मानसिक परिष्कार और भावनात्मक उत्कृष्टता के अभिवर्द्धन (विकसित रूप में लाना ) के प्रयत्नों को । यह माना जाना चाहिए कि यदि विचारणा और कार्य-पद्धति को परिष्कृत न किया गया होता तो उपासना के कर्मकाण्ड उसी तरह निरर्थक चले जाते जिस तरह कि अनेक पूजापत्री तक सीमित मन्त्र-तन्त्रों का ताना-बाना बुनते रहने वालों को नितान्त खाली हाथ रहना पड़ता है । हमारी जीवन-साधना को यदि सफल माना जाए और उसमें दीखने वाली अलौकिकता को खोजा जाए तो उसका प्रधान कारण हमारी “ अन्तरंग और बहिरंग स्थिति के परिष्कार को ही माना जाए ।” पूजा-उपासना को गौण (जिसका महत्व कम हो ) समझा जाए । आत्म-कथा के एक अंश को लिखने का दुस्साहस करते हुए हम एक ही तथ्य का प्रतिपादन करेंगे कि हमारा सारा मनोयोग और पुरुषार्थ आत्म-शोधन में लगा है । उपासना जो बन पड़ी है, उसे भी हमने भावपरिष्कार के प्रयत्नों के साथ पूरी तरह जोड़ रखा है । 

अब आत्मोद्घाटन के साधनात्मक प्रकरण पर प्रकाश डालने वाली कुछ चर्चाएँ पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत करते हैं

साधनात्मक जीवन की तीन सीढ़ियाँ हैं । तीनों पर चढ़ते हुए एक लम्बी मंजिल पार कर ली गई। मातृवत् परदारेषु  परद्रव्येषु लोष्ठवत् की मंजिल सरल थी वह अपने आप से सम्बन्धित थी । इन शब्दों के अर्थों को समझने के लिए  चाणक्य  के सुप्रसिद्ध श्लोक का अर्थ बताना अत्यंत आवश्यक है : 

अन्य व्यक्तियों की स्त्रियों को माता के समान समझे, दूसरें के धन पर नज़र न रखे, उसे पराया समझे और सभी लोगों को अपनी तरह ही समझे”

लड़ना अपने से था, सँभालना अपने घर को था, सो पूर्व जन्मों के संस्कार और समर्थ गुरु की सहायता से इतना सब आसानी से बन गया । मन न उतना दुराग्रही था, न दुष्ट, जो कुमार्ग पर घसीटने की हिम्मत करता । यदा-कदा उसने इधर-उधर भटकने की कल्पना भर की, पर जब प्रतिरोध का डण्डा जोर से सिर पर पड़ा तो सहम गया और चुपचाप सही राह पर चलता रहा । मन से लड़ते-झगड़ते, पाप और पतन से भी बचा लिया गया । अब जबकि सभी खतरे टल गए, तब सन्तोष की साँस ले सकते हैं । दास कबीर ने झीनी-झीनी बीनी चदरिया, जतन से ओढ़ी थी और बिना दाग-धब्बे ज्यों की त्यों वापस कर दी थी । परमात्मा को अनेक धन्यवाद कि जिसने उसी राह पर हमें भी चला दिया और उन्हीं पद-चिह्नों को ढूँढ़ते-तलाशते उन्हीं आधारों को मजबूती के साथ पकड़े हुए उस स्थान तक पहुँच गये, जहाँ लुढ़कने और गिरने-मरने का खतरा नहीं I इस दोहे में कबीर   इस शरीर को, आत्मा की चादर कहते हुए, गाते हैं कि ये चादर बड़ी महीन बुनी हुई है  और जुलाहे ने बुना था निर्मल इसे, संसार से लिए गुण-दोषों के बिना। 

अध्यात्म की कर्म-काण्डात्मक प्रक्रिया बहुत कठिन नहीं होती । संकल्प-बल मजबूत हो, श्रद्धा और निष्ठा की मात्रा कम न पड़े तो मानसिक उद्विग्नता नहीं होती और शान्तिपूर्वक मन लगने लगता है और उपासना के विधिविधान भी गड़बड़ाये बिना अपने ढरें पर चलते रहते हैं। मामूली दुकानदार सारी जिन्दगी एक ही दुकान पर, एक ही डर से पूरी दिलचस्पी के साथ काट लेता है । न मन ऊबता है, न अरुचि होती है । पान, सिगरेट के दुकानदार 12-14  घण्टे अपने धन्धे को उत्साह और शान्ति के साथ आजीवन करते रहते हैं, तो हमें 6-7  घण्टे प्रतिदिन की गायत्री साधना 24  वर्ष तक चलाने का संकल्प तोड़ने की क्या आवश्यकता पड़ती । मन उनका उचटता है जो उपासना को पान-बीड़ी के, खेती बाड़ी के, मिठाई-हलवाई के धन्धे से भी कम आवश्यक या कम लाभदायक समझते हैं, बेकार के अरुचिकर कामों में मन नहीं लगता। उपासना में ऊबने और अरुचि की अड़चन उन्हें आती है जिनकी आन्तरिक आकांक्षा भौतिक सुख सुविधाओं को सर्वस्व मानने की है । जो पूजा-पत्री से मनोकामनाएं पूर्ण करने की बात सोचते रहते हैं, उन्हें ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ की न्यूनता के कारण अभीष्ट वरदान न मिलने पर खीज होती है । आरम्भ में भी आकांक्षा के प्रतिकूल काम में उदासी रहती है । यह स्थिति दूसरों की होती है, सो वे मन न लगने की शिकायत करते रहते हैं। 

तो मित्रो आज के  लेख को  यहीं पर विराम देते हैं।  हमने आपकी आशाओं पर उतरने का सम्पूर्ण प्रयास किया है, कितना उत्तीर्ण हुए  हम नहीं जानते लेकिन  विश्वास करते हैं कि  आप खुद ही मूल्यांकन करके हमें अपने कमैंट्स के द्वारा बता देंगें।  इस लेख को और आने वाले लेखों को इस प्रकार पढ़ा जाये जैसे  एक परीक्षार्थी परीक्षा के लिए तैयारी  करता है तभी आप आनंदविभोर हो सकेंगें। 

क्रमशः जारी ( To be continued )

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कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका  आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् ,जय गुरुदेव

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