4 जनवरी 2021 का ज्ञानप्रसाद
गायत्री मंत्र को तारक मंत्र भी कहते हैं
गायत्री मंत्र का दूसरा नाम ‘तारक मंत्र भी है। साधना ग्रंथों में उसका उल्लेख तारक मंत्र के नाम से भी हुआ है। तारक अर्थात् तैरा कर पार निकाल देने वाला, पार कर देने वाला। गहरे जल प्रवाह को पार करके निकल जाने को- डूबते हुए को बचा लेने को तारना कहते हैं। यह भवसागर, संसार रुपी सागर ऐसा ही है, जिसमें अधिकाँश जीव डूबते हैं। तरते तो कोई विरले हैं। जिस साधन से तरना संभव हो सके उसे तारक कहा जायेगा। गायत्री में यह सामर्थ्य है, उसी से उसे तारक मंत्र’ कहा जाता है।

गायत्री को ‘तारक मंत्र’ इसीलिये कहा गया है कि वह साधक को नरक से उबार सकता है। कष्टकर और खेदजनक परिस्थितियों से पार कर सकता है। जिनको दुर्बलताओं ने घेर रखा है उनके लिए पग-पग पर दुःख- दारिद्र भरा नरक ही प्रस्तुत रहता है। संसार में उन्हें कुछ भी आकर्षण एवं आनन्द दिखाई नहीं पड़ता। अपनी ही तृष्णायें, अपनी ही वासनायें बंधन बन कर रोम-रोम को जकड़े रहती हैं और बन्दी जीवन की यातनायें सहन करते रहने को बाध्य करती हैं।
यह परिस्थितियाँ हमारी अपनी विनिर्मित की हुई होती हैं। दुर्बलताओं का प्रतिरोध न करके हमने स्वयं ही उन्हें अपने ऊपर शासन करने से लिए आमन्त्रित किया होता है। अतएव इस विधान- स्थिति का उत्तरदायित्व भी हमारे अपने ही ऊपर है। जब हम पुरुषार्थ अपनाकर प्राण प्रतिष्ठा के लिए तत्पर होते हैं, गायत्री उपासना का आश्रय लेते हैं तो इन विपत्तियों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है। डूबने वाली स्थिति बदल जाती है और हम तर कर पार होने लगते हैं।
गायत्री का माहात्म्य वर्णन करते हुए ऋषियों ने उसे तारक-मंत्र बताया है और कहा है- जो उसकी शरण पकड़ेगा, उसे भवबंधनों से, भव-सागर से, नरक से उबारने में देर न लगेगी। यह महाशक्ति उसे डूबने से बचा लेगी और पार उतरने का उपक्रम बना देगी। भवबंधन अर्थार्त संसार के बंधनों से बचने का उपाय है गायत्री महामंत्र।
गायत्री महामंत्र में इसी प्रक्रिया का समस्त तत्व-ज्ञान सम्मिलित है। जो विधिवत उसका आश्रय ग्रहण करता है, उसे तत्काल अपने में समग्र जीवनी शक्ति का अभिवर्धन होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। ज्यों ज्यों प्रकाश बढ़ता है अन्धकार दूर होता जाता है। आन्तरिक समर्थता बढ़ने के साथ-साथ नारकीय वातावरण का भी अन्त होने लगता है।ऐसा नारकीय वातावरण जिसमें जीवन को दुःखदारिद्र का घर और संसार को भवसागर के रूप में अति सुखदाई दिखाया गया है।
गायत्री साधना के स्तर ( Stages of Gayatri Sadhana ) : Science of Gayatri Mantra
गायत्री साधना के विभिन्न स्तर हैं। सबसे साधारण साधना दैनिक साधना है। दैनिक साधना में गायत्री मंत्र जप का साधारण विधान है। विशेष प्रयोजनों के लिए सकाम-निष्काम-निर्जीव-सजीव अनुष्ठान पुरश्चरण किये जाते हैं। यह सामान्य क्रम कहलाता है। पाठकों से अनुरोध है कि सकाम-निष्काम-निर्जीव-सजीव का अर्थ गूगल से समझ लें ताकि इस लेख का flow बना रहे।
इससे ऊंचे स्तर की साधना दो भागों में विभक्त है। एक को कहते हैं ध्यान धारणा और दूसरे भाग को कहते है प्राण-प्रक्रिया। इन्हीं दोनों का अवलम्बन कर साधक उच्च आध्यात्मिक भूमिका में विकसित होता है।
दोनों को बारे में जानने के लिए हमें एक -एक को बारी- बारी लेना पड़ेगा।
प्राण -प्रक्रिया :
सामान्य नित्यकर्म एवं सकाम पुरश्चरणों से आगे बढ़ कर एक मध्यवर्ती साधन के रूप में क्रिया है जिसे “प्राण-प्रक्रिया” का नाम दिया गया है। ध्यान की उच्त्तर स्टेज को अपनाने से पूर्व इस क्रिया को अपनाना अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है। आत्मिक भूमिका में प्रवेश करना शत्रुओं के चक्रव्यूह किले को भेदने की तरह कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, गर्व, ईर्ष्या रूपी षडरिपु (शत्रु) इस कल्याण मार्ग को रोके बैठे रहते हैं। वासनायें और तृष्णा की दो पिशाचनियाँ मनुष्य को दुराचारिणी वेश्या की तरह प्रलोभन आकर्षण के सारे साज-सामान जुटाये बैठी रहती हैं। इस जंजाल में ही जीव को जन्म से मृत्यु तक बन्धन बद्ध होकर तड़पना पड़ता है। नरक के यह आठ दूत सामान्य स्तर के जीव को अपने चंगुल में ही दबोचे बैठे रहते हैं। वासना और तृष्णा रूपी जादुगरनियाँ उसे ‘नट-मर्कट’ की तरह नचाती रहती हैं। षडरिपु- मनोविकार मित्र बन कर साथ-साथ छद्मवेश में रहते हैं और हर घड़ी शत्रुओं की करतूत करके जीव का लोक, परलोक बिगाड़ते रहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, गर्व ,ईर्ष्या की उंगलियों के इशारे पर जीव नाचता रहता है। वे जो चाहते हैं सो कराते हैं, जिधर इच्छा होती है उधर भगाते हैं। नरक केआठ दूतों को कई बार nessessary evil कहा गया है। इसका भावार्थ यह है कि अगर इस संसार के जंजाल में रहना है तो दुनियादारी के लिए इन सभी के साथ ही जीवन काटना पड़ेगा। अगर बच्चे हैं तो मोह तो आएगा ही , अगर बच्चे की अच्छी नौकरी लग जाती है ,बच्चा सुख-समृद्धि प्राप्त कर लेता है तो गर्व तो आएगा ही , इस दुनियादारी की रेस में कामना तो होगी ही इत्यादि इत्यादि। लेकिन यहाँ हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि यह सब बातें व्यक्तिगत हैं। कोई इन नरक के दूतों से अपने आप को बचा लेता है और कोई इसी में धंसता चला जाता है ,तब तक धंसता जाता है जब तक जीवन का अंत नहीं हो जाता।
तो इस चर्चा को यहीं छोड़ते हुए प्राण – प्रक्रिया की ओर बढ़ते हैं।
गायत्री की “प्राण प्रक्रिया” वह वैज्ञानिक पद्धति है जो साधक की उपरोक्त कठिनाइयों का हल और आवश्यकता की पूर्ति का साधन प्रस्तुत करती है। समर्थ साधक ही अपनी आन्तरिक क्षमता के द्वारा इस कठिन मार्ग पर देर तक,अन्त तक चलता रह सकता है। इसलिये एक आवश्यक साधन को माध्यम समझते हुए श्रेयार्थी की प्राण शक्ति सम्पादित करने की साधना पद्धति को अपनाना पड़ता है। इसी विधि व्याख्या का नाम प्राण-प्रक्रिया है।
हमारा अनंत विश्व ब्रह्मांड :
हम यहाँ एक वीडियो लिंक दे रहे हैं इस वीडियो में ब्रह्मांड के बारे में बताया गया है। इसको समझने के लिए विज्ञान की बैकग्राउंड तो चाहिए लेकिन साधारण लोग भी इस बात को जान सकते हैं कि हमारा ब्रह्मांड कितना अनंत है। तो जहाँ हम अध्यात्म की बात कर रहे हैं इसको समझने के लिए विज्ञान के उदाहरण भी देना उचित समझते हैं। https://youtu.be/xPDZah8dbK4
इस अनन्तः विश्व ब्रह्मांड में- समुद्र में भरे हुए जल की तरह सूक्ष्म रूप में वह अपेक्षित प्राण-शक्ति भरी पड़ी है। आकाश में वायु, ईथर, विद्युत, परमाणु जैसी भौतिक शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, इसे पदार्थ विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं। अध्यात्म विद्या के तत्वदर्शियों को पता है कि इस ब्रह्मांड में एक प्रचण्ड प्राण शक्ति व्याप्त है जिसे संस्कृत में ब्रह्म ऊष्मा’ और अंग्रेजी में लेटेन्ट हीट’ कहते हैं। लटेंट का अर्थ होता है गुप्त अर्थार्त छुपा हुआ।
इसी के प्रभाव और प्रकाश से संसार में विविध प्रकार की हलचलें और गतिविधियां दृष्टिगोचर होती हैं। परमाणु के इलेक्ट्रोन, प्रोट्रान, न्यूट्रोन आदि भाग इसी ऊष्मा से अपनी धुरी और कक्ष पर द्रुत गति से घूमते हैं। वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं में सजीवता इसी प्रभाव से परिलक्षित होती है। यह प्राण ही संसार का जीवन है। गायत्री का सविता देवता उस प्राण का प्रचण्डपुंज अपने में धारण किये हुए हैं।
गायत्री शब्द के अक्षरों का अर्थ- प्राण की संरक्षक अभिवर्धनी शक्ति है। यह महामंत्र उस महत्तत्व साधक में इस प्राण की मात्रा बढ़ाता है। जिस प्राणी में जितना आध्यात्मिक चुम्बकत्व ( spiritual magnetism ) है वह उतनी ही अधिक मात्रा में इस महाप्राण को अपनी ओर आकर्षित कर उसे संग्रह कर सकता है। इस चुम्बकत्व का अभीष्ट मात्रा में उत्पादन गायत्री मंत्र की उपासना से होता है। जिन्होंने इस महाशक्ति का आश्रय-सान्निध्य लाभ किया है, उनमें प्राण शक्ति की मात्रा दिन-दिन बढ़ती चली गई है और वे इतना आत्म-बल सम्पादित कर सकते हैं जिसके आधार पर बाहरी और आन्तरिक जीवन की समस्त कठिनाईयों का निवारण और समस्त आवश्यकताओं का समाधान किया जा सके।
प्राण-प्रक्रिया के साधन विधानों को प्राणायाम कहते हैं। यों साधारणतया साँस की गहराई तक खींचने ( पूरक) रोके रहने (अन्तः कुम्भक) पूरी तरह बाहर निकालने (रेचक) और कुछ देर बिना साँस के रहने (बाह्य कुंभक) इस चार स्तर में बढ़ी हुई प्रक्रिया को प्राणायाम कहा जाता है। संध्या उपासना के नित्य-कर्मों में इसी पद्धति का प्रयोग होता है। पर इतने मात्र से ही प्राणायाम को सीमा बद्ध नहीं मान लेना चाहिये। उसके प्रख्यात 84 प्रकार हैं। इसके अतिरिक्त भी अन्य ऐसे प्राण विधान हैं, जिनके माध्यम से शरीर के सूक्ष्म प्राण संस्थानों का जागरण होता है, वे विश्व-व्यापी प्राण शक्ति के साथ जोड़ने और उस संपर्क से अपने का अत्यधिक दिव्य सामर्थ्य सम्पन्न बनाने में समर्थ होते हैं।
मोटे तौर पर प्राणायाम श्वासोच्छवास की एक व्यायाम पद्धति है जिससे फेफड़े मजबूत होते, रक्त-संचार की व्यवस्था सुधारने से समग्र अरोग्य एवं दीर्घजीवन का लाभ मिलता है। शरीर विज्ञान के अनुसार हमारे दोनों फेफड़े साँस को अपने भीतर भरने के लिये वे यंत्र हैं जिनमें भरी हुई वायु समस्त शरीर में पहुँच कर ऑक्सीजन प्रदान करती है और विभिन्न अवयवों से उत्पन्न हुई मलीनता को निकाल बाहर करती है। यह क्रिया ठीक तरह होती रहने से फेफड़े मजबूत बनते हैं और रक्त-शुद्धि का क्रम ठीक तरह चलता रहता है। पर देखा गया है कि लोग गहरी साँस लेने के आदी नहीं होते। वे उथली साँस लेते हैं, जिससे फेफड़ों का लगभग एक चौथाई ही काम करता है शेष तीन चौथाई लगभग निष्क्रिय पड़ा रहता है। शहद की मक्खी के छत्ते की तरह फेफड़ों में प्रायः 7 करोड़ 30 लाख स्पंज’ जैसी कोष्टक होते हैं। साधारण हल्की साँस लेने पर उनमें से लगभग 2 करोड़ में ही वायु पहुँचती है। शेष साढ़े पांच करोड़ का कोई उपयोग नहीं होता। इस निष्क्रिय पड़े हुए भाग में गंदगी जमने लगती है और उसी में क्षय, (टी.वी.), खाँसी (कफ), सूजन (ब्रोंकाइटिस) आदि रागों के कीड़े जमा होकर चुपके-चुपके अपना विघातक कार्य करते रहते हैं। फेफड़े की कार्य पद्धति का अधूरापन रक्त-शुद्धि पर प्रभाव डालता है। हृदय कमजोर पड़ता है और फलस्वरूप अकाल मृत्यु का कोई-न-कोई बहाना खड़ा होता है। डाक्टरों का कथन है कि प्रत्येक पाँच में से एक मौत फेफड़ों के रोग से होती है। 15 वर्ष से अधिक आयु में मरने वालों में से प्रत्येक तीन के पीछे एक मौत फेफड़ों के रोगों से होती है। अकाल, महामारी, युद्ध, दुर्घटना आदि से उतने मनुष्य नहीं मरते जितने फेफड़ों के रोगों से मरते हैं। हमारे देश में औसतन प्रति मिनट एक व्यक्ति क्षय रोग से मरता है और उसका प्रधान कारण फेफड़ों की दुर्बलता ही होता है।
गहरे श्वासोच्छास लेने की साधारण प्राणायाम पद्धति को फेफड़ों का बढ़िया व्यायाम कहा जा सकता है जिससे स्वास्थ्य सुधार और दीर्घ-जीवन की संभावना निश्चित रूप से बढ़ती है। विभिन्न रोगों का निवारण केवल विशेष प्रकार के प्राणायामों द्वारा किया जा सकता है। प्राण पद्धति अपने आप में सर्वांगपूर्ण आरोग्य संवर्धन एवं रोग निवारण की सर्वांगपूर्ण पद्धति है। यदि कोई इस विज्ञान को ठीक तरह जान ले तो न केवल अपना बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधार ले वरन् दूसरों को भी शारीरिक रोगों से मुक्त कर उन्हें सर्वांगपूर्ण सुधरे हुए स्वास्थ्य का आनन्द लाभ करा सकता है। इसीलिये प्रत्येक धर्म कार्य में, शुभ कार्य में, संध्या वन्दन के नित्यकर्म में, ‘प्राणायाम’ को एक आवश्यक धर्म-कृत्य के रूप से सम्मिलित किया गया है।
हमें यह भली-भांति समझ लेना चाहिये कि स्वास्थ्य लाभ तो प्राणायाम’ का अकिंचन-सा प्रारंभिक लाभ है। उससे वास्तविक लाभ मानसिक एवं आध्यात्मिक होता है। मनोविकारों के उद्वेग में प्राणायाम एक प्रकार का चमत्कारी प्रयोग है। चिन्ता, क्रोध, निराशा, भय, कामुकता, उद्वेग, आवेश आदि का समाधान उन प्रयोजनों के लिए निर्धारित प्राणायामों द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है। मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाने में, स्मरण शक्ति, कुशाग्रता, सूझ-बूझ, दूरदर्शिता, सूक्ष्म-निरीक्षण, धारणा, प्रज्ञा, मेधा आदि मानसिक विशेषताओं का अभिवर्धन प्राणायाम द्वारा किया जा सकता है। चंचल मन का विरोध, एकाग्रता साधन करने के लिए प्राणायाम की उपयोगिता अद्भुत है। आन्तरिक मलीनता को शुद्ध करने और अन्तःकरण में सतोगुणी सत्प्रवृत्तियों में अभिवर्धन का आध्यात्मिक प्रयोजन भी प्राणायाम से सिद्ध होता है। षट्-चक्र, वेधन, कुण्डलिनी जागरण एवं शरीर तथा मन में प्रसुप्त पड़े हुए अनेक सूक्ष्म-शक्ति संस्थानों का उन्नयन प्राण की प्रयोग प्रक्रियाओं पर ही निर्भर है। इनका विज्ञान एवं विधान अपने आप में एक सर्वांगपूर्ण शास्त्र है। प्राचीनकाल के तत्ववेत्ता इस विद्या को भली प्रकार जानते थे और विश्वव्यापी प्राण-तत्व को अपने अन्दर अभीष्ट मात्रा में धारण कर उन विभूतियों को प्राप्त करते थे जो ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से विख्यात हैं।
यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि साँस खींचना और छोड़ना ही प्राणायाम नहीं है। यह तो उसकी प्रारम्भिक परिपाटी है। आगे चल कर उसके अनेक प्रयोग और प्रकार बन जाते हैं। 84 प्राणायामों में के विधान एक-से-एक विलक्षण प्रकार के हैं। फिर कितने ही उनमें से मानसिक और आध्यात्मिक ही हैं, जिनमें साँस खींचने और छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। उनमें प्राणशक्ति का आकर्षण एवं विकर्षण ही प्रधान रहता है। प्राण का संचय होने से समाधि लगती है और मनुष्य काल को वश करके मन चाही अवधि तक जीवित रह सकता है। वह जब चाहे प्राण-त्याग उसी सरलता से कर सकता है जैसे मल-मूत्र विसर्जन किया जाता है। शरीर और मन प्राण की शक्ति से चलते हैं। प्राण पर नियंत्रण करने की विधि जानने वाला अपने शरीर और मन की प्रत्येक क्रिया पर नियंत्रण रख सकने की क्षमता से सुसम्पन्न हो जाता है। इस प्रकार के सभी विधि-विधान प्राणायाम विद्या के अंतर्गत आते हैं। साँस खींचने-छोड़ने वाला- रेचक-पूरक कुम्भक-विधान तो उस महाप्राण विद्या का सब में प्रारंभ का एक हल्का-फुल्का शुभारंभ मात्र है।
गायत्री प्राण विद्या है। प्राण के साधन से हम शरीर, मन और आत्मा की दृष्टि से परिपुष्टि और समुन्नत बनते हैं। यह विकास क्रम हमारी अपूर्णताओं को क्रमशः दूर करते हुए पूर्णताओं से लाभान्वित करता है। अतः हम अपनी सम्पूर्ण अपूर्णताओं से छुटकारा पाकर पूर्णता प्राप्ति का जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकने में सफल हो जाते हैं।
गायत्री उपासना का मध्यवर्ती मार्ग प्राण प्रक्रिया है। इससे वह समर्थता आती है जिसके बल पर ध्यान धारणा’ से सफलता प्राप्त की जा सके। बल के मूल्य पर ही इस संसार की विभिन्न सम्पत्तियाँ और विभूतियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। शरीर-बल, मनो-बल, आत्म-बल इन तीनों का अभिवर्धन धन, सम्पत्ति, इन्द्रिय भोग, यज्ञ, मैत्री, वर्चस्व, उल्लास आदि साँसारिक सुखों का सृजन करता है। इसी के द्वारा आत्म-कल्याण का जीवनोद्देश्य प्राप्त होता है। उसी के द्वारा बन्धन से मुक्ति का, मोक्ष का, परम पुरुषार्थ सफलतापूर्वक सम्पन्न होता है।
अतएव समग्र सफलता के लिये समग्र बलिष्ठता सम्पादित करनी पड़ती है और यह प्रयोजन गायत्री की प्राण विद्या द्वारा संपन्न हो सकता है। अतएव गायत्री शक्ति के आह्वान का विधान प्राणायाम हमारी एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
क्रमशः जारी To be continued
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित