सभी सककर्मियों को सुप्रभात एवं शुभदिन

आज के ज्ञान प्रसाद दो छोटे -छोटे लेख।
9 दिसंबर 2020 का ज्ञान प्रसाद
पहला :
अखंड दीप
परमपूज्य गुरुदेव ने हमें अखंड दीप और अखंड ज्योति पत्रिका के बारे में कई बार शिक्षित करने का प्रयास किया है। हमने भी गुरुदेव के साहित्य में से रिसर्च करके अखंड दीप और इस पत्रिका का सम्बन्ध हमारे किसी पहले वाले लेख में चित्रण किया था। गुरुदेव कहते हैं जो परिजन शांतिकुंज आकर यहाँ स्थित पिछले 95 वर्षों से अनवरत जागृत अखण्ड दीपक के दर्शन करते है, उसके मूलभूत तत्वदर्शन व परोक्ष सिद्धि के स्वरूप को भी समझें। इसी तरह का दीपक तो वे अपने घर में भी जला लें लेकिन उसे “सिद्ध ज्योति” जैसा बनाने का पुरुषार्थ भी करें। दीप जलाने के साथ तप साधना जुड़ी है। यह केवल एक दीप नहीं है। दादा गुरु सर्वेश्वरानन्द जी ने 1926 की वसंत के दिन गुरुदेव के निवास आंवलखेड़ा में आकर इस दीप को जलाने और उसके सामने बैठ कर साधना करने का निर्देश दिया था और हमारे पूज्यवर ने आज तक स्थूल एवं सूक्ष्म रूप में उस निर्देश का पालन किया। नमन है ऐसी गुरु भक्ति को। हमारे सूझवान सहकर्मी जानते ही होंगें कि पहले यह दीपक मात्र 24 पुरश्चरणों के लिए था। जिस प्रकार 40 दिन में एक गायत्री अनुष्ठान ( सवालक्ष ) पूर्ण हो जाता है इसी प्रकार 40 वर्ष तक जलते रहने पर अखंड घृतदीप भी ” सिद्ध ज्योति “बन जाता है जब 30 वर्ष तक यह दीपक जल चुका था एवं सारे परिवार ने क्रमशः चौबीस घंटे जागरण रखकर इसे जलाये रखा तो अब इसको बंद करने का कोई औचित्य नहीं दिखाई देता। गुरुदेव की अनुपस्थिति में वंदनीय माता जी ने पूज्यवर के निर्देशों का अक्षर ब अक्षर पालन किया। इसी दीपक के प्रकाश में अपनी गुरुसत्ता पूज्य गुरुदेव एवं परोक्ष सत्ता का दर्शन कर पूरा परिवार चलाती रहीं ,सम्पादन करती रहीं और सारे दायित्व निभाती रहीं जो उन्हें एक संस्था के संचालक के नाते करना था।
जन सामान्य अनुकरण की प्रवृत्ति अपनाते हुए सारी सिद्धि का स्रोत एक दृश्य उपचार को मानते हुए अखण्ड दीपक या अग्नि प्रज्ज्वलित तो कर देते हैं पर उसका निर्वाह नहीं कर पाते। दीपक तभी सिद्ध हो पाता है जब तप साधना का पोषण सुपात्र साधन द्वारा किया जा रहा हो। यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं है कि किसी और से करा लिया जाय। जप-अनुष्ठान भी स्वयं करना पड़ता है, तप-तितीक्षा भी स्वयं करनी पड़ती है तथा आत्मशोधन को अनिवार्य अंग मानते हुए उसे सतत् निभाना पड़ता है। यही कार्य पूज्य गुरुदेव व वंदनीया माता जी ने किया तथा आज भी वह अखण्ड दीपक जो 95 वर्षों से जल रहा है, शांतिकुंज में स्थापित है। समस्त प्रेरणाओं व सिद्धियों का वह स्रोत है। उसके सामने अभी भी अखण्ड जप चलता है। उसके सान्निध्य में एक करोड़ गायत्री जप नित्य सम्पन्न होता है व नौ कुण्डीय यज्ञशाला में प्रतिदिन गायत्री यज्ञ में आहुतियाँ दी जाती है। इसी से यहाँ के प्रसुप्त बीजाँकुर फलित-पल्लवित हुए है। पूज्य गुरुदेव ने इसी के प्रकाश में सतत् लेखनी की साधना तथा अपनी उपासना सम्पन्न की।
प्रस्तुत पंक्तियाँ भी उसी अखण्ड दीपक के प्रकाश में परोक्ष प्रेरणा से लिखी जा रही है। पूज्य गुरुदेव रूपी परोक्ष शक्ति ही इस ज्ञानरथ के लेखों को लिखने की प्रेरणा दे रहे हैं। सहकर्मी भी इन लेखों से मिला ज्ञानप्रसाद जन-जन में वितरित कर अपना योगदान दे रहे हैं।
इसी निर्देश के साथ लेखनी रुपी संजीवनी के रूप में अखंड ज्योति पत्रिका हम सब को अनवरत मार्गदर्शन दे रही है। हम सब इन दोनों को प्राप्त करके सौभाग्यशाली तो हैं लेकिन उन कार्यकर्ताओं के भी आभारी हैं जिन्होंने अखंड ज्योति पत्रिका और गुरुदेव का और भी साहित्य डिजिटल फॉर्म में उपलब्ध कराया। युग निर्माण योजना प्रेस के कार्यकर्ता आदरणीय अनिल कुमार पाठक जी ने हमें बताया की गुरुदेव द्वारा लिखित 3200 पुस्तकों में से केवल कुछ एक ही डिजिटल फॉर्म में आ सकी हैं।
तीर्थों का जो महत्व होता है, उससे कहीं अधिक महत्व ऐसी सिद्ध ज्योति का है जिसमें तिल-तिल कर एक साधक ( हमारे गुरुदेव ) ने अपना जीवन होम किया। गुरुदेव ने न केवल अपनी कुण्डलिनी जाग्रत की, विश्वात्मा की कुण्डलिनी जगाने हेतु सूक्ष्मीकृत घनीभूत होकर अभी भी परोक्ष जगत में सक्रिय होकर हम सब को निर्देश दे रहे हैं।
दूसरा :
एक शरीर में रहते हुए पांच शरीर :
गुरुदेव के निकट संपर्क में रहने वाले इस तथ्य को भली भाँति जानते थे कि वे एक शरीर में रहते हुए भी पाँच शरीरों जितना कार्य करते थे। एक ही समय में गुरुदेव अलग -अलग जगहों पर अलग -अलग कार्य करते हुए देखे गये हैं। जो लोग गुरुदेव की शक्ति को नहीं जानते /पहचानते वोह तो इसको सम्मोहन ही कहेंगें। सम्मोहन को अंग्रेजी में हिप्नोटिस्म यां मेस्मेरिस्म कहते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के पाँच कार्यों का सम्पादन एक साथ कैसे होता था, यह रहस्यमय प्रसंग होता है और निकटवर्ती जानते है कि उनने अस्सी वर्ष की आयु में आठ सौ वर्षों का जीवन जिया है।
” पाँच काम पाँच शरीर से कैसे होते थे, इसका थोड़ा विश्लेषण करें।”
1 – पहला तो, 6 घंटे प्रतिदिन गायत्री माँ की उपासना जो 8 घण्टे शारीरिक श्रम व 7
घण्टे मानसिक श्रम (चिन्तन, मनन, स्वाध्याय, लेखनी की साधना) के अतिरिक्त थी। यह सोचा जा सकता है कि 24 घंटे में 21 ( 6 + 8 + 7 = 21 ) घंटे जब इसमें चले गए तो वे सोते कब थे। यही तो ” अलौकिक सिद्धि ” है जो किसी भी नाम से पुकारी जा सकती है पर उनके निकटवर्ती जानते हैं कि प्रातः 1 बजे से उठकर जो उनने कार्य आरंभ किया है तो उसे बिना विराम दिये सतत् रात्रि 10 बजे तक सम्पन्न किया है। यह केवल तपोबल से अर्जित सामर्थ्य के सहारे ही संभव है।
2 – दूसरा काम था एक हजार से अधिक परिजनों के पत्रों को जो नित्य आते थे, खोलना, पढ़ना व उन्हें 24 घंटे के भीतर ही जवाब देना। वह भी इतना सटीक, आत्मीयता भरा कि सामने वालों को यह लगता था कि जो भी कुछ वह पूछना, जानना, मार्गदर्शन पाना चाहते थे उन्हें मिल गया। पिता की आत्मीयता मिल गयी, स्नेह की पूर्ति हो गई। हरिद्वार आने पर भी यह काम उनने सतत् किया पर सहायकों के माध्यम से और वंदनीया माताजी का मार्गदर्शन 1972 के बाद साधकों को पहुँचने लगा। पत्रों का वर्गीकरण ( classification ) स्वयं गुरुदेव करते थे। क्या जवाब, किसको किस प्रकार दिया जाना है, यह निर्धारण भी स्वयं करते थे। यह एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी वे पहले वंदनीया माताजी को और उसके बाद शांतिकुंज के कार्यकर्ताओं को सौंप गये है। परोक्ष मार्गदर्शन तो उनका है ही। उनके संगठन का मूलभूत आधार तो वे पत्र ही है जो उनने अगणित व्यक्तियों को लिखे, स्नेह के आधार पर जिन्हें उनने अपना बना लिया।
ऑनलाइन ज्ञानरथ भी उन्ही के निर्देश और मार्गदर्शन में अपने सहकर्मियों के कमैंट्स के उत्तर देने में हर पर सतर्क रहता है। कमेंट हो यां कोई प्रश्न सभी का अपने विवेक के अनुसार उत्तर देना हमारा धर्म है।
3 -तीसरा काम जो एक काया से रहते हुए उनने किया वह था ” लेखन “। अपने वजन की तौल से कितने ही गुना वे लिखकर चले गए हैं। नियमित रूप से 3 घण्टे पढना व 4 घण्टे पत्रिका व किताबों के लिए लिखना। खाना छूट गया हो पर उनने कभी लिखने का नागा नहीं किया । सतत् स्वाध्याय द्वारा जो पढ़ा, दैवी सत्ता ने जो परोक्ष ज्ञान उन्हें दिया उसे वे बहुमूल्य विचारों के रूप में, ” सशक्त संजीवनी ” के रूप में लिपिबद्ध करते गये। एक बात और ध्यान रखने योग्य है कि गुरुदेव की स्मृति इतनी विलक्षण थी कि पढ़ने के बाद कभी संदर्भ ग्रन्थ सामने नहीं रखते थे। लगभग 3200 पुस्तकों के रूप में, अनदित भाष्यों के रूप में, स्वरचित प्रज्ञापुराण के रूप में इतना कुछ वे दे गए हैं कि आने वाले कई वर्षों के लिए इतना कुछ लिख कर दे गये हैं कि अखण्ड ज्योति पत्रिका सतत् प्रकाशित होती रहेगी, सदा ज्वलन्त देदीप्यमान ( प्रकाशमान ) बनी रहेगी। भले ही लेखनी किसी की भी हो विचार उन्हीं के होंगें और उन्ही की प्रेरणा से आयेंगे। ऑनलाइन ज्ञानरथ के लेख भी उन्ही के विचार और उन्ही कि प्रेरणा हैं।
4 -चौथा काम था व्यक्तिगत संपर्क, शिक्षण एवं मार्गदर्शन-परामर्श। विश्राम कभी कुछ क्षणों का योगनिद्रा द्वारा किया हो तो ठीक है, नहीं तो अगणित व्यक्तियों से अपने अंतिम वर्षों के सूक्ष्मीकरण साधना के दिनों को छोड़कर नित्य वे मिलते ही रहे, उनमें प्राण फूंकते रहे, उनका मनोबल बढ़ाते रहे। वह दैनन्दिन जीवन संबंधी मार्गदर्शन, साधना संबंधी मार्गदर्शन तथा परिस्थितियों के अनुकूल कैसे मनःस्थिति बदली जाय पूज्यवर बड़े ही ममत्व व लगन के साथ बताते थे। कार्यकर्ताओं के हृदय के सम्राट उन्हें कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।
5 -पांचवां कार्य था मिशन की गतिविधियों के लिए सतत् बाहर घूमते रहना व प्रचार कार्य को गति देना। प्रारंभ के कुछ वर्ष गाँधीजी के साबरमती आश्रम व कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर के शाँतिनिकेतन में रहे। अड्यार ( Theosophy सोसाइटी ) भी वे गये तथा एनी बेसेंट की बनारस की लाइब्रेरी भी उनने पढ़ डाली। एनी बेसेंट एक ब्रिटिश नागरिक थीं और इंडियन नेशनल कांग्रेस की प्रेजिडेंट भी रहीं। 1972 ईस्ट अफ्रीका के देशों में भी गए। इसके अतिरिक्त जहाँ जहाँ कार्यकर्ता सुदूर क्षेत्र में रहते थे मिशन के विस्तार हेतु उनके पास जाने का क्रम बनाया। रास्ते में, यात्रा में लिखते भी थे उपासना क्रम भी चालू रखते थे। 1971 की विदाई से 15 दिन पहले तक वे सतत् घूमते रहे थे व एक-एक दिन में 3-4 स्थानों के कार्यक्रम उनने निपटाये। न केवल सम्पन्न किया, वरन् जो मिलने आया उससे इतना समीप से मिले कि उसे लगा मुझसे अधिक उनका कोई और समीप नहीं है। 1980-82 में शक्तिपीठों के शिलान्यास व फिर प्राण प्रतिष्ठा हेतु निकले तो एक दिन में पाँच कार्यक्रम सम्पन्न कराते चले गये।
किसी भी कसौटी पर परख लिया जाय, कोई संगति दिनों व क्षणों की बैठती नहीं कि कैसे यह कार्य सम्पन्न किया जाता होगा। पर महाकाल की शक्ति तो ऐसी ही प्रचण्ड होती है। एक ही बार में वे पाँच जगह कैसे सक्रिय बने रहते थे, यह बात उनके कार्यकाल में उनके निकटवर्ती कार्यकर्ताओं ने कई बार पूछी। पर निर्देश न होने से, समाधान वही दे दिया गया जो ऊपर पाँच शरीरों से किये जाने वाले काम के रूप में दिया गया है।
” पर यदि परिजन वास्तव में सिद्ध पुरुष की सिद्धि सुनना, जानना चाहते हैं तो एक घटना सुन लें। “
मध्य प्रदेश (पश्चिम) के दौरे पर एक कार्यकर्ता उनके पीछे पड़ा कि गुरुदेव आप पाँच स्थान पर कैसे रहते है? उसकी जिद को पूरा करने व अपनी लीला दिखाने के लिए उनने उससे उसी समय बिलासपुर का एक टेलीफोन नंबर दिया व कहा कि कॉल मिलाकर पूछो कि वहाँ क्या चल रहा है? जवाब मिला गुरुदेव का पूर्व से कार्यक्रम था। वे प्रवचन देकर आये हैं व उनके यहाँ भोजन कर रहे हैं। फोन उन सज्जन के हाथ से नीचे गिर गया व उनने साष्टांग दण्डवत् कर पूज्यवर से कहा-
“अब कभी शंका नहीं करूंगा प्रभु।”
क्या कहेंगे आप इसे? क्या यह भी मैस्मरेज्म , हिप्नोटिज्म यां सम्मोहन है। सिद्ध पुरुषों की लीलाएँ निराली होती हैं। वे सशरीर थे, तब न जाने क्या रहस्यमय रच गए हैं, सूक्ष्म शरीर से तो परिजनों को अभी और अधिक अनुभूतियाँ हो रही होंगी। YouTube पर कितने ही परिजनों ने अपनी अनुभूतिआँ अपलोड को हुई हैं। इच्छुक सहकर्मी ोंलने रीसर्च करके यां शांतिकुंज की वेबसाइट से इन अनुभतियों को पढ़ सकते हैं।
इति श्री
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित