30 नवम्बर 2020 का ज्ञानप्रसाद
सुप्रभात और शुभदिन की कामना
गायत्री तीर्थ शांतिकुंज हम में से बहुत लोग जा चुके हैं और इसके दिव्य वातावरण से परिचित भी हैं लेकिन ऐसे भी बहुत होंगें जो इस युगतीर्थ को एक धर्मशाला व पर्यटन स्थल मानते हों । इच्छा हो रही थी कि अपने परिजनों को दिखाएँ कि इस युगतीर्थ के अंदर सही मानो में है क्या जो इतनी शांति मिलती है। इस प्रश्न के उत्तर में एक पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है परन्तु एक छोटा सा प्रयास प्रस्तुत है। आशा करते हैं कि जिन्हे पहले ही पता है उनको कुछ नया मिले और जिन्हे कुछ नहीं पता उनको एक जानकारी मिले।
युगतीर्थ शांतिकुंज :
तीर्थों के विषय में हर व्यक्ति की मान्यता भिन्न-भिन्न प्रकार की है। कोई इन्हें पर्यटन स्थली मानता है, कोई इनकी दर्शन झाँकी से मिलने वाले कौतुक को ही सब कुछ समझता है, कोई इन्हें इनकी पृष्ठ भूमि से जोड़ कर सुसंस्कारित स्थान मानते हैं जहाँ महामानवों ऋषियों ने या देव मानवों ने समय समय पर अपने श्रेष्ठ कृत्यों द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण स्थापनाएँ की। गायत्री तीर्थ में ऋषि परंपराओं का बीजारोपण करते समय पूज्य गुरुदेव ने इन सब पक्षों का ध्यान रखते हुए ही उसकी उपमा एक नर्सरी, एक टकसाल, एक ऐसे कारखाने से दी थी जहाँ से महामानव रूप पौध समाज के कोने कोने में भेजी जानी थी, वे सिक्के ढलने थे जिन्हें हर कसौटी पर खरा उतरना था।

भव्य निर्माण, मठ, मन्दिर तो अनेकों बने हुए हैं व बनते रहते है। किन्तु उनकी सार्थकता तभी है जब उनमें काम करने वाले प्राणवान हो और किसी श्रेष्ठ उद्देश्य के साथ जुड़े हों। यह चिन्तन हमारे परमपूज्य गुरुदेव के मन को सदैव मथता रहा कि अगर समाज में सत्प्रवृत्तियाँ फैलानी हैं और दुष्प्रवृत्तियों से मोर्चा लेना है तो उसके लिए उच्च स्तर के व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी। इन उच्च स्तरीय व्यक्तियों को श्रेष्ठ स्तर का शिक्षण देने के लिए उपयुक्त वातावरण भी देना पड़ेगा। उनकी सुसंस्कारिता तभी अंकुरितऔर पल्लवित होगी जब उन्हें उर्वर भूमि में सभी अनुकूल परिस्थितियाँ मिलें। इसका उदाहरण एक श्रेष्ठ किसान का दिया जा सकता है जो बीज डालने से पूर्व भूमि तैयार करता है और उपयुक्त वातावरण उपलब्ध करवाता है। बिना चैक किये केवल बीज डालने से कुछ भी हासिल नहीं होता।
अखण्ड ज्योति परिवार की स्थापना एक साधारण मनोरंजन करने वाली पत्रिका के सदस्यों का परिकर बनाने के लिए नहीं की गयी थी अपितु इसके संपर्क में आने वाली हर संस्कारवान आत्मा को सत्परामर्श व स्वाध्याय हेतु श्रेष्ठतम पाठ्य सामग्री प्रदान की गयी थी। जो साहित्य विगत पचास वर्षों में पूज्य गुरुदेव ने लिखा वह युग साहित्य कहलाया जिसमें सामयिक समस्याओं का समाधान व उलझनों का हल परिस्थितियों के अनुरूप किया गया था।
गुरुदेव ने अप्रैल 1980 की अखंड ज्योति में जागृत आत्मायों को शांतिकुंज में आकर जीवनदानी के रूप में निवास करने का आमंत्रण दिया था। शांतिकुंज के प्रेरणाप्रद वातावरण में देवस्तर की ढलाई हेतु बसने वाले देव परिवार का अंग बनने के लिए जागृतात्माओं को निवास आमंत्रण भेजते समय गुरुदेव के मन में यही परिकल्पना रही कि गायत्री नगर को गुरुकुल, आरण्यक ( वैदिक वानप्रस्थ ) स्तर का बनाया जाय जहाँ रहकर अखण्ड ज्योति , युग निर्माण योजना एवं युग शक्ति गायत्री के पाठक-गुरुदेव के सभी मानस पुत्र तीर्थ कल्प का भी लाभ ले सकें तथा अपनी प्रतिभा का परिष्कार कर उन महामानवों की पूर्ति कर सकें जिनके अभाव से ही समाज में सारी समस्याएँ पनपी हैं।
कैसे आयी सब ऊर्जा :
पूज्य गुरुदेव इस अंक में लिखते है कि “धर्म और अध्यात्म” के चमकीले बोर्ड वाले स्टालों की सजधज समाज में कम नहीं है। कलेवर की दृष्टि से धर्माडम्बर किसी अन्य से पीछे नहीं। इतना कुछ होने के बावजूद ” प्रभावी वातावरण का अभाव ” अभी भी जहाँ का तहाँ है। सुविधा सम्पन्न धर्म स्थान देखे जाते हैं पर उच्चस्तरीय आत्माओं का निवास न होने के कारण वहाँ भी ऐसा कुछ नहीं दीखता जिसमें अनगढ़ों को भी ढलने का, बदलने का अवसर मिले।। इस अभाव के कारण उस ऊर्जा की कमी खटकती ही रहेगी जिससे फसल पकती है और अण्डों से चूज़े निकलते हैं।
ऊपर जो वर्णन पूज्य गुरुदेव द्वारा किया गया है वह कितना वास्तविकता से भरा है इसका सहज अध्ययन तीर्थ स्थानों पर जा कर किया जा सकता है। पूज्य गुरुदेव का अध्यात्म ” प्रगतिशील कर्मयोग ” परक अध्यात्म रहा है जिसमें व्यक्ति मात्र बाबा जी बनकर न बैठे अपितु विश्व उद्यान को सींचने, समुन्नत बनाते में अपनी और से कोई कसर न छोड़े। श्री मद भगवत गीता के दूसरे अध्याय का 47 वं श्लोक कर्म की theory को कैसे परिपक्व करता है यह हम सब जानते हैं
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ 2 -47
इस अध्यात्म को जिन्दा कौन करे? केवल प्रखर प्रतिभा सम्पन्न सुसंस्कारित व्यक्ति ही ऐसा कर सकते हैं व ऐसे देवमानवों के निर्माण हेतु एक गलाई-ढलाई के लिए उपयुक्त स्थान चाहिए था। जहाँ वे जैसा चाह रहे थे वैसा निर्माण कर सकें। ऐसे व्यक्ति जो युग नेतृत्व कर सकें, मल्लाह की भूमिका निभा सकें, दूसरों का मार्गदर्शन कर सकें।
शांतिकुंज का वातावरण :
वातावरण कैसे श्रेष्ठ बनाया गया इस के लिए वे लिखते हैं कि जहाँ सहज ही श्रेष्ठता के अनुगमन उमगने लगे। उत्कृष्टता के उदाहरणों का जहाँ बाहुल्य हो वहीं देव वातावरण है व जहाँ ऐसा प्रभाव होगा वहाँ के संपर्क में आने वाले व्यक्ति देवों जैसा उत्कृष्ट स्तर का दृष्टिकोण अपनाते देखे जाएंगे। वातावरण को श्रेष्ठता से अनुप्राणित करने के लिए ही गायत्री तीर्थ को तप की ऊर्जा से संस्कारित कर यहाँ देवी संरक्षण उपलब्ध कराया गया तथा ऋषि परम्पराओं की स्थापना का, उन प्रचलनों को आरम्भ किया गया जो सतयुग की वापसी में सहायक सदा से रहे हैं।
पाठक अप्रैल 1980 की अखंड ज्योति में पूरा विवरण पढ़ सकते है। यहाँ पर रहने वालों की सिलेक्शन किस आधार पर हुई थी। उनको यहाँ पर जीवन भर रहने का निर्णय लेने के लिए कितना समय दिया गया था। शुरू में कितने जीवनदानी रहते थे आदि आदि।
गुरुदेव की दूरदर्शिता और भविष्य में झाँकने की शक्ति से हम भली भांति परिचित हैं। गुरुदेव तो शांतिकुंज में 1971 में आ गए थे और गायत्री नगर में स्वयं सेवकों ,जीवन दानियों के निवास की व्यवस्था अनवरत चलती रही। जब उन्होंने देखा की अब समय आ गया है तो उन्होंने 1980 में आमंत्रण भेजे। आमंत्रण का अर्थ यह नहीं है कि हर किसी तो बुला लिया। अगर ऐसा हुआ होता तो गायत्रीनगर में पांव रखने का स्थान भी न होता। जो लोग एक साधक की तरह ,आश्रम का जीवन व्यतीत करके युग निर्माण में अपना योगदान देने में संकलिप्त हों उन्ही की यहाँ आवश्यकता है। गुरुदेव ने विवाह की पार्टी का उदाहरण देते हुए लिखा है कि किसी भी आमंत्रण में सबसे कठिन कार्य arrangement का होता है। सब्ज़ी कहाँ से आएगी ,हलवाई कौन सा लेना है इत्यादि। गुरुदेव ने यह सब निश्चित करने के बाद ही आमंत्रण भेजे नहीं तो भगदड़ मचना सम्भव था।
गायत्री नगर को बौद्ध विहारों जैसा युगशिल्पियों का प्रशिक्षण संस्थान बनाया गया और मात्र बसने के लिए, समय गुजारने के लिए धर्मशाला नहीं बनायी गयी, अपितु साँचे की भूमिका निभा सकने वाले प्राणवानों को जो स्वयं “डाई” बन सकें व दूसरों को भी अपने जैसा बना सकें, स्टूडेंट- टीचर भूमिका निभा सकें, ऐसी प्रतिभाओं को रहने हेतु आमंत्रित किया गया। जो खुद भी पढें और दूसरों को भी पढ़ाएं ऐसे प्राणवान आत्मनिर्माण और लोककल्याण की दुहरी साधना साथ कर सकें, इसलिए उन्हें परमार्थ कार्य में नियोजित होने को आमंत्रित किया गया।
इसके लिए पूज्य गुरुदेव ने शर्त रखी कि जो अपनी भौतिक महत्वाकाँक्षाओं को नियंत्रित कर ब्राह्मणोचित निर्वाह में तपोमय जीवन जी सकें तथा परमार्थ हेतु अपना 12 से 18 घण्टे का श्रम समाज के नवनिर्माण हेतु लगा सकें वे ही आएँ। जो भी आए उन्हें पूरी कसौटी पर कसकर प्रशिक्षण प्रक्रिया से गुजारने के बाद रहने का अवसर दिया गया।
पहले तीन मास के लिए कहा गया था। अगर तीन मास में वातावरण और स्थिति समझ आ गयी ,यहाँ का साधना युक्त वातावरण भा गया तो स्थाई निवास हो सकता है। अधिकतर जीवनदानी ऐसे हैं जिन्होंने अपने उच्च पद, सम्मान, वैभव को लात मार कर यहाँ का सीधा सरल, जीवन स्वीकार किया। पूज्य गुरुदेव के निर्देशों के अनुरूप स्वयं के जीवन को, अपने परिवार को ढाला एवं देखते देखते उच्चशिक्षित, प्रतिभावान अढ़ाई सौ व्यक्तियों का एक देव परिवार यहाँ बस गया। 250 तो 1980 में थे आज 2020 में यह संख्या बहुत ही अधिक है।
हमारे जिन पाठकों को शांतिकुंज जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है उन्हें शायद कभी इन जीवनदानियों के घरों में जाने का और इनके रहन सहन को देखने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ हो। डॉक्टर ओ पी शर्मा जी के घर की वीडियो हमने अपने चैनल पर अपलोड की हुई है। इतनी बड़ी पदवी छोड़ कर आये यह दोनों पति पत्नी इतने छोटे से घर में एक ऋषि जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
ऐसे जीवनदानी करोड़ों व्यक्तियों की दष्टि का केंद्र हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि पूज्य गुरुदेव द्वारा जिये गये जीवन, उनके द्वारा निर्धारित आदर्शों को ही जीवन में उतार कर वे लोकसेवा के क्षेत्र में पदार्पण सार्थक कर सकते हैं। जो इनका निर्वाह नहीं कर पायेगा, महाकाल उनके स्थान पर औरों की व्यवस्था भी कर लेगा किन्तु भगवान का यह कार्य रुकेगा नहीं, सतत् बढ़ता ही रहेगा।
जय गुरुदेव