परमपूज्य गुरुदेव के कुछ अवस्मरणीय पल

28 नवम्बर 2020 का ज्ञानप्रसाद

2 जून 1990 को गुरुदेव के स्वेच्छा से महाप्रयाण के उपरांत ब्रह्मवर्चस रिसर्च सेंटर के कार्यकर्ताओं ने एक अद्भुत प्रयास करके अखंड ज्योति पत्रिका का स्पेशल अंक निकाला। 200 पन्नों यह अंक सारे का सारा परमपूज्य गुरुदेव पर ही आधारित था। हमने इस अंक को कई बार पढ़ा और फिर मन हुआ कि इतने अच्छे संस्मरण ज्ञानरथ में शामिल होने चाहिए। तो प्रस्तुत है इस अंक में से कुछ चुने हुए पल। हो सकता है कि हमें इस को कई कड़ियों में लिखना पड़ेगा।


पूज्य गुरुदेव के जीवन के अस्सी वर्ष का हर दिन , हर पल एक महत्वपूर्ण निर्धारण से जुड़ा हुआ है। जिन्होंने उन्हें समीप से देखा व उनकी रीति-नीति का अध्ययन किया है, वे भली-भाँति जानते हैं कि वे अपने लिए एक सुनियोजित रूप रेखा निर्धारित करके आए।
-प्रत्येक वसंत पर्व उनका आध्यात्मिक जन्मदिन रहा है व वर्ष भर के महत्वपूर्ण निर्णय उसी दिन लिए जाते रहे हैं।
-प्रत्येक गायत्री जयंती ज्ञान पर्व के रूप में मनाई जाती रही।

  • प्रत्येक गुरुपूर्णिमा संकल्प-कर्म अनुशासन पर्व के रूप में मनाई जाती रही ।

हर दस वर्ष के अन्तराल से वे न्यूनाधिक समय के लिए 1941, 1951, 1960-61 व 1971 में हिमालय अज्ञातवास के लिए गये व अपने मार्गदर्शक का महत्वपूर्ण दिशा निर्देशन लेकर लौटे।
सन् 1961 के अज्ञातवास से लौटने के बाद उनका सुनिश्चित निर्धारण था कि दस वर्ष बाद वे वर्तमान कार्यस्थली मथुरा को छोड़कर हिमालय चले जायेंगे। बाद का निर्धारण उनके गुरुदेव करेंगे। एक लेख सन् 1962 की अखण्ड-ज्योति में प्रकाशित हुआ था।
शीर्षक था

“हमारे आने वाले सवा नौ वर्षों का कार्यक्रम।”

उन्होंने तब तक घोषणा नहीं की थी कि अपने आयुष्य का 60 वर्ष ( 1971 ) पूरा होते ही वे मथुरा से प्रयाण करके हमेशा के लिए हिमालय की गोद में जा बैठेंगे किंतु अपनी सीमा रेखा का तभी निर्धारण कर लिया था।

एक पत्र जो गुरुदेव ने उन दिनों एक परिजन को लिखा था, विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। उस पत्र को यहाँ पर यथा रूप प्रकाशित किया जा रहा है

विदाई के पहले अपनी अन्तर्व्यथा को गुरुदेव ने किसी से नहीं छिपाया।

“पीछे जो किया जा चुका, हमें उससे हजार लाख गुना काम अभी और करना है। उच्च आत्माओं को मोहनिद्रा से जगाकर ईश्वरीय इच्छा की पूर्ति के लिए लोकमंगल के क्रिया-कलापों में नियोजित करना है। विदाई का वियोग हमारी भावुक दुर्बलता हो सकती है या स्नेहसिक्त अंतःकरण की स्वाभाविक प्रक्रिया। जो भी हो हम उसे इन दिनों लुप्त करने का यथासंभव प्रयास कर रहे हैं। मन की मचलन का समाधान कर रहे हैं। गत एक वर्ष से देशव्यापी दौरे करके परिजनों से भेंट करने की अपनी आन्तरिक इच्छा को एक हद तक पूरा किया है। अब विदाई सम्मेलन बुलाकर एक बार, अन्तिम बार जी भर कर अपने परिवार को फिर देखेंगे।”

” हमारे आत्मस्वरूप, 29-9-62 का पत्र मिला। फार्म भी। युग निर्माण संबंधी आवश्यक परिपत्र अगले सप्ताह भेजेंगे। आपका मारकेश ( बुरा समय ) हमारे यहाँ रहते सफल नहीं होगा। हम अभी 8 वर्ष इधर हैं। तब तक आप पूर्ण निश्चिंत रहें। नवरात्रि में आपका साधनाक्रम चल रहा होगा। सब स्वजनों को हमारा आशीर्वाद और माताजी का स्नेह कहें।
श्रीराम शर्मा आचार्य “

इस पत्र से यह स्पष्ट है कि अपने परिजन को जून 1971 तक अपने मथुरा रहने तक संरक्षण का आश्वासन दिया था। वह पूरा भी किया। पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी प्रत्यक्ष से परोक्ष में जाने की स्पष्ट घोषणा लिखित में उन्होंने लगभग नौ वर्ष पहले ही कर दी।

” यह एक द्रष्टा का ही कार्य हो सकता है जो भविष्य के गर्भ में झाँक सकता है, ।”

शांतिकुंज को एक तीर्थ के रूप में विकसित करना होगा, और उन प्रवृत्तियों का आरंभ करना होगा जिन्हें पूर्व काल में ऋषि करते रहे हैं। क्योंकि ऋषि परम्पराएँ लुप्त हो गयी हैं उन्हें अब पुनर्जीवन प्रदान करने की आवश्यकता होगी।

i ) जनवरी 69 से चालू हुई उनकी लेखनी जून 1971 तक लगातार 30 माह तक बराबर परिजनों को रुलाती रही, उत्तेजित करती रही।
ii ) चार-चार दिन के “मिलन सत्र” पूरे एक वर्ष (जून 70 से जून 71 ) तक सतत् चलाये गये। इसमें गुरुदेव को अपनी मन की बात कहने का मौका मिला। 2000 व्यक्ति प्रति सत्र एक वर्ष तक आये, लगभग 100 सत्र आयोजित करवाए गए। इस प्रकार लगभग दो लाख व्यक्ति उनसे एक वर्ष में मिल गए
iii ) “अपनों से अपनी बात” शीर्षक के अंतर्गत गुरुदेव ने लिखा कि उन्हें अगले दिनों क्या-क्या कार्य प्रत्यक्ष रूप से करने हैं, परिजनों को क्या जिम्मेदारियाँ सँभालनी हैं तथा वे अपनी आगामी उग्र तपश्चर्या क्यों करने जा रहे हैं।

अप्रैल 1971 में संपादकीय स्तंभ में वे लिखते हैं:

विदाई सम्मेलन 16 जून 1971 से 20 जून 1971 तक गायत्री तपोभूमि मथुरा में संपन्न हुआ। सहस्रकुंडीय महायज्ञ से भी बड़ा यह समागम था व लाखों व्यक्तियों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें विदाई दी। पाठक हमारे चैनल पर विदाई सत्र की वीडियो देख सकते हैं। 50 वर्ष पूर्व टेक्नोलॉजी आज जैसी नहीं थी। हमने सारी वीडियो फिर से रिकॉर्ड करके प्रस्तुत की है। हमें इस कार्य में काफी समय लगा था।

पाठक इन शब्दों में एक पिता का स्नेह ,ममत्व संरक्षण और दायित्व देख सकते हैं।

उपरोक्त पंक्तियाँ संभवतः परिजनों को भावी संभावनाएँ बताने व उनकी अंतिम परीक्षा लेने के लिए लिखी गयी थीं।

हम विश्वास करते हैं कि हमारे पाठक प्राण प्रत्यावर्तन से अच्छी प्रकार परिचित होंगें लेकिन फिर भी डिटेल में जानने के लिए हम चाहेंगें कि चेतना की शिखर यात्रा 3 के पेज नंबर 102 -103 का सहारा ले सकते हैं। इसमें इन सत्रों के बारे में बहुत ही अच्छे उदाहरण दिए हैं।

गुरुदेव , वंदनीया माताजी एवं उनका अखण्ड दीपक शांतिकुंज आ गए। शांतिकुंज में अभी construction मात्र रहने योग्य स्थिति में ही थी । नौ दिन तक वे घनिष्ठ कार्यकर्ताओं एवं वंदनीया माताजी को महत्वपूर्ण निर्देश देते रहे एवं दसवें दिन रात्रि 2 बजे उठकर बिना किसी को बताए अपने गन्तव्य पर चले गये।”अखण्ड-ज्योति” निरन्तर जलती रही व पूज्य गुरुदेव की चिन्तन चेतना सभी पाठकों का दैनन्दिन जीवन में मार्गदर्शन करती रही।

जनवरी 1972 में बंगला देश के मुक्ति युद्ध के समापन के बाद पूज्य गुरुदेव थोड़े से समय के लिए शांतिकुंज अचानक आए एवं माताजी को प्रत्यक्ष मार्गदर्शन देकर फिर चले गए। जून 1972 में अपनी गुरु सत्ता के मार्गदर्शन पर सप्तऋषियों की तपस्थली में रह कर ऋषि परम्परा का बीजारोपण कर देवमानवों को विनिर्मित करने हेतु अपना प्रचण्ड तपोबल संचित कर वापस लौट आए। अपनी आत्मकथा में अपनी ही लेखनी से गुरुदेव ने इस एक वर्ष की अवधि में गुरु सत्ता द्वारा क्या निर्देश दिए गए, इनका खुलासा स्वयं किया है।

दादा गुरु द्वारा दिए गए निर्देशों का सार सन्देश :

मूल कार्य यह था कि शाँतिकुंज, जो ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की तपस्थली रही है, इसमें ऋषियों द्वारा संचालित समस्त गतिविधियों को चलाया जाय। इसके लिए गुरुदेव ने महत्वपूर्ण परामर्श व प्राण प्रत्यावर्तन सत्र सबसे पहले आयोजित किए। वस्तुतः गुरुदेव अपने तप की एक प्रखर चिंगारी सुसंस्कारी आत्माओं को देकर उन्हें ज्योतिर्मय बनाना चाहते थे ताकि नवसृजन के लिए एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी वे आत्माएं निभा सके। ऐसी आत्माएं जिनमें ग्रहण करने की पात्रता हो, ऐसे ही व्यक्तियों को स्वीकृति दी गयी। स्थान तो सिद्धपीठ था ही, उर्वर ( fertile ) अंतःकरण में प्राण अनुदान का खाद-पानी देकर उस बीज को अंकुरित, पल्लवित करना था। ऐसा बीज असंख्यों परिजनों में से कुछ सौ में विद्यमान पाया गया। यह एक महज संयोग नहीं है कि इन दिनों जो कार्यकर्ताओं की एक सशक्त टीम पूज्य गुरुदेव और वंदनीय माता जी के बाद गुरुतर दायित्वों को सँभाल रही है उन सब निर्धारणों को क्रिया रूप दे रही है जो पूज्य गुरुदेव अदृश्य जगत से सौंप रहे हैं, वह प्राण प्रत्यावर्तन सत्रों की अग्नि परीक्षा से गुजर चुकी है। अगस्त 1972 की अखण्ड-ज्योति में उनने लिखा है कि “प्रत्यावर्तन ” तप की पूँजी का वितरण है। जिन भाग्यवानों को इसका थोड़ा सा भी अंश मिल सका, वे निश्चित रूप से उसके लिए अपने भाग्य की सराहना जन्म -जन्मांतरों तक करते रहेंगें।

प्रत्यावर्तन सत्र फरवरी 1973 से आरंभ किये गये एवं फरवरी 1974 तक चले। ये विशुद्धतः साधना सत्र थे। विभिन्न मुद्राओं, त्राटक योग, सोऽहम्, नादयोग, आत्मब्रह्म की दर्पण साधना तथा तत्व बोध की साधना इनमें कराई गई। पंद्रह मिनट पूज्य गुरुदेव एकान्त में परामर्श भी देते थे। सीमित संख्या में प्राणवान साधकों को यह अनुदान दिया गया। ऐसे प्रखर साधना सत्र फिर आगे कभी नहीं हुए। इस बीच तीन-तीन माह के वानप्रस्थ सत्र, भी चले, अध्यापकों के तीन लेखन सत्र भी मई-जून 1974 में संपन्न हुए तथा साथ-साथ रामायण सत्र एवं महिला जागरण सत्र भी चलते रहे। प्राण प्रत्यावर्तन सत्र को फरवरी 74 से बन्द कर नौ दिवसीय जीवन साधना सत्र में बदल दिया गया। यही साधनाक्रम फिर आगे कल्प साधना तथा चान्द्रायण सत्रों आदि के रूप में चलता रहा।

जो परिजन शांतिकुंज से परिचित हैं वह जानते होंगें आज भी इसी प्रकार के विभिन्न सत्र अनवरत चल रहे हैं। अभी COVID -19 के कारण कुछ प्रतिबंध है परन्तु जो सत्र ऑनलाइन ज़ूम / सिस्को से हो सकते है सम्पन्न करवाए जा रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले ही तीन दिवसीय सत्र के रजिस्ट्रेशन कि सूचना ऑनलाइन circulate हुई थी। डॉक्टर गायत्री शर्मा तो अनवरत ही पुंसवन संस्कार आदि की guidance दिए जा रही हैं।

तो मित्रो आज के लेख को यहीं पर विराम देते हैं और आपके शुभ दिन का कामना के साथ आज का ज्ञानप्रसाद परमपूज्य गुरुदेव और वन्दनीय माता जी के चरणों में अर्पित करते हैं।

जय गुरुदेव

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