
21 नवम्बर 2020 का ज्ञान प्रसाद
आज का ज्ञानप्रसाद चेतना की शिखर यात्रा 1 पर आधारित है। श्रद्धेय डॉक्टर प्रणव पंड्या और ज्योतिर्मय द्वारा तीन अंकों की यह अद्भुत पुस्तक श्रृंखला अपने में बहुत कुछ कहती है। तीनो अंक ऑनलाइन उपलब्ध हैं और hard copies भी बहुत कम मूल्य पर उपलब्ध हैं। हमने इन तीनो पुस्तकों को एक बार नहीं ,दो बार नहीं बल्कि कईं बार पढ़ा है। जितनी बार पढ़ा हर बार नए प्रश्न और जिज्ञासा उत्पन्न हुई। इन पुस्तकों पर आधारित अन्य लेखों को पढ़ने के लिए पाठक हमारी वेबसाइट विजिट कर सकते हैं। इस पुस्तक के पहले 14 पन्ने ( आत्म चिंतन ) हमने पिछले दिनों में कई बार पढ़े। यही चिंतन मनन करते रहे कि इन 14 पन्नों में से हमारे सबके ज्ञानरथ के लिए कितने ही टॉपिक लिखे जा सकते हैं। कौन से टॉपिक पर पहले लिखें क्योंकि विचार आते -आते कई बार भूल भी जाते हैं और notes लिख कर रखना भी किसी सीमा तक ही मुमकिन है। हम यह सारी बातें अपने सहकर्मियों के साथ इस लिए शेयर कर रहे हैं कि परमपूज्य गुरुदेव का साहित्य इतना विशाल है कि इस एक जन्म में इसको पढ़ना और फिर पढ़ कर समझना कठिन ही नहीं असंभव है। चाहे ‘ चेतना की शिखर यात्रा ‘ हो ,’ सुनसान के सहचर ‘ हो यां फिर ‘ हमारी वसीयत और विरासत ‘ हो , हर पुस्तक में इतना ज्ञान छिपा है कि इनके बारे में कुछ भी कहने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। कई बार तो गूगल महाराज भी हमारे प्रश्नों का समाधान करने में असमर्थ हो जाते हैं। केवल 223 पन्नों की एक छोटी सी पुस्तक ” हमारी वसीयत और विरासत ” हर समय हमारे working टेबल पर विराजमान है। पिछले तीन वर्ष में जब भी इस पुस्तक का कोई भी पन्ना खोला नए प्रश्न उभर कर सामने आए। हैरानगी होती है कि इतने बड़े- बड़े subject के ग्रन्थ एक सप्ताह में पढ़ लिए तो इस छोटी सी पुस्तक में ऐसा क्या है। पाठक खुद पढ़ें तो शायद हमारे साथ सहमत हों। हम तो हर बार ही परमपूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में नतमस्तक होते रहे।
ऐसे हैं हमारे गुरुदेव।
तो आइये चलें आज के टॉपिक की ओर।
गुरुदेव मौन साधना में क्यों गए ?
1983 की रामनवमी को गुरुदेव मौन में चले गए। लोगों से मिलना जुलना बंद कर दिया। साधकों और कार्यकर्ताओं को अब तक उनका सान्निध्य अनवरत मिलता आ रहा था। वह क्रम टूट गया। उनके ‘एकान्त’ और ‘मौन’ के निर्णय से सभी लोग स्तब्ध रह गये। कुछ दिन पहले तक तो वे देश में जगह-जगह बनी शक्तिपीठों में प्राण-प्रतिष्ठा के लिए सघन यात्राएँ कर रहे थे। अचानक यह ‘ एकांत’ और ‘मौन’साधना ? इसका क्या अभिप्राय था ?
सभी परिजन इस असमंजस में थे कि अब मार्गदर्शन कैसे मिलेगा ,उनके सानिध्य के बगैर हम क्या करेंगें। वह असमंजस ज्यादा समय तो नहीं रहा, लेकिन जितनी देर भी रहा मन, प्राण जैसे निचुड़ गए। उन्होंने ‘एकांत’ और ‘मौन’ का तत्काल कोई कारण भी तो नहीं बताया था।
गुरुदेव मिल तो नहीं रहे थे लेकिन उनके सन्देश वीडियो यां ऑडियो से आते थे।
एक सन्देश इस प्रकार आया :
” जो अस्तित्व अभी तक प्रत्यक्ष, प्रकट और स्थूल रूप में सक्रिय दिखाई दे रहा था वह दिनोदिन सूक्ष्मीभूत होता जाएगा। इससे किसी को चिंतित या निराश होने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्यक्ष से जो काम संपन्न किए जा सके हैं, उनसे हजार, लाख गुना ज्यादा काम सूक्ष्मीकरण से संभव होंगे। “
यह आश्वासन किसी देहधारी सामान्य मानवीय सत्ता की ओर से नहीं, हजारों लाखों लोगों के जीवन में प्रकाश उत्पन्न करने वाले सिद्धपुरुष ( दादा गुरु ) की ओर से थे। कम से कम यहाँ तो हम उन्हें अलौकिक, दिव्य चेतना, परम पूज्य कह लें।
गुरुदेव द्वारा लिखित पुस्तक ” हमारी वसीयत और विरासत ” में सूक्ष्मीकरण का बहुत ही अच्छे तरीके से अर्थ बताया गया है। हमने उसी अर्थ से प्रेरित होकर सूक्ष्मीकरण पर एक वीडियो भी अपलोड की है। पाठक उस वीडियो को देख कर सूक्ष्मीकरण के बारे में जान सकते हैं। https://life2health.org/
सूक्ष्मीकरण साधना के संबंध में उन्होंने कहा था कि अभी तक असंभव सा लगने वाला युग परिवर्तन का महत्कार्य इस साधना के प्रभाव से संभव होता दिखाई देगा। भगवान शिव के प्रतिनिधि गणों की तरह पाँच वीरभद्र प्रकट होने की बात भी साधकों ने सुनी। वीरभद्र शिव के वे समर्थ रूप हैं, जो भगवान के कार्य को भगवान की ही सामर्थ्य के अनुरूप संभव कर दिखाते हैं। पौराणिक संदर्भो के अनुसार ये एक ही शिव सत्ता के पाँच स्वरूप हैं। गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण के प्रभाव से जिन वीरभद्रों के प्रकट होने की बात कही, वह चेतना के स्तर पर ही संपन्न होना था। सूक्ष्मीकरण का एक पक्ष यह भी था कि गुरुदेव अपने आपको साधकों के अस्तित्व में व्यक्त करेंगे। जो साधक या कार्यकर्ता बहुत सामान्य दिखाई देते हैं वे अपनी वर्तमान समर्था से कई गुना समर्थ होकर युगसाधना कर रहे होंगे।
अगली पंक्तियों में आप इन समर्थवान साधकों द्वारा सम्पन्न हुए कार्यों को देख सकेंगें।
क्योकि गुरुदेव का प्रतक्ष्य सानिध्य प्राप्त नहीं हो रहा था इस स्थिति को समझते हुए audio -visual साधनों की सहायता ली गयी। ऑडियो -वीडियो कैसेटों के माध्यम से गुरुदेव के सन्देश परिजनों तक पहुंचाए गए। यह सिलसिला कुछ समय तक ही चला। परिजन स्तब्ध भाव से उबरे और सहज होने लगे। उनकी आत्मिक स्थिति गुरुदेव के संदेशों को ग्रहण करने में समर्थ होने लगी तो यह उपक्रम आगे चलाने की आवश्यकता नहीं रही।
चिंताएं एकदम समाप्त तो नहीं हुईं। बीच-बीच में कांटों की तरह फिर उठ आती थीं। लेकिन गुरुदेव का आश्वासन जिस तरह चरितार्थ हो रहा था, वह चिंताओं का निवारण भी करते जाते थे। प्रत्यक्ष संपर्क पूरी तरह बंद था। बीच में कुछ अपवाद ही रहे होंगे, जब उन्होंने किन्हीं अनिवार्य कारणों से कुछ साधकों से भेंट की होगी। ऐसे अवसर कम ही आते थे।
एक विशिष्ट साधक का शांतिकुंज में आगमन :
ऐसे ही किसी अवसर की प्रतीक्षा में एक विशिष्ट साधक का शान्तिकुञ्ज आगमन हुआ। वह तंत्रमार्ग का अनुयायी था। यहाँ आने का उद्देश्य गुरुदेव से दीक्षा लेना था और उनका मौन खुलने की प्रतीक्षा कर रहा था।उस साधक की अपनी अनुभूति थी और बातचीत में उसने बताया भी कि गुरुदेव ” साक्षात शिव ” की सत्ता हैं। अभी आप लोगों ने देखा और अनुभव ही क्या किया है? जिन योगियों के पास होकर मैं आ रहा हूँ वे भी चर्चा करते हैं और मेरी अपनी भी अंतर्दृष्टि है कि ऐसी सत्ताएँ शरीर में रहते हुए कम और सूक्ष्म रूप धारण करने के बाद कई गुना काम करती हैं। अभी तो सिर्फ शंख बजा है। थोड़े से लोगों ने ही जाना है कि युग बदल रहा है पर कुछ वर्षों के बाद देखना कि गुरुदेव शक्ति का कितना प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न कर जाते हैं। उनके शरीर छोड़ देने के बाद यह प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देने लगेगा। सैकड़ों, हजारों सामान्य लोग असाधारण उपलब्धियाँ अर्जित कर रहे होंगे। ये उपलब्धियाँ अपने समय और समाज को समृद्ध करती हुई होंगी। उन दिनों और भी साधक यहाँ आया करते थे। उनकी अनुभूति भी लगभग इसी प्रकार की थीं।
1990 की गायत्री जयंती को गुरुदेव ने शरीर छोड़ा। उनके पार्थिव शरीर को अंतिम प्रणाम करने के लिए दक्षिण भारत से आए एक शाक्त ( समर्थ ) सिद्ध ने कहा कि यह व्यक्ति आने वाले युग का महानायक है। पूछा कि आप कैसे कहते हैं ? उन्होंने कहा यहाँ आए लोगों से अनुमान मत लगाइये। भविष्य में हजारों लाखों लोग उनके विचारों को जानेंगे, उनके कार्यों को समझेंगे और उनके होते चले जाएगें। उन्होंने जिन मूल्यों की स्थापना की है, लोग उन्हें जीने की चेष्टा करेंगे। उन साधक की यह अनुभूति 1986 से 1990 के बीच हुए मिशन के विस्तार से भी सही सिद्ध होती है। उक्त साधक सिर्फ आध्यात्मिक कारणों से गुरुदेव के पास आए थे। उन्हें शायद पिछले पाँच छह वर्षों के विकास की जानकारी नहीं रही हो। उन्होंने सिर्फ अपनी अंतर्दृष्टि से ही भावी संभावनाओं को देखा हो लेकिन गायत्री परिवार के तमाम परिजन उन वर्षों के साक्षी हैं।
गुरुदेव के शरीर में रहते ही 1988 में आरम्भ हुए युगसंधि महापुरश्चरण ने असंख्य लोगों को युगसाधना में प्रवृत्त किया। उनके शरीर छोड़ने के बाद वंदनीया माताजी के सान्निध्य में चली गतिविधियाँ और उपलब्धियाँ भी इस बात की साक्षी हैं कि गुरुदेव का आश्वासन सूरज की किरणों की तरह प्रत्यक्ष हो रहा था। विभिन्न क्षेत्रों और दिशाओं से लोग आ रहे थे। हर प्रकार के परिजन आए थे। महाप्रयाण के वर्ष में ही देश के विभिन्न स्थानों पर छह दीप महायज्ञ, उसके बाद शान्तिकुञ्ज में हुआ श्रद्धांजलि समारोह, शपथ समारोह, अश्वमेध यज्ञों की घोषणा और इस तरह के तमाम कार्यक्रमों में उमड़ उठा जनसमुदाय भी गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण की सामर्थ्य को प्रकट कर रहा था। गायत्री परिवार के स्थानीय संगठनों में और शक्तिपीठों, प्रज्ञा संस्थानों में काम कर रहे कार्यकर्ता, विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय विभूतिवान लोग, उनके प्रयास और परिणामों के रूप में भी जैसे गुरुदेव व्यक्त हो रहे थे।
भारत में तथा भारत से बाहर जिस प्रकार की गतिविधियां इन वर्षों में चली हैं यह सब सूक्ष्मीकरण का ही परिणाम है। 15 करोड़ समर्पित सदस्यों का विशाल गायत्री परिवार
और विदेशों में भी शक्तिपीठों की स्थापना इस तथ्य की साक्षी हैं।
आज का लेख यहीं पर विराम करते हैं।
सुप्रभात और शुभदिन की कामना के साथ
पूज्यवर और वंदनीय माता जी के श्री चरणों में नमन