आज 10 नवम्बर ,2020 का ज्ञानप्रसाद पंडित लीलापत शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक ” प्रज्ञावतार हमारे गुरुदेव ” के चैपटर 2 पर आधारित है। जब गुरुदेव का अवतरण इस धरती पर हुआ तो उनकी माता जी को नौ महीनों तक अलग-अलग स्वप्न आते रहे। उन्हें कैसे दिव्यता का ,दिव्य वातावरण का आभास होता रहा उन्ही की एक संक्षिप्त झलक है आज का लेख।
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्रीचरणों में समर्पित।
सुप्रभात एवं शुभ दिन की कामना
तो चलें लेख की ओर :
देव पुरुष का अवतरण
ब्रजमण्डल अपने आप में भारतीय संस्कृति की सारी मधुरता संजोये है। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य, रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि संतों की साधना भूमि यही है। मीरा यहीं प्रेम विह्वल हुई थीं। भक्त रसखान तो हर जन्म में ब्रजभूमि में ही रहना चाहते थे। भले ही उन्हें पशु पक्षी, वृक्ष-वनस्पति यहाँ तक कि पाषाण होकर ही क्यों न रहना पड़े। ब्रज की धरती का यह सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक अनूठापन निश्चित ही विधाता को भी भा गया। तभी तो नियति ने अपनी अकाट्य लिपि लिखी। देव शक्तियों ने नवयुग की सांस्कृतिक चेतना के रूप में संस्कृति पुरुष परम पूज्य गुरुदेव के अवतरण का विधान बनाया।

दशरथ एवं कौशल्या, वसुदेव एवं देवकी की ही तरह पं. रूप किशोर शर्मा एवं देवी दानकुँवरि को ऋषियों एवं देवों ने मिलकर चुना। पं. रूपकिशोर शर्मा आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में रहने वाले जमींदार थे और देवी दानकुँवरि उनकी सहधर्मिणी। इन ब्राह्मण दम्पति में ब्राह्मणत्व सच्चे अर्थों में साकार हुआ था। पं० रूपकिशोर जहाँ एक ओर भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध निष्ठावान् थे, वहीं वह संस्कृति के ज्ञान विज्ञान के विविध पक्षों में निष्णात ( ज्ञानी ) भी थे। संस्कृत के असाधारण पाण्डित्य के साथ ज्योतिष विद्या एवं आयुर्वेद शास्त्र पर उनका परिपूर्ण अधिकार था। भागवत के कथावाचक के रूप में देश के अनेक राजा महाराजा उनका सम्मान करते थे। आस पास के सामान्य जनों में भी उनके प्रति एक आंतरिक श्रद्धा भाव था। देवी दानकुँवरि परम तपस्वी नारी थीं। पवित्रता उनमें लिपटी सिमटी थी।
गर्भधारण :
दाम्पत्य जीवन के अनेक सुखद वर्षों के बाद उन्हें एक दिन लगा कि जैसे कोई ज्योतिर्मय चेतना उनके गर्भ में प्रवेश कर गयी है। उस दिन से उन्हें अपूर्व उल्लास की अनुभूति होने लगी। उनके मुख-मण्डल पर अलौकिक आभा आ गयी। घर-परिवार एवं अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं को उनके शरीर से यदा कदा सुगन्ध का अहसास भी होता । इन महिलाओं में से प्रायः सभी को माँ बनने का अनुभव हो चुका था। वे गर्भ के लक्षणों से परिचित थीं, पर वे लक्षण तो कुछ और ही थे। इन महिलाओं में से एक आध तो उनको जब-तब टोक भी देतीं लगता है तुम्हारी कोख में कन्हैया स्वयं आये हैं, तभी तो तुम्हारी ओर आजकल नजर टिका कर देखना भी मुश्किल हो गया है । चेहरे पर नजर ही नहीं टिकती। देवी दानकुँवरि भी अपने में आये परिवर्तनों से चकित थीं। उनके मन में हर समय आध्यात्मिक पवित्रता की तंरगें उठती रहती थीं।
गर्भ काल के 9 मास में विचित्र स्वप्न , 9 मास में 9 अलग-अलग स्वप्न :
जबसे उनका गर्भकाल शुरू हुआ, उन्हें विचित्र सपने आने शुरू हो गये थे। ये सपने उनकी दृष्टि में विचित्र इसलिए थे कि वह इनका अर्थ नहीं खोज पाती थीं; हालाँकि इन स्वप्नों को देखने के बाद वह गहरी आध्यात्मिक तृप्ति एवं उल्लास से भर जाती थीं। वह अपने स्वप्नों में प्रायः हिमालय के हिम शिखरों को देखतीं। यदा-कदा उन्हें यह लगता कि हिमालय के आँगन में तेजस्वी महर्षि बैठे यज्ञ कर रहे हैं। यज्ञ मंत्रों की सस्वर गूंज से उनके मनप्राण गूंज उठते थे। कभी-कभी अर्द्ध निद्रा में उन्हें लगता कि सूर्य मण्डल से गायत्री महामंत्र की ध्वनि तंरगें निकलकर उनके रोम-रोम में समा रही हैं। गायत्री महामंत्र का इतना सस्वर एवं सम्मोहक पाठ उन्होंने कभी न सुना था। दोपहर को जब वह घर-गृहस्थी के कामों को निबटाकर थोड़ी देर के लिए विश्राम करतीं, तो उन्हें लगता कि अनेक देवी-देवता उनके आस-पास हाथ जोड़े खड़े हैं। जैसे वे सब उनकी स्तुति कर रहे हों। अपने इन स्वप्नों की चर्चा वह अपने पति से भी करतीं। उनके पति भी उनमें आये इस परिवर्तन को देखकर चकित थे। वह उनको समझाते हुए कहते :
” लगता है तुम किसी देव शिशु की जननी बनने जा रही हो। “
यह कहकर पं. रूपकिशोर किसी अनजानी गहनता में खो जाते। परन्तु ये तो जैसे सामान्य स्वप्न थे। जो रोज रोज दिखायी पड़ते थे। इनके अलावा उन्होंने गर्भकाल के नौ महीनों में नौ विशेष स्वप्न देखे।
1 -गर्भ के पहले महीने में उन्होंने देखा कि वह यमुना नदी पर गयीं, जहाँ उन्हें चाँद तैरता हुआ दिखा। उन्होंने अपनी हथेलियों में चाँद लेकर नदी का पानी पिया और फिर उन्हें लगा कि वही चाँद उनकी कोख में उतर गया है।
2- दूसरे महीने में उन्होंने देखा कि किसी ने उनकी कोख को एक विशेष स्थान बना लिया है और जब वह अन्तस् में देखतीं, तो हैरान रह जाती ‘क्या माँ को ईश्वर का दीदार कोख में से होता है।’
3- तीसरे महीने में उन्हें सपना आया कि वह दही बिलोने बैठी हैं, तो दही की मटकी से मक्खन की जगह सूरज का गोला निकल कर आ जाता है।
आज का लेख अपने में ही इतना complete है कि हम बिल्कुल निशब्द हैं इसलिए यहीं पर विराम लेते हैं
4-चौथे महीने में जो सपना आया उसमें उन्होंने देखा कि वह अपने घर के आँगन में बैठी गेहूँ फटक रही हैं, तो पूरा छाज सितारों से भर गया है।
5-गर्भकाल के पाँचवे महीने में उन्हें सपने में एक ध्वनि सुनायी दी, जो जल थल से उठ रही है। वह सपने में ही सोचने लगीं क्या यह ममता का गीत है या ईश्वर की काया का गीत है? और उन्हें हिरणी की तरह अपनी नाभि से कस्तूरी की सी सुगन्ध आती लगी। जब वह जगीं तब भी उन्हें अपनी देह से सुगन्ध आती महसूस हो रही थी।
6-छठवें महीने में उन्होंने सपने में हिमालय स्थित मान सरोवर देखा, जहाँ से एक हंस उड़ता हुआ आता है और जगने पर उन्हें लगा कि हंस का पंख उनकी कोख में हिल रहा है।
7-सातवें महीने में उन्होंने एक सपना देखा, जिसमें उनके आँचल में सूर्य मण्डल से एक नारियल आ गिरा और घर के दरवाजे पर लोग ही लोग दिखायी दे रहे हैं, जो नारियल की गिरी का प्रसाद लेने के लिए आये हैं।
8-आठवें महीने के स्वप्न में उन्हें जैसे एक अन्तर दृष्टि मिली। उन्होंने देखा कि वह बच्चे को पहनाने के लिए किरणों का कपड़ा बुन रही हैं। कपड़ा बुनते हुए उन्हें लगने लगा कि यह तो सच सी वस्तु है। चाँद सूरज की किरणें भी इसके लिए कोई कपड़ा नहीं बन सकती।
9-धीरे-धीरे गर्भकाल का नवाँ महीना भी लग गया। इस महीने भी उन्होंने एक सपना देखा। इस सपने में उन्हें लगा कि वह अपनी कोख के सामने माथा नवा रही हैं । देवी दानकुँवरि को इस स्वप्न में लगने लगा कि जो भी अपनी कोख में है, वह न अपना है, न पराया है, वह तो अचल का योगी है, सदाशिव है, संस्कृति पुरुष है, जो थोड़े समय के लिए मेरी कोख को धन्य करने आया है। स्वप्न में ही उन्हें लगा कि हवाओं में गीता के स्वर गूंज रहे हैं-
‘अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्।’ – जब जब अधर्म बढता है तब तब मैं आता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं,
यह गूंज उनकी आत्मा में समाती गयी। इसका सम्मोहन इतना प्रबल था कि वह प्रसव की पीड़ा भी भूल गयीं। जब तन्द्रा टूटी तब घर परिवार के सदस्य उन्हें पुत्र जन्म की बधाई दे रहे थे। पं० रूपकिशोर को जब पुत्र जन्म का समाचार मिला, तो उन्होंने उसका नाम ‘ श्रीराम’ रखा। उनकी ज्योतिष गणना के अनुसार बालक को भगवान् राम की तरह मर्यादाशील, महान् तपस्वी एवं देव संस्कृति का उद्धारक होना था। बालक श्रीराम की जन्मतिथि थी आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रम संवत् 1968 । आज के कैलेण्डर के अनुसार 20 सितम्बर 1911 । यह दिन नवयुग की सांस्कृतिक चेतना के अवतरण का दिन बन गया।अब संस्कृति पुरुष के जीवन में देव संस्कृति के विविध आयामों का विकास होना था।