पंडित जी द्वारा लिखित एक और पुस्तक में से आज का ज्ञानप्रसाद

7 नवम्बर, 2020 का ज्ञानप्रसाद

आज का लेख पंडित लीलापत शर्मा जी की लिखित पुस्तक ” प्रज्ञावतार हमारे गुरुदेव ” के चैपटर 2 पर आधारित है। हर लेख की तरह इस लेख को भी सरल बनाने की दृष्टि से कुछ editing की है लेकिन इस बात की पूर्ण ख्याल रखा है कि original कंटेंट पर कोई फेर बदल न हो। हम अपने पाठकों से निवेदन करेंगें कि अगर हिमालय की दिव्यता का अनुभव करना है तो इस लेख को उसी समय पढ़ें जब आप पूरी तरह से फ्री हों और आपके हृदय में कोई भी विचार न उठ रहे हों। यह निवेदन हम इस लिए कर रहे हैं कि हमने आपको नंदनवन क्षेत्र के पहाड़ों और शिखरों पर लेकर जाना है और आपने गुरुदेव के पीछे- पीछे चुपचाप चलते जाना है क्योंकि गुरुदेव के अभिभावक हिमालय और हमारे अभिभावक परमपूज्य गुरुदेव हैं। अभिभावक को इंग्लिश में guardian यां ट्रस्टी कहते हैं। ट्रस्टी वह जिस पर आप ट्रस्ट करते हैं ,विश्वास करते हैं।

तो इसी भूमिका से साथ आइए आज एक बार फिर ज्ञानगंगा के निर्मल ,दिव्य अमृत का ज्ञानपान करें।


देवात्मा हिमालय था उनका अभिभावक

देवात्मा हिमालय भारत और भारत की संस्कृति का उद्गम केन्द्र है। यहीं मानव जाति ने अपने प्रथम पग रखे। यहीं संस्कृति की पहली किरण ने अपनी उज्ज्वल आभा बिखेरी, जिसके सघन होते प्रकाश से भारतवर्ष का स्वरूप साकार हुआ। पुरातन ऋषि महर्षियों ने अनगिनत आध्यात्मिक प्रयोग यहीं किये। देवों और ऋषियों का मिलन यहीं हिमालय के आँगन में हुआ। इन देवों और ऋषियों की पुंजीभूत चेतना का स्वरूप ही तो हिमालय है, तभी तो इसे ” देवात्मा ” कहा जाता है। इसी देवात्मा हिमालय की प्रतिनिधि ऋषि सत्ता ( दादा गुरु ) ने संस्कृति पुरुष श्रीराम के जीवन में आध्यात्मिक प्रकाश उड़ेलकर उनका हिमालय से नाता जोड़ा।

यूँ हिमालय से उनका यह नाता जन्म- जन्मान्तर का था, युगयुगीन था, चिर पुरातन था, बस इसे नवीन करने की रीति निभायी गयी। उनके अंतर्हदय को तो देवात्मा हिमालय की अदृश्य तरंगें बाल्यावस्था से ही आकर्षित करती रहती थीं। तभी तो वह 8 वर्ष की आयु में ही एक बार स्वत: ही हिमालय की ओर चल पड़े थे। बाद में जब घर के लोगों को, पारिवारिक स्वजनों को पता चला, तब वे जिस किसी तरह से उनको समझा बुझाकर वापस लाए; पर
15 वर्ष की अवस्था में तो देवात्मा हिमालय ने स्वतः ही अपने प्रतिनिधि को उनके पास भेज दिया। मार्गदर्शक गुरुदेव का आगमन उनके लिए हिमालय का आमंत्रण ही था। इस प्रत्यक्ष आमंत्रण के बाद आवश्यक तैयारी के रूप में उनकी साधनात्मक गतिविधियाँ प्रारंभ हुईं। इस साधना क्रम के मध्य में ही एक दिन गुरुदेव की ही भाषा में

” हमारे हृदय का बेतार का तार बज उठा।”

इस एक वाक्य में इस बात का स्पष्ट संकेत है कि उनकी चेतना हिमालय के स्वरों को साफ तौर पर सुनने , समझने लगी थी। उनके मार्गदर्शक ने उन्हें बतलाया कि ऋषि सत्ताओं की निवास स्थली, हिमालय का यह दिव्य क्षेत्र सब तरह से गुह्य और अलौकिक है। गुह्य और अलौकिक का अर्थ है जो गुप्त और रहस्य्मयी हो।
सामान्य मानव तो क्या अतिश्रेष्ठ एवं समर्थ साधक भी यहाँ तक नहीं पहुँच सकते । यह दिव्य स्वरूप मात्र पर्वत शिखरों की सौन्दर्यगाथा तक सीमित नहीं है।

पर्वत शिखरों की ऊँचाइयों को तो हर साल सैकड़ों देशी विदेशी पर्यटक सैलानी छूते रहते हैं। समाचार पत्रों में विभिन्न पत्रिकाओं में उनकी कथा गाथा छपती रहती है; पर यह सब हिमालय का भौतिक सौन्दर्य है। इससे परे हिमालय का दिव्य क्षेत्र है, जिसे युगऋषि ,हमारे गुरुदेव ने ” चेतना का ध्रुव केन्द्र ” कहा है। यहीं से वह दिव्य आध्यात्मिक ऊर्जा ( divine spiritual energy ) निःसृत ( निकलती ) होती है, जो देव संस्कृति का सृजन करती है। सृजन का अर्थ जन्म लेना होता है। हम तो इसे अंग्रेजी के शब्द surgeon के साथ ही जोडेंगें। जैसे surgeon के हाथों से बच्चे का जन्म होता है सृजन से आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन होती है। इससे घनिष्ठ संबंध सूत्र जोड़कर ही हिमालय के देवात्मा स्वरूप से परिचित हुआ जा सकता है। इसी चेतना ने परम पूज्य गुरुदेव को संस्कृति पुरुष, युगपुरष बनाया ।

“स्थूल शरीर से की गयी तीन यात्राओं एवं सूक्ष्म शरीर से की गयी चौथी यात्रा में उन्होंने यहीं आकर हिमालय के दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार किया और उसे आत्मसात् किया। “

प्रथम बार हिमालय जाना तो प्रथम सत्संग था। उन दिनों ऋषिकेश से उत्तरकाशी तक भी सड़क और मोटर की व्यवस्था नहीं थी। पगडंडियाँ ही थीं। इसके बाद भी पूरा रास्ता पैदल घनघोर चढ़ाई वाला था; लेकिन हिमालय के आँगन में पाँव रखते ही जैसे पूरी थकान गायब हो गयी। उत्साह के अतिरेक में उन्हें यही नहीं पता चला कि कितने समय में वह यहाँ आ पहुँचे हैं। बस ध्यान की गहराइयों में देखी गयी दृश्यावली ( लाइव शो ) को अपने सामने जीवंत पाकर वह अभिभूत हो गये। नंदन वन की इस सुरम्यता में मार्गदर्शक गुरुदेव प्रकट हुए। इस बार वह स्थूल शरीर ( physical body ) में सम्मुख थे। अधिक वार्ता क्या होती? बस उन्होंने स्नेह भरी दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए कहा

” जो जन्म-जन्मान्तर से गुरु-शिष्य रहे हैं, उन्हें कुशल प्रश्न आदि औपचारिक बातों की आवश्यकता नहीं रहती।”
स्वागत और शिष्टाचार आदि की कोई आवश्यकता नहीं समझी गयी। No need to say Hello Hai etc

अपने गुरुदेव की इस सघन कृपा को स्वयं पर अनुभव कर उनके मुख मंडल पर विस्मय और संतुष्टि के भाव उभर आये। उनका कंठ गद्गद हो गया। आँखों में ख़ुशी के आंसूं आ गए। इस आनंद में उन्होंने आँखें मूंद ली।कपोलों पर आँसू झरने लगे ,अपनेआप ही माथा झुक गया। मार्गदर्शक ने दाहिना हाथ उनके माथे पर रखा और आशीर्वाद देकर धीमी गति से निकल गये।

इन अगली पंक्तियों को ज़रा और भी श्रद्धा और ध्यान से पढ़ने की आवश्यकता है क्योंकि सूर्य भगवान की इस तरह की व्याख्या केवल पंडित जी ही कर सकते हैं। पाठकों से निवेदन है कि इन पंक्तियों को अपने ह्रदय में उतारने का प्रयास करें और महसूस करें कि हिमालय की दिव्यता कैसे आपके अंतःकरण को छू जाएगी।

अनादि और अनंत काल की गरिमा को सँजोता दिन अपनी गति से बढ़ चला और भगवान् सूर्य अस्ताचल की ओर जा पहुँचे। उनके विराग की छाया संपूर्ण धरातल पर विस्तीर्ण हो गयी। संपूर्ण हिमाच्छादित गिरि शिखर गैरिकवर्ण वीतरागी संन्यासी के वेष में परिवर्तित हो गये। धीरे- धीरे यह विराग सात्त्विकता की चाँदनी में परिवर्तित होने लगा। पूर्णिमा थी। हिमपात भी अधिक नहीं हो सका था। चन्द्रमा की शीतल ज्योत्सना समूचे हिमालय पर फैल गयी। उस दिन ऐसा लगा कि हिमालय सोने का है। दूर- दूर तक बर्फ के टुकड़े तथा बिन्दु बरस रहे थे। वे ऐसा अनुभव कराते थे, मानो सोना बरस रहा है।

तभी मार्गदर्शक गुरुदेव आ पहुँचे। उन महान् ऋषि के आ जाने से गर्मी का एक घेरा संस्कृति पुरुष श्रीराम के चारों ओर बन गया। उन्होंने मौन रहकर ही गुरुदेव को एक संकेत किया और वह चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल पड़े।

आश्चर्य ! उन्हें सचमुच महान् आश्चर्य हुआ कि उनके पाँव जमीन से ऊपर उठते हुए चल रहे हैं। आकाशगमन अंतरिक्ष में चलने की यह सिद्धि उन्हें अनायास ही गुरु कृपा से प्राप्त हो गयी थी। उन्हें अनुभव हो रहा था कि उन बर्फीले ऊबड़ खाबड़ हिम खण्डों पर चलना इस आश्चर्यजनक क्षमता के बिना कठिन ही नहीं, शायद असंभव होता । जैसे- जैसे वह आगे कदम रखते थे, उनका शरीर तैरता हुआ आगे-आगे जाता था। अचानक उनका शरीर ऊपर की ओर जाने लगा और वह हिमाच्छादित पर्वतों के एक के बाद अनेक उत्तुंग ( गगनचुम्बी ) शिखरों को पार करते हुए एक ऐसे गुह्य ( जहाँ कोई नहीं पहुँच सकता ) क्षेत्र में पहुँच गये, जहाँ कुछ दिव्य गुफाएँ थीं। इन गुफाओं में संस्कृति निर्माता पुरातन ऋषि ध्यानस्थ बैठे थे।

” वह बड़ी ही पुण्य घड़ी थी। यह देव संस्कृति के वास्तविक उद्गम से साक्षात्कार था।”

मार्गदर्शक ने उन्हें उनमें से एक एक का नाम बताते हुए कहा :

” इस क्षेत्र की यही है विशिष्टता और विभूति संपदा और यही है हिमालय का दिव्य क्षेत्र । अपनी इसी दिव्यता एवं देवत्व के कारण हिमालय के साथ देवात्मा विशेषण जोड़ा जाता है। “

मार्गदर्शक के साथ उनके आगमन की बात उन सभी को पूर्व से ही विदित थी। सो वे दोनों जहाँ भी जिस समय पहुँचे, उनके नेत्र खुल गये, चेहरे पर हल्की मुस्कान झलकी । वार्तालाप भी हुआ पर स्थूल वाणी से नहीं। यहाँ तो परावाणी सक्रिय थी। इसके माध्यम से जो कुछ कहा गया उसके अनुसार संस्कृति के सृजेताओं ने गुरुदेव पर देव संस्कृति के नवजीवन की जिम्मेदारी सौंपी। हमारे सूझवान पाठक जानते होंगें कि परावाणी वाणी की चार दशाओं में से एक है। बाकी की तीन पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी हैं

हिमालय यात्राएँ इसके बाद भी हुईं। तीन स्थूल एवं चौथी सूक्ष्म यात्रा में संस्कृति एवं चेतना के नए आयाम उद्घाटित हो गये। हर बार हिमालय से संबंध और अधिक घनिष्ठ हो गया। इतना घनिष्ठ कि उन्हीं के शब्दों में

” अब हिमालय उनका सच्चा अभिभावक बन गया और उसने जो कहा उसका सार -अंश इतना ही था कि भारतीय संस्कृति यज्ञमय है। इस यज्ञमय जीवन शैली को अपनाएँ बगैर देव संस्कृति की विभूतियाँ प्रकट नहीं होंगी। “

आज के ज्ञानप्रसाद का यहीं पे विराम।

परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के चरणों में समर्पित

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