गुरुदेव के माता जी का निधन

ऑनलाइन ज्ञानरथ से अवतरित ज्ञानगंगा का ज्ञानप्रसाद

30 अक्टूबर 2020

आज का ज्ञानप्रसाद हमारे वरिष्ठ सहकर्मी आदरणीय वीरेश्वर उपाध्याय जी के शब्दों में वर्णित है। यह लेख गुरुदेव के माता जी के निधन पर आधारित है। गुरुदेव माता जी को ताई कहते थे। यह लेख हमने ” अद्भुत आश्चर्यजनक किन्तु सत्य” शीर्षक पुस्तक के पार्ट 1 में से लिया है। इस शीर्षक से पुस्तक के तीन पार्ट ऑनलाइन उपलब्ध हैं। इन पुस्तकों में अधिकतर टॉपिक परिजनों की अनुभूतिआँ हैं जो उनके ही अपने शब्दों में अंकित की गयी है। ताई जी के निधन का यह प्रसंग पंडित लीलापत जी की पुस्तक ” पूज्य गुरुदेव के मार्मिक संस्मरण ” नामक पुस्तक के पृष्ठ 130 पर भी वर्णित है। हमारे पाठक वहां पर भी इसको पढ़ सकते हैं।

तो आइये चलें ” ऐसे थे पूज्य गुरुदेव ” शीर्षक से आज के ज्ञानप्रसाद की ओर ।

गुरुवर जो कहते उसे पूर्णतया स्वयं के जीवन में करके दिखाते।

“ दूसरों के प्रति उदारता स्वयं के प्रति कठोरता ” उनके जीवन में सतत चरितार्थ तो थी ही, किन्तु उस समय वह चरम अवस्था में पहुँच गई, जब उनकी माता दानकुँवरि बाई का निधन हो गया।

मथुरा में जब वे अस्वस्थ थीं, उस समय भी आचार्य जी के कार्यक्रम सारे देश में अनवरत चल रहे थे। हर बार तपोभूमि के कार्यकर्ताओं (जिनमें मैं भी शामिल था) को देख- रेख करने की हिदायत देकर जाते थे; पर पता नहीं क्यों इस बार उन्होंने कहा कि

” यदि कुछ अनहोनी घट गई तो दोनों स्थान पर टेलीग्राम करना। जहाँ कार्यक्रम समाप्त हो व जहाँ प्रारंभ हो। साथ ही आवश्यक निर्देश देकर दौरे पर चले गए। “

द्रष्टा की आँखों से भला कोई बात छिपी कैसे रह सकती है? वही हुआ जिसे समझा गए थे। उस समय छत्तीसगढ़ के महासमुंद में एक हजार एक कुण्डीय यज्ञ चल रहा था। प्रवचन के बीच में उन्हें टेलीग्राम दिया गया। टेलीग्राम पर नजर पड़ते ही वे सब कुछ समझ गए। एक मिनट के लिए आँखें मूंदकर उन्होंने दिवंगत आत्मा को श्रद्धाञ्जलि दी। पुनः सहज भाव से यथावत् अपनी विवेचना करने लगे। उस समय लोगों को कुछ समझ में नहीं आया, पर बाद में जब सभी ने सुना तो आश्चर्यचकित रह गए। ऐसा समाचार पाकर तनिक भी विचलित न होना, स्थिर भाव से अपना कार्य करते रहना किसी ” स्थितप्रज्ञ योगी ” के लिए ही संभव है। स्थितप्रज्ञ को समझने के लिए हमने भगवत गीता के इस श्लोक का अध्यन किया जब

अर्जुन भगवान कृष्ण से पूछते हैं :

” स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् “

हे केशव ऐसे समाधि में स्थित हुए स्थितप्रज्ञ पुरुष की क्या भाषा होती है यानी वह अन्य पुरुषों द्वारा किस प्रकार किन लक्षणों से बतलाया जाता है तथा वह स्थितप्रज्ञ पुरुष स्वयं किस तरह बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है अर्थात् उसका बैठना, चलना किस तरह का होता है।

तो भगवान कृष्ण बताते हैं :

स्थितप्रज्ञ वह होता है जो पहले से ही कर्मों को त्यागकर ज्ञाननिष्ठा में स्थित है और जो कर्मयोग से ज्ञाननिष्ठा को प्राप्त हुआ है । स्थितप्रज्ञ प्रायः ऐसे कर्मयोगी के लिए प्रयोग किया जाता है जो कर्तव्य परायणता के शिखर पर है और जो अपने आप को कष्ट में डाल कर भी औरों के बारे में सोचता है। गुरुदेव के माता जी का देहांत हो गया था लेकिन उनके ह्रदय में वहां एकत्रित हुए परिजनों की स्थिति सर्वोपरि थी जिन्होंने कितनी श्रद्धा और परिश्रम से यज्ञों का आयोजन किया था। इस स्थिति को जानकार परिजन क्या सोच रहे थे।

सबके मन में एक ही आशंका थी कि गुरुदेव मथुरा चले जाएँगे तब यहाँ यज्ञ का क्या होगा? किन्तु उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को निश्चिंत करते हुए ” स्वयं के प्रति कठोर बनकर ” स्पष्ट कर दिया कि आगे के सभी कार्यक्रम यथावत् होते रहेंगे। हम कहीं नहीं जा रहे, आप सभी के बीच ही रहेंगे। सबने आश्चर्य किया कि “ऐसा कैसे हो सकता है ?” स्वयं की माताजी का श्राद्धकर्म चल रहा हो तो बेटा बाहर कैसे रह सकता है, पर महापुरुषों के सभी कार्य लौकिक नियमों के अनुसार सम्पन्न नहीं होते। उन्होंने तो अपनी ओर से श्राद्धकर्म उस एक मिनट में ही सम्पन्न कर लिया था।

कार्यक्रम आयोजक प्रसन्न थे, क्योंकि इस स्थिति में भी पूज्यवर सभी कार्यक्रमों में उपस्थित रहे। उनका कोई भी कार्यक्रम स्थगित नहीं हुआ। सभी कार्यक्रम यथावत् जारी रहे। अन्तिम संस्कार के सारे लौकिक कृत्य वंदनीया माता जी द्वारा सम्पन्न हुए। इस संबंध में उन्हें सूक्ष्म सम्पर्क से निर्देश मिल गए थे। उनके निर्देशानुसार स्वजनों, परिजनों, आगन्तुकों इष्ट मित्रों की उपस्थिति में अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न किया गया।

इसके बाद परम वंदनीया माताजी ने कम से कम एक दिन के लिए इस असह्य दुःख में पूज्यवर की उपस्थिति चाही। इसके लिए उन्हें मनाने हेतु मुझे जाने के लिए कहा गया। एक तरफ वन्दनीया माता जी का सजल आग्रह, दूसरी ओर गुरुकार्य के प्रति पूज्यवर की दृढ़निष्ठा- मैं हतप्रभ खड़ा सोच रहा था क्या करूँ? गुरुदेव को उनके निश्चय से डिगाना कठिन ही नहीं असंभव था। उनके सामने जाकर यह बात कहनी पड़ेगी, यह सोचकर ही पसीने छूटने लगे। बचने की कोशिश में मैंने कहा- बलराम जी को भेज दें! पर उन्होंने कहा- “उन्हें तो मना करेंगे। उनसे आग्रह करना, आने की आवश्यकता बताना उनके वश की बात नहीं, इसलिए तुम्हें ही जाना पड़ेगा।” मैं निरुत्तर हो गया।

महासमुन्द के बाद बालाघाट में कार्यक्रम था। वहाँ यज्ञस्थल में पहुँचा तो देखा पूर्णाहुति चल रही थी। इधर प्रणाम का क्रम भी शुरू हो चुका था। मुझे वहाँ देखकर पूज्यवर सब कुछ समझ गये। बोले- “रास्ते में बात करेंगे, अभी जाकर नहा- धो लो ” स्नान- ध्यान के बाद भोजन किया। मथुरा से बालाघाट पहुँचने में दो रात्रि का जागरण था, मगर विश्राम का अवसर नहीं था। क्योंकि अगला कार्यक्रम जबलपुर में था और हमें तत्काल जबलपुर के लिए प्रस्थान करना था। गाड़ी में बैठकर गुरुदेव ने विस्तार से सारी बातें सुनीं।

इसके बाद मैंने माता जी का आग्रह सुनाया और निवेदन किया कि केवल एक दिन के लिए चलें ताकि स्वजनों- परिजनों, इष्ट मित्रों का शिष्टाचार किया जा सके। गुरुदेव कुछ गम्भीर हुए। एक क्षण रुककर बोले- मैंने अपने बच्चों को समय दिया हुआ है। मैं अपने काम के लिए उनको निराश करूँ, यह सम्भव नहीं। रही बात शिष्टाचार की, तो अब ताई जी के बाद घर में सबसे बड़ा मैं ही हूँ। मुझे किसी से शिष्टाचार निभाने की आवश्यकता नहीं। मैं जो कहूँगा उसी को पालन करना सबका कर्तव्य होगा।

मैंने समझाने का प्रयास किया कि किसी कार्यक्रम को स्थगित करने की जरूरत नहीं होगी, जबलपुर के बाद बिलासपुर के निर्धारित कार्यक्रम के बीच एक दिन खाली है। इसलिए जबलपुर का कार्यक्रम सम्पन्न कर तुरन्त मथुरा की ओर प्रस्थान किया जाए तो वहाँ सभी से मिलकर निर्धारित समय पर बिलासपुर पहुँच जाएँगे या एक दिन विलम्ब हो तो भाई लोग मिलकर सँभाल लेंगे। दरअसल इस आशय की सूचना हमने बिलासपुर के कार्यक्रम आयोजक श्री उमाशंकर चतुर्वेदी जी को दे दी थी कि संभव है कि एक दिन विलंब हो जाय। ऐसी परिस्थिति में आप लोग मिलकर संभाल लें , लेकिन यह बात मैंने गुरुदेव को नहीं बताई। इधर बालाघाट से रवाना होते समय बिलासपुर से चतुर्वेदी जी भाई साहब के सुपुत्र नरेन्द्र जी आ पहुँचे। वे पूज्यवर को लेने आए थे।

उन्हें देखते ही गुरुदेव बोल उठे तू चल, मैं आ जाऊँगा।

मुझसे बोले- “कर दिया न तूने लड़के को परेशान” आखिर निराश होकर मुझे अकेले ही लौटना पड़ा।

प्रस्तुति :: वीरेश्वर उपाध्याय शांतिकुंज

आज का लेख सुप्रभात और शुभ दिन के साथ
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के चरणों में समर्पित

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