28 अक्टूबर 2020 के ज्ञानरथ से अवतरित ज्ञानगंगा का ज्ञानप्रसाद
गुरुदेव का छांटने का कार्यक्रम और उसका प्रयोजन

अखंड ज्योति पत्रिका के अगस्त 1966 वाले अंक के पृष्ठ 16 पर गुरुदेव ने अपनी भावनाओं को निम्न लिखित पंक्तियों में अंकित किया हुआ था।
भारत का महान गौरव एवं वर्चस्व को पुनः अपने स्थान पर प्रतिष्ठापित करने के लिए अगले दिनों विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली आत्माएं आवश्यक संख्या में इस देश में अवतरित होंगी। व्यास, वशिष्ठ, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, कपिल, कणाद, विश्वामित्र, दधीच जैसे ऋषि ; भीम, अर्जुन, हनुमान, अंगद, जैसे योद्धा ; नागार्जुन, रावण, जैसे वैज्ञानिक ; गाँधी, तिलक, मालवीय, लाजपतराय जैसे नेता ; शिवाजी, प्रताप, गोविन्दसिंह, जैसे देशभक्त ; अरविन्द, विवेकानन्द, रामतीर्थ जैसे ज्ञानी ; चरक, सुश्रुत, वागभट्ट जैसे चिकित्सक ; सीता, सावित्री, अरुन्धती, अनुसूया, गाँधारी, द्रौपदी, लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई जैसी नारियाँ अगले दिनों अवतरित होंगी। जब कभी भी युग-परिवर्तन के समय आये हैं तब इस महान प्रयोजन को पूरा कर सकने में समर्थ आत्माओं का भी अवतरण हुआ है। अब भी वही होने जा रहा है।
मित्रो, यह लेख बहुतों ने पढ़ा होगा और उनके ह्रदय में कई तरह के प्रश्न और प्रतिक्रियायें हुई होंगी। तो आइये आज एक बार फिर पढें कि गुरुदेव ने कैसे परिजनों की सिलेक्शन की होगी। ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मी अक्सर हमें अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि हम भी इस ज्ञानरथ में अपनी भागीदारी नोट कराने चाहते हैं। तो उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर इस लेख के अंत तक तो मिल ही जायेगा लेकिन हम उनको यह अवश्य कहना चाहेंगें कि यह ज्ञानरथ आप सबके सहयोग से ही चल रहा है। आप सब अपनी -अपनी समर्था के अनुसार इसमें अपनी भागीदारी रजिस्टर करवा रहे हैं ,इसके लिए हम हमेशा ही आभार व्यक्त करते हैं। ज्ञानरथ की महत्ता पर योगेश जी ने कुछ फोटो भेजी थीं वोह सारी तो शेयर नहीं कर सकते लेकिन धर्मगुरु विवेकानंद जी के विचार शेयर कर रहे हैं। वह खुद ज्ञानरथ चलाते थे। उनके द्वारा भेजी ऑडियो फाइल ( जिसमें ज्ञानरथ की महत्ता अंकित की गयी थी ) आपने कुछ दिन पहले ही सुनी है। जसोदा जी ने योगेश जी की सराहना करते हुए ज्ञानरथ को एक महत्व पूर्ण पुरषार्थ कहा है।
तो इन्ही ओपनिंग पंक्तियों के साथ आज का लेख आरम्भ करते हैं।
गुरुदेव कहते हैं :
आज तो भावनात्मक दृष्टि से खोटे और ओछे व्यक्ति भी अपने निजी लाभ की दृष्टि से हमें घेरे रहते हैं। अधिक भीड़ ऐसे लोगों की ही रहती है। यह भीड़ छट जाने से जो शक्ति बचेगी उसे सीमित क्षेत्र में अधिक सावधानी से लगाया जा सकेगा और उसका लाभ भी अधिक होगा।
” इस छटनी के पीछे एक रहस्यपूर्ण प्रयोजन है। इसकी चर्चा हमने अज्ञातवास से लौटते ही कर दी थी।”
युग निर्माण का प्रयोजन साधारण मनोभूमि के घटिया, स्वार्थी, ओछे, कायर और कमजोर प्रकृति के लोग न कर सकेंगे। इसके लिए समर्थ, तेजस्वी आत्मायें अवतरित होंगी और वे ही इस कार्य को पूरा करेंगी। छत पाटने के लिए सीमेंट, लोहे का लेन्टर डाला जाता है । लेन्टर का वजन उठाने के लिए बाँस-बल्ली का ढाँचा खड़ा किया जाता है। छत डालते समय वजन वही उठाता है। कुछ दिन उपरांत जब छत पक्की हो जाती है तब उस ढाँचे को निकाल कर अलग किया जाता है । युग परिवर्तन का महान कार्य तेजस्वी, मनस्वी एवं तपस्वी आत्माओं द्वारा ही सम्भव होगा। जो लोग तनिक-सा त्याग, बलिदान करते ही बगलें झाँकने लग जाते हैं, उतने बड़े कार्य को कर सकने के योग्य नहीं होते । ऐसे लोग रेतीली और कमजोर मिटटी से बने होते हैं वोह टिकाऊ कैसे हो सकते हैं । जो केवल एक-दो माला का जाप करने मात्र से ही तीनों लोक की ऋद्धि-सिद्धियाँ लूटने की आशा लगाये बैठे रहते हैं और जीवन-शोधन तथा परमार्थ की बात सुनते ही काठ हो जाते हैं ऐसे ओछे आदमी अध्यात्म का क, ख, ग, घ, भी नहीं जानते। आत्मबल तो उनके पास होगा ही कहाँ से। जिनके पास आत्मबल नहीं वह युग-परिवर्तन की भूमिका में कोई कहने लायक योगदान कहाँ से दे सकेगा ?
गुरुदेव कहते हैं :
इस तथ्य से हम भली प्रकार अवगत हैं। अपनों की नसनब्ज हमें भली प्रकार मालूम है। इसलिए उनसे हम केवल इतनी ही आशा करते हैं कि छत का लेन्टर बनाने से बाँस-बल्ली की तरह थोड़ी देर अपना उपयोग कर लेने दें। बाँस बहुत हैं लेकिन छत तो सीमेंट, कंक्रीट, लोहे की छड़ आदि के योग से ही बनेगी और उसे कुशल कारीगर ही बना सकेंगें । बाँस-बल्ली का ढाँचा तो मामूली मजदूर भी बाँध देता है पर लेन्टर को बढ़िया कारीगर इंजीनियर ही ठीक तरह से डाल सकते हैं।
हम सब युग-निर्माण योजना के विशाल भवन का ढाँचा खड़ा करने वाले मामूली से मजदूर मात्र हैं। परिजन जिस मिट्टी से बने हैं उसे देखते हुए उन्हें भी हम बाँस-बल्ली मात्र ही मानते हैं। थोड़ा-सा वजन पड़ने पर जो लचक जाय, जरा सी परख का अवसर आये तो दाँत निकाल दें, ऐसे लुँजपुँज व्यक्ति युग-परिवर्तन जैसी कठोर प्रक्रिया को कैसे पूरा करेंगे?
” जिसमें निज की कड़क नहीं वह वजन कैसे उठावेगा ?”
ऐसी आत्माएं जब अवतरित होती हैं तब अपने लिए योग्य वातावरण ढूँढ़ती हैं। मधुमखियाँ और भौंरे पुष्पों के आधार पर ही जीवित रहते हैं,मछली को जलाशय चाहिए। यदि यह परिस्थितियाँ न मिलें तो मधुमखियाँ ,भौंरे और मछलियां जीवित न रहेंगे। महान आत्माएं केवल अच्छे पारिवारिक वातावरण में ही जन्मती हैं। यदि प्रारब्धवश किसी अनुपयुक्त परिवार में जन्म लेती हैं तो अल्पायु में ही चली जाती हैं। दशरथ और कौशल्या ने भगवान राम को अपनी गोद में खिलाने के लिये तीन जन्मों तक लगातार तप किया था, तब जाकर उन दोनों का गुण-कर्म स्वभाव ऐसा बना था कि उनके परिवार में उच्च आत्माओं का अवतरण सम्भव हो सका। धन ऐश्वर्य भले ही न हो, गरीबी कितनी ही क्यों न हो,पर भावनात्मक दृष्टि से जहाँ का वातावरण उपयुक्त हैं,वहीं दिव्य आत्माओं का जन्म ले सकना सम्भव होगा।
गिद्ध और सियार मृत लाश की गंध पाकर दूर-दूर से इकट्ठे हो जाते हैं। इसी प्रकार परिष्कृत पारिवारिक वातावरण की तलाश में दिव्य आत्माएं घूमती रहती हैं और जब उपयुक्त स्थान मिल जाता है तो वे प्रसन्नतापूर्वक वहाँ जन्मती हैं। जिन घरों में ऐसी उच्च आत्माएं जन्म लेती हैं उस परिवार के यश, गौरव, महत्व एवं आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहता।
अगले दिनों जो दिव्य आत्माएं युगनिर्माण का महान-प्रयोजन पूरा करने लिए अवतरित होने वाली हैं उन्हें अपने उपयुक्त परिस्थितियों की आवश्यकता पड़ेगी। इस आवश्यकता की पूर्ति हमें करनी चाहिए जिसमें कोई ऊँची जीवात्मा आवे तो वह घुटन अनुभव न करे और उसे अपने अनुकूल भावात्मक वातावरण मिल सके। जहाँ पर भी ऐसा वातावरण बन जायगा, वहीँ पर इस बात की व्यवस्था हो सकती है कि वहाँ कोई महान् विभूति जन्म लेने को आतुर हो।
आज का लेख यहीं पर समाप्त करते हुए हम सम्पर्क की शक्ति पर कुछ कहना चाहेगें। परमपूज्य गुरुदेव ने , पंडित लीलापत जी ने गांव -गांव जाकर , घर -घर जाकर परिजनों की परिस्थितियों को जाना ,उनके दुःख सुख में भागीदारी की। इसी पुरषार्थ से उन्होंने इतना विशाल गायत्री परिवार खड़ा किया। हम भी सम्पर्क को अत्यंत महत्व देते हैं और आपसे कमैंट्स की आशा रहती है। अधिकतर सहकर्मी कमेंट कर रहे हैं और ज्ञानरथ को गति दे रहे हैं। धन्यवाद्, धन्यवाद् ,धन्यवाद्।
इन्ही शब्दों के साथ परमपूज्य ,गुरुदेव के चरणों में समर्पित है आज का लेख।
सभी समर्पित सहकर्मियों को सुप्रभात एवं शुभ दिन।