
14 अक्टूबर 2020 का ज्ञानप्रसाद
मित्रो आज का लेख बहुत ही ह्रदय विदारक है। हमने यह लेख अखंड ज्योति अगस्त 1990 के स्पेशल अंक पर आधारित किया है। 2 जून 1990 को गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद ब्रह्मवर्चस के कार्यकर्ताओं द्वारा सम्पादित 200 पृष्ठों वाला यह स्पेशल अंक अपने में एक अविस्मरणीय अंक है। हमने कुछ एक पन्नों को ही उल्ट -पुलट कर देखा तो रहा नहीं गया। ह्रदय में एक दम जिज्ञासा हुई कि जिस भावना में हम गुज़र रहे हैं अपने सहकर्मियों को ,ऑनलाइन ज्ञानरथ के निष्ठावान परिजनों को भी साथ लिया जाये और उस वेदना को ,उस टीस को ,उस स्नेह को साथ -साथ हृदयंगम किया जाये।
तो आओ चलें शांतिकुंज गुरुदेव के कक्ष में :
1 – सुव्यवस्था
शाम का समय था गुरुदेव शान्ति कुँज में अपने कमरे में बैठे व्यवस्था आदि कार्यों के संदर्भ में गोष्ठी कर रहे थे। इसी बीच बरसात के कारण बिजली बंद हो गई। शाम अधिक हो जाने के कारण और कुछ घने बादलों के कारण कमरे में घना अँधेरा सा हो गया। बैठे हुए लोगों में से कुछ प्रकाश के लिए लैम्प आदि की व्यवस्था के लिए उठने ही वाले थे कि तनिक तीखी आवाज में गुरुदेव स्वयं उठते हुए बोले,
” तनिक बैठे रहो , उठना नहीं। तुम्हें क्या पता कौन सी चीज कहाँ रखी है। मैं अपनी हर चीज यथा स्थान रखता हूँ।”
ऐसा कहते हुए उन्होंने लैम्प जलाया और एक मन्द प्रकाश में वार्तालाप पुनः शुरू हो गया। सभी लोग गुरुदेव की
ओर देखने लगे कि कहाँ चेतना की उच्चतम भूमि पर निवास और कहाँ इन छोटी-छोटी चीजों की ऐसी सुव्यवस्था? इन दोनों बातों का एकीकरण विरले ही ऐसे ही महापुरषों के जीवन में मिल सकता है।
ऐसे हैं हमारे गुरुदेव
2 – एक ही दिन में स्वाहिली भाषा सीखी :
1972 में परमपूज्य गुरुदेव ईस्ट अफ्रीका जाने के लिए समुंद्री जहाज़ से यात्रा कर रहे थे। उद्देश्य एक ही था – सभ्यता के अहम में ग्रस्त लोगों द्वारा तिरस्कृत अपमानित समुदाय को गले लगाना। वहाँ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के बीज छिड़कना। समुद्री यात्रा अनभ्यासी के लिए कम कष्टकर नहीं होती। पर उनका लेखन, चिन्तन तथा अन्य दैनिक कार्य यथावत चलते थे। इसी बीच पता चला कि उनके गन्तव्य स्थान के कुछ व्यक्ति उसी जहाज़ में यात्रा कर रहे है। बस सीखने की वृत्ति ने गुरुदेव को प्रोत्साहित किया कि क्यों न पहुंचने से पहले वहाँ की भाषा सीख ली जाय। उमंग उत्साह में बदली और गुरुदेव ने सीखना शुरू कर दिया । ठीक 1 दिन में उन्होंने स्वाहिली नाम से जानी जाने वाली भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया। सिखाने वाले स्वयं दंग थे। यों तो प्रसिद्ध भाषाविद सर विलियम जोन्स ने भी कलकत्ता के पण्डितों से वेदों का अध्यन किया और संस्कृत सीखी थी पर जिस तीव्र गति से गुरुदेव ने विदेशी भाषा सीखी वह अद्भुत थी। सीखने की वृत्ति के इसी वरदान के बल पर उन्होंने वहाँ पहुँच कर सारे वार्तालाप उन्हीं की भाषा में करके सभी को चकित कर दिया।
ईस्ट अफ्रीका यात्रा पर कुछ समय पहले हमने कई लेख लिखे थे। उन लेखों में से एक का लिंक हम यहाँ दे रहे हैं
https://life2health.org/2020/06/20/2145/
इन लेखों को लिखने की प्रेरणा हमें आदरणीय विद्या परिहार जी से मिली थी। यह वही विद्या परिहार हैं जिनके घर गुरुदेव नैरोबी केन्या में रहे थे। पाठकों के लिए हमने इसी सन्दर्भ में एक वीडियो भी अपलोड की है जिसमें विद्या जी गुरुदेव की इस यात्रा के बारे में बता रहे हैं। आप इस वीडियो को हमारे चैनल पर देख सकते हैं और गुरुदेव के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर अपना जीवन सफल बना सकते हैं।
3 – तपोभूमि मथुरा से प्रस्थान एवं महाप्रयाण
एक ओर तो इतना स्नेह, इतना प्यार, अन्तःकरण मक्खन के समान नजर आता है कि अभी पिघल जायेगा और दूसरी ओर इतनी निर्मोहिता कि स्वयं का दिल कड़ा करके गुरुदेव ने अपनी क्रियास्थली, कर्मभूमि ( मथुरा ) से मोह की डोरी एक झटके से तोड़ डाली थी। इसका उदाहरण भगवान कृष्ण द्वारा बृज की गोपियों का बुलावा भेजने पर इंकार करना और न आना ही हो सकता है।
क्या यह साधारण मानव के बस की बात है ? संभवतः नहीं।
जून 1971 में जब गुरुदेव ने मथुरा से विदाई ली तब जो अभिव्यक्ति उनकी रही, वह बार -बार स्मरण किये जाने योग्य है। गुरुदेव आत्मीय जनों को, हमको, आप सबको अपने अंग-अवयव ( body parts ) कहते थे, कदापि अपनी पार्थिव काया ( physical body ) के चले जाने पर शोक न कर के, मोहमाया के बंधन से परे , श्रद्धा भाव से कर्त्तव्य में जुटा रहने को कह गये हैं। पहले तो शरीर मथुरा से हरिद्वार होता हुआ हिमालय गया था और संभावना पूरी थी कि पुनः दर्शन होंगे। लेकिन अपने ह्रदय को इतना पक्का करके गुरुदेव ने मथुरा की भूमि छोड़ी थी कि फिर कभी उसकी ओर मुड़कर न देखा। शक्तिपीठों कि देख रेख के लिए गुरुदेव चार बार आगरा आए लेकिन परिजनों के कहने के बावजूद मथुरा नहीं गए। उन्हें पूरी तरह विश्वास था कि पंडित लीलापत जी के संरक्षण में गायत्री तपोभूमि पूरी तरह सुरक्षित है। इससे भी ऊपर दादा गुरु के निर्देश को उन्होंने सदैव शिरोधार्य ही माना। गुरुदेव कई बार लिख चुके हैं कि हमारे गुरु जैसे -जैसे, जो -जो कुछ हमसे करवाते गए हम बिना किसी प्रश्न के, बिना किसी प्रतिक्रिया के और बगैर किसी आनाकानी के करते रहे।
परन्तु महाप्रयाण से केवल एक मास पहले ही बोले गए शब्द स्मरण करके ऑंखें भर जाती हैं। इन शब्दों में भी अपनत्व और स्नेह की भावना छुपी हुई है। जो लोग शांतिकुंज जा चुके हैं उन्होंने यज्ञशाला के बाहर परमपूज्य गुरुदेव और वंदनीय माता जी के अंतिम सन्देशों वाले बोर्ड अवश्य ही देखे होंगें। कुछ इस तरह का सन्देश देते हैं यह दोनों बोर्ड।
“पार्थिव काया से मोह न करना। हमें तो गायत्री जयन्ती को जाना ही है। तुम सबको हमारा काम आगे बढ़ाना है।”
हम सब अपने मन को लाख समझा लें कि गुरुदेव एवं माता जी सूक्ष्म रूप से हमारे मध्य विद्यमान है, पर मन का मोह तो मोह ही है। अगर वे कठोर-हृदय रहे होते व परिजनों से इतनी आत्मीयता न जोड़ी होती तो संभवतः मन को कठोर किया भी जा सकता था। किंतु जिसने इतनी स्नेहवर्षा की हो कि सामने वाले को अपने स्पर्श मात्र से, वाणी के वचनों मात्र से अंदर से हिला कर रख दिया हो उसकी पार्थिव देह के महाप्रयाण पर क्या यह हृदय इतना कठोर हो जाय कि उनकी उन मधुर स्मृतियों को ही भुला बैठे। संभवतः हमारे स्थान पर पूज्य गुरुदेव भी रहें होते तो उनका अन्तःकरण में भी ऐसा ही आभास होता जैसा हम पर हो रहा है।
पर किया क्या जाय?
हमें तो वोह पंक्तियाँ भी याद आती हैं जो उन्होंने अप्रैल 1971 की अखंड ज्योति पत्रिका में लिखी थीं। 1971 में तपोभूमि मथुरा से विदाई और 1990 में महाप्रयाण से एक माह पूर्व की पंक्तियों में लगभग एक ही तरह की अभिव्यक्ति थी।
गुरुदेव लिखते हैं :
” हम अपनी कमजोरी को छिपाते नहीं। हमारा अन्तःकरण अति भावुक ओर मोह ममता से भरा पड़ा है। जहाँ तनिक सा स्नेह मिलता है, मिठास को तलाश करने वाली चींटी की तरह रेंगकर वहीं जा पहुँचता है। स्नेह की , सद्भाव की, प्रेम और ममता की मधुरिमा हमें ठीक उसी प्रकार भाती है जैसे शहद में लिपटी मक्खी। शहद में सने हुए परों के कारण मक्खी की उस स्थिति को छोड़ने की रत्ती भर भी इच्छा नहीं होती। लाखों परिजनों का जिनका स्नेह, सद्भाव हमें मिला है हम उनके लिए हज़ार शरीर धारण कर,हज़ार कल्प तक कार्य करते रहेंगें।
प्रेमी के लिए मिलन का आनन्द बड़ा सुखद होता है पर बिछुड़ने का दर्द उसे मर्माहत (fast heartbeat) करके ही रख देता है। वही जान सकता है कि प्रियजनों के बिछुड़ने की घड़ी कितनी मर्मान्तक और हतप्रभ कर देने वाली होती है। लगता है कोई उसका कलेजा ही चीर कर निकाल लिये जाता है। भगवान ने न जाने हमें क्यों स्नेहसिक्त अन्तःकरण देकर भेजा जिसके कारण हमें जहाँ प्रिय पात्रों के मिलन की थोड़ी सी हर्षोल्लास भरी घड़ियाँ उपलब्ध होती हैं वहीँ उससे अधिक वियोग- बिछुड़न के बारम्बार निकलने वाले आँसू बहाने पड़ते हैं। इन दिनों हमारी मनोभूमि इसी दयनीय स्थिति में पहुँच गयी है। मिशन के भविष्य की बात एक ओर उठाकर रख भी दें तो भी प्रियजनों से बिछोह सदा के लिए हमें कष्टकर बन कर शूल (sharp pain ) रूप में चुभ रहा है।”
परिजन इन पंक्तियों पर ध्यान दें। कितना निश्छल स्नेहसिक्त अन्तःकरण था उस सत्ता का कि उन्होंने जिन से नाता जोड़ा, उन्हें वह अंत तक याद करते रहे । जिन्होंने 60 वर्ष का जन संपर्क व लोकमंगल के लिए शरीर-यज्ञ किया कितनी वेदना के साथ उन्होंने जाने की बात कही होगी। 1990 में महाप्रयाण के समय उनके भीतर कितनी पीड़ा रही होगी, कितनी मर्मान्तक वेदना उन्हें टीस दे रही होगी। हम तो इसकी केवल कल्पना ही कर सकते हैं । किंतु महापुरुषों की लीला अपरम्पार है । पूज्यवर श्रीकृष्ण की तरह ही नीति परुष थे। यदि वे लोकमंगल के लिए तिल-तिल कर अपनी आहुति देकर जाते समय तक परिजनों को याद भी करते हैं तो उनके उज्वल भविष्य के निर्माण की बात करते हैं। अपनी मुक्ति की बात को एक तरफ रख एक सौ दस वर्ष और सूक्ष्म एवं कारण शरीर रूप में हमारे बीच विद्यमान रहने की बात कह गये हैं। उन पर विश्वास कर हमें भी अपनेआप को उसी स्तर की दृढ़ता से विकसित करना होगा। वह शक्ति जो हमारे अंतःकरण में गुरुदेव की उपस्थिति का संकेत सतत दे रही है हमें निर्देश दे रही है कि :
हमें गुरुदेव का स्वप्न साकार करना है। मोह से परे उठ कर हमें लोकमंगल का, विद्या विस्तार का लक्ष्य पूरित करना है। नए युग का निर्माण करना है। 21वीं सदी उज्वल भविष्य गुरुदेव का सपना साकार करके दिखाना है।
अगर यह याद रहा तो आंसू रुकेंगें ही ,अवश्य रुकेंगे
जय गुरुदेव