
16 नवम्बर 1961 और 19 जुलाई 1962 के परमपूज्य गुरुदेव द्वारा पंडित लीलापत जी को लिखे हुए दो पत्र आपके समक्ष प्रस्तुत हैं। वैसे तो यह दोनों पत्र पंडित जी द्वारा लिखित पुस्तक ” पत्र पाथेय ” में से लिए गए हैं लेकिन उन दोनों को editable फॉर्म में प्रस्तुत करने का हमारा प्रयास है। अक्सर हम जब ऑनलाइन किसी पुस्तक को पढ़ते हैं तो उसका कोई भी पेज सेव करते हैं तो उसका स्क्रीनशॉट सेव होता है ,जिसका अर्थ फोटो होता है। इसमें लिखी किसी भी लाइन को यां अक्षर को हम एडिट नहीं कर सकते। हमारा यह प्रयास पत्रों को एडिट करने के लिए न होकर YouTube पर पोस्ट करने के उदेश्य से है। अगर हम फोटो अपलोड करते हैं तो देखने में ,पढ़ने में कई तरह की असुविधाएं आती हैं। अगर हमारे पाठकों को ऑनलाइन ज्ञानरथ के किसी कंटेंट में किसी भी प्रकार की असुविधा आती है तो वह हमारी आत्मा को को एकदम विचलित करती है ,उसका निवारण करना हमारा कर्तव्य है।
पंडित जी, जिनके लिए कई प्रकार के विशेषण उपयोग किये गए हैं एक महान आत्मा हैं। ” उन्होंने पत्र पाथेय ” शीर्षक से पुस्तक लिख कर हम सब को बहुत ही कृतार्थ किया है। सात वर्ष के समय में परमपूज्य गुरुदेव और पंडित जी के बीच पत्र व्यव्हार का यह संग्रह अपने आप में न केवल अद्भुत है बल्कि अति प्रेरणादायक भी है। इस पुस्तक के preface पर आधारित हम ऑनलाइन ज्ञानरथ के अंतर्गत दो लेख लिख चुके हैं। आज के लेख में पत्रों को शामिल करने का उदेश्य समझने के लिए पाठकों को इन दोनों लेखों को पढ़ लेना चाहिए।
पत्र तो पत्र ही हैं ,इनमें ऐसे कौन से रत्न छिपे हुए हैं ? उससे भी बढ़कर यह किसी के व्यक्तिगत पत्र ( personal letters ) हैं। इसके भी उत्तर उन दोनों लेखों में मिल जायेंगें। हमारे समर्पित और संकल्पित सहकर्मी बार -बार इन पत्रों पर लेख लिखने के लिए मैसेज कर चुके हैं। कुल 89 पत्रों का यह संग्रह बिल्कुल भगवत गीता जैसा ज्ञान प्रदान करता है। भगवत गीता भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद है और यह हमारे गुरुदेव और पंडित जी के बीच के संवाद हैं
इन पत्रों को प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता तो हो ही रही है पाठकों से आशा है कि इन पत्रों के भावों को अपनी अंतरात्मा में अवतरित करने का प्रयास करें। अगर हम इस प्रयास में सफल होते हैं तो आप सब उस गुरु के उत्तीर्ण शिष्य बन कर अगली कक्षा में प्रमोट होने के हक़दार हैं। अगली कक्षा का सिलेबस ज्ञान को घर- घर में ,जन-जन में फैलाना है।
पत्र के आरम्भ में सम्बोधन से ही आत्मीयता दर्शाई गयी है। आत्म स्वरुप सम्बोधित करके गुरुदेव पंडित जी को अपनी ही आत्मा का ही स्वरुप मान रहे हैं। ऐसे ही तो नहीं उन्हें श्रीराम ( गुरुदेव ) का हनुमान कहा गया है। हनुमान जी ने अपना ह्रदय चीर कर भगवान का वास् दर्शा दिया था। पहले पत्र में गुरुदेव ने कितनी बड़ी बात कही है
” उन कार्यों से हमें उतनी प्रसन्नता नहीं जितनी इन कार्यों के पीछे जो आपकी आत्मिक प्रगति झाँकती दीखती है “
इसी भावना और संकल्प ने आज विश्व भर में गायत्री परिवारजनों को 15 करोड़ की संख्या का श्रेय दिया है। हमारा सबका ऑनलाइन ज्ञानरथ भी इस संकल्प में तुच्छ सा प्रयास है। अगर कोई अवतारी सत्ता ( हमारे गुरुदेव )आपके लक्ष्य की पूर्ति की कामना करती है तो पंडित जी जैसे महामानव का जन्म होता है।
दूसरे पत्र में हम देख सकते हैं क़ि युग निर्माण योजना का संकल्प कैसे गुरुदेव की आकांशा थी और कैसे पंडित जी उनकी तड़पती आत्मा में सहायक बने। ब्राह्मण का अर्थ यहाँ पर जाति न समझ कर विद्वान समझा जाना चाहिए। कितना विश्वास था गुरुदेव को अपने शिष्य पर और शिष्य भी गुरु के साथ कैसे कंधे से कन्धा मिला कर आगे ही आगे जा रहा था।
और सबसे बड़ी बात जो इन पत्रों में झलक रही है वह है -आत्मीयता। चाहे गुरुदेव बड़े ही सख्त गुरु ( टीचर ) थे लेकिन परिवार का ,बच्चों का ख्याल उसी प्रकार रखते थे जैसे एक पिताजी रखते हैं।
प्रत्येक पत्र का अंत ” माता जी स्नेह लिखाती हैं ” से होता था। इस तथ्य का आँखों देखा हाल ( लाइव शो ) देखने के लिए आपको हमारी वह वाली वीडियो देखनी चाहिए जिसमें गुरुदेव 1971 में मथुरा छोड़ कर शांतिकुंज आ रहे थे। हमने एक सीन include था जिसमें गुरुदेव चारपाई पर बैठे हैं ,परिजनों के पत्रों को खोल -खोल कर पढ़ रहे हैं। माता जी धरती पर बैठे हैं और गुरुदेव से पत्र ले रहे हैं। जो ऑफिस के पत्र हैं उन्हें ऑफिस में दे देते है और जिनका उत्तर जिस हिसाब से देना होता है दे देते हैं। इस तरह की सादगी की आशा केवल एक संत से ही की जा सकती है।
तो मित्रो , आज का लेख समाप्त करने से पहले आपको बताना कहते हैं कि हमने इन दोनों पत्रों को editable तो किया है लेकिन एक भी अक्षर चेंज नहीं किया है। आपकी फीडबैक और कमैंट्स से ही हम आगे की दिशा निर्धारित करेंगें। अगर इसी तरह पत्रों पर ही चर्चा जारी रखनी है तो हमें बता दें। आपको सुझावों का हमेशा ही सम्मान है।
जय गुरुदेव
दिनांक-१६-११-६१
हमारे आत्म स्वरूप,
पत्र मिला । आपके द्वारा जो कार्य हो रहा है उसे पढ़कर बड़ी प्रसन्नता होती है । मन में सभी लगन हो तो उसकी आभा बाहर भी फूटती ही है । आपकी आत्मा परमार्थ की कक्षा में तीव्र गति से बढ़ती जा रही है । उसी हिसाब से आपके सेवा कार्य भी तीव्र होते जा रहे हैं । उन कार्यों से हमें उतनी प्रसन्नता नहीं जितनी इन कार्यों के पीछे जो आपकी आत्मिक प्रगति झाँकती दीखती है । उससे संतोष है। आपकी लक्ष्य यात्रा पूर्ण हो यही एक मात्र कामना हमारी रहती है।
अपनी धर्म पत्नी को किसी अच्छे चिकित्सक को दिखाने और उसका ठीक प्रकार इलाज कराने का भी प्रयत्न करें। यह भी आवश्यक कर्तव्य है । आध्यात्मिक प्रयत्न तो हम कर ही रहे हैं। आशा है स्थिति में जल्दी ही सुधार होगा।
माता जी आप सबको स्नेह लिखाती हैं।
अंकों का पार्सल यहां से कई दिन पहले भिजवा देने की बात सत्यदेव कह रहे थे। आज तलाश करायेंगे और न भेजे गये होंगे तो जल्दी ही भिजवा देंगे।
श्रीराम शर्मा
दिनांक १९-७-६२
हमारे आत्मस्वरूप,
पत्र मिला । गुरु पूर्णिमा की श्रद्धाञ्जलि भी । पत्र सामने रखा है और आप सामने बैठे दिखाई पड़ते हैं । युग निर्माण योजना की सफलता ही हमारी प्रिय आकांक्षा है । हमारी ब्राह्मण आत्मा इसी के लिए तड़फती रहती है । आप इस तड़फन को मिटाने के लिए हमारे कंधे से कंधा मिलाकर जो कार्य कर रहे हैं उसके लिए हम हृदय से संतुष्ट हैं । इन दिनों जिस विचारधारा को अखण्ड ज्योति जन मानस में प्रवेश करा रही है वह प्रवाह गतिमान रहा तो असंख्यों आत्माओं में आशाजनक हेर-फेर होगा ऐसा विश्वास है ।
इन पाँच ग्राहकों को मार्च से पत्रिका भिजवा रहे हैं क्योंकि पिछले ४-५ अंक बड़े उपयोगी और संग्रहणीय हैं । १०१ ग्राहक बनाने का आपका संकल्प बहुत ही सराहनीय और संतोषदायक है।
घर में सब स्वजनों को हमारा आशीर्वाद और माता जी का स्नेह पहुँचा दें ।
श्रीराम शर्मा