जैसा कि हमने इन लेखों की कड़ी को जोड़ने की बात की थी आज का लेख गुरुदेव का रमण आश्रम और अरुणाचल में प्रवेश पर आधारित है। गुरुदेव के पास तो दिव्य दृष्टि थी उन्होंने 2000 किलोमीटर से सब कुछ देख लिया था और जैसा देखा वैसा ही पाया । हम इतने भाग्यशाली तो
हैं नहीं और हमारे पास वह दृष्टि भी नहीं लेकिन उस परमपिता ने एक अंतर्दृष्टि तो हर किसी को प्रदान की है वह है ” मन की आँखें “। अगर साधन मिलें तो मन की आँखों से कल्पना करके हम सब कुछ देख सकते हैं। आप के लिए आज के लेख के साथ हमने जो दो पिक्चर लगाई हैं उन पिक्चरों को साधन बना कर आप गुरुदेव के साथ -साथ ऊँगली पकड़ कर इस दिव्य आश्रम की यात्रा कर सकते हैं। निश्चित है कि 1934 में ,आठ -नौ दशक पूर्व- इतना विस्तार तो नहीं हुआ होगा परन्तु मुख्य शिल्पकारी का रस्वादन तो आप अपनी मन की आँखों और पिक्चर के साधन से अवश्य ही कर सकते हैं। साथ -साथ में हमें इस बात का ध्यान भी रखना है की गुरुदेव उस वक्त केवल 23 वर्ष के थे। हमने गुरुदेव की इस आयु की फोटो ढूंढ़ने का प्रयास किया लेकिन गूगल ने साथ नहीं दिया। हमें यही मान कर संतोष करना पड़ा कि आज मोबाइल फ़ोन का युग है 1934 में रील वाले कैमरे होते थे और फोटोग्राफी इतनी प्रचलित कहाँ थी। उन दिनों फोटोग्राफी तो किसी विशेष अवसर पर ही की जाती थी। तो आईये चलें आज की यात्रा पर।
पार्ट 1 के ज्ञान प्रसाद में गुरुदेव ने इस क्षेत्र का भ्रमण अपनी अन्तः दृष्टि से किया था। यहाँ आकर जो जैसा देखा था बिल्कुल उसी तरह का पाया जब गुरुदेव अरुणाचल मंदिर /पर्वत पर पहुंचे। 25 एकड़ क्षेत्र में विस्तृत यह मंदिर समूह अपने आप में एक दिव्यता का स्वरुप है । मंदिर क्षेत्र में 100 से अधिक तो गोपुरम हैं और इतने ही मंदिर हैं। जो परिजन दक्षिण भारत के मंदिरों की शिल्पकारी से परिचित हैं वोह तो अवश्य जानते होंगें गोपुरम किसे कहते हैं। बड़े बड़े टावर में प्रवेश द्वार को गोपुरम कहते हैं। अरुणाचल में जगह जगह जलाशय हैं। वहीँ एक पुरोहित ने गुरुदेव को देखा और टूटी फूटी हिंदी में इस स्थान का महत्व समझाया। वह कहने लगे :
“यह एक अति पवित्र स्थान है। विश्व का ह्रदय ,शिव का गुप्त और पवित्र हृदय। “
एक पौराणिक प्रसंग के अनुसार जिस प्रकार चन्द्रमा और नक्षत्र गृह सूर्य से प्रकाश प्राप्त करते हैं इसी प्रकार अन्य पवित्र स्थान अरुणाचल से ही अपना आलोक पाते हैं। यह पर्वत स्वयं ही ॐ के आकार का है। हमारे पाठक उतराखड़ और नेपाल क्षेत्र में स्थित ॐ पर्वत से परिचित होंगें। You Tube में अगर ॐ पर्वत पिथौरागढ़ डिस्ट्रिक्ट सर्च किया जाये तो आप ॐ पर्वत की अलौकिकता और दिव्यता का आनंद प्राप्त कर सकते हैं। लोगों का मानना है कि महर्षि गौतम ने वैदिक काल में इसी पहाड़ी पर तप किया था। यह महर्षि गौतम हैं न कि महात्मा गौतम बुद्ध। महर्षि रमण ने 36 वर्ष तक इस पर्वत को अपना निवास बनाया हुआ था। महर्षि ने जब वैराग्य लिया तो लम्बे समय तक एक मंदिर से दूसरे मंदिर में ही निवास करते रहे। जब उनकी माता जी मनाने ले लिए आईं तो उन्होंने अरुणाचल छोड़ कर कहीं भी जाने को इंकार कर दिया। माता जी से मिलने के उपरांत वह एक कंदरा ( गुफा ) में चले गए और 1922 तक कंदराओं में ही रहे। बाद में महर्षि नीचे तलहटी में जाकर रहने लगे जहाँ बाद में एक झोंपड़ी बनाई। इस झोंपड़ी में महीनो तक रहे , बाद में जब भक्तों की संख्या बढ़ने लगी तो और भी झौंपड़ीआं बन गयी और आश्रम का विस्तार भी होता गया। हमारे पाठक साथ में दी गयी पिक्चर को भी देख रहे होंगें जिससे हमारी लेखनी और क्लियर हो सकती है। गुरुदेव ने जब आश्रम में प्रवेश किया तो देख कर गदगद हो गए आश्रम में कोई प्रवेश द्वार नहीं है और चारों तरफ से खुला है। कुटियाओं के बाहिर नारियल के पेड़ लगे हुए हैं। नारियाल के पत्ते कुटियाओं को ढक रहे थे। महर्षि की कुटिया के पीछे कुछ साधुओं ने अपने लिए छप्पर डाल लिए थे। 20 – 25 लोगों की चहल पहल दिखाई दी। इनमें भारतीयों के इलावा यूरोपीय ,अमेरिकी ,पारसी ,यहूदी ईसाई ,मुस्लिम आदि सभी विश्वासों के अनुयायी थे। गुरुदेव के मन में किसी आश्रमवासी से आश्रम के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। संयोगवश एक सज्जन मिल भी गए। गणपति शास्त्री नामक यह सज्जन वाराणसी के रहने वाले थे ,उनकी आयु 60 -65 वर्ष होगी। गुरुदेव ने उन्हें अपने आने के उदेश्य में बताया कि वह महर्षि को मिलना चाहते हैं और और आश्रम को निकट से देखना चाहते हैं। शायद युगतीर्थ शांतिकुंज की पृष्ठभूमि ऐसे ही आश्रमों के देख कर बनी होगी। शास्त्री जी ने कहा – अभी थोड़ी देर में महर्षि कुटिया से बाहिर आने वाले हैं। तुम स्नानादि से निवृत हो कर भोजन ग्रहण कर लो। भोजनालय का वर्णन करते भगवती भोजनालय शांतिकुंज की स्मृति आना स्वभाविक है क्योंकि दोनों का स्टाइल लगभग एक सा ही था। एक हालनुमा छायादार टीन के छत वाली जगह पर यह भोजनालय बना था। भोजन के लिए सब लोग पंक्ति बना कर बैठे थे। गणपति शास्त्री जी ने बताया की सब लोग एक साथ बैठ कर भोजन करते हैं ,जाति, धर्म। ऊंच -नीच। देशी -विदेशी का कोई भेद -भाव यहाँ पर नहीं है। लेकिन फिर भी कुछ कटटरपंथी ब्राह्मण हैं जो अलग से भोजन करना चाहते हैं। उनके लिए चौके में अलग स्थान छोड़ा हुआ है। गुरुदेव ने इस तरह की व्यवस्था पर प्रतिक्रिया दिखते हुआ कहा – अगर ऊंच -नीच नहीं है तो इसका अर्थ है कि नहीं है तो फिर यह अलग स्थान क्यों छोड़ा हुआ है। शास्त्री जी ने कहा -महर्षि ने तो सब के लिए एक सी व्यवस्था बनाई है ,वह न तो जाति नियमों को तोड़ने के लिए कहते है और न ही पालन करने के लिए।
शास्त्री जी ने गुरुदेव से फिर भोजन के लिए आग्रह किया। वह भोजनालय में आए और दूसरे भक्तों के साथ बैठ गए। नारियल के पत्तों पर भोजन परोसा गया। भोजन के शुरू होने से कुछ समय पहले महर्षि आकर टिन हाल में दोनों पंक्तियों के बीच बैठ गए। उनको आता देख कर कुछ लोग उठ कर अभिवादन करने के लिए उठे लेकिन उन्होंने बैठने का संकेत किया और चुपचाप भोजन करते रहे। उस दिन सांभर -चावल बने थे। सभी चुपचाप खाना खा रहे थे। गुरुदेव को भोजनालय का अनुशासन बहुत ही पसंद आया। नारियल के पत्तों पर चावल ,सब्ज़ी ,मिठाई इत्यादि , बिल्कुल ही सादा ,बिना मिर्च मसाले का खाना। ऐसा खाना स्वास्थ्य वर्धक होता है। अगर कोई स्वास्थ्य प्रॉब्लम न हो तो नीचे धरती पर बैठ कर खाना हमारी भारतीय सभ्यता का प्रतीक है। एक यूरोपीय महिला चमच्च साथ लाई थी ,उसे हाथ से खाने का अभ्यास नहीं था। आश्रम के स्वयंसेवक ने कुछ कहना चाहा ,शायद वह चमच्च से न खाने को कहना चाहते थे। महर्षि जी ने यह देख लिया और उन्हें मना कर दिया। संकेत से कहा कि उस महिला को चमच्च का उपयोग करने दें। महर्षि रमण परिवार की तरह भोजनालय में बैठते और जैसे परिवार का मुखिया सब का ख्याल रखता है ,सबकी थाली में देखता रहता है ठीक उसी तरह उनकी दृष्टि भी सब की ओर थी।
खाने के उपरांत दोपहर में महर्षि सब को मिलने के लिए अपने स्थान पर आकर बैठ गए। महर्षि एक तख़्त पर बैठते थे और उस पर लोहे का एक जंगला लगा होता था। वह नहीं चाहते थे कि कोई उनके चरण स्पर्श करे। वहां अगरबत्तियां जल रही थीं। कुछ लोगों की आँखें बंद थीं अपने श्रद्धेय के आने के उपरांत कई लोगों ने आँखें खोलीं और प्रणाम मुद्रा में उनके समक्ष जाकर पुष्प अर्पित किये। गुरुदेव ने भी पुष्प अर्पित कर प्रणाम किया। महर्षि ने आशीर्वाद के साथ गुरुदेव को टोकरी में से उठा कर एक फल दिया। यह फल नाशपाती था। आध्यात्मिक दृष्टि से नाशपाती कठोर व्यक्तित्व का प्रतीक है जो अत्यंत रस से भरा हुआ है। प्रणाम के उपरांत सब लोगों के यथास्थान बैठ जाने पर एक ब्रह्मचारी ने वेद मन्त्रों का पाठ आरम्भ किया। आगंतुकों में से किसी एक ने कहा -कितना ही अच्छा हो अगर इन मन्त्रों के उच्चारण के साथ -साथ इनका अर्थ भी समझा दिया जाये। इस पर महर्षि रमण कहने लगे :
” वेद मन्त्रों का अर्थ जानना जन -साधारण के लिए आवश्यक नहीं है। यह कार्य विद्वानों का है जो समझ कर , भली प्रकार अध्यन कर जन -सामान्य को समझाने का कार्य करते हैं। मन्त्रों का पाठ शांति और चिंतन में सहायक होता है इनका पाठ शिक्षा नहीं एक विधि है, एक
मार्ग है। “
महर्षि रमण का यह तर्क आज के युग में कितना ठीक है इसका निर्णय पाठक खुद ही कर सकते हैं क्योंकि जिस तरह गूगल पे सब इनफार्मेशन उपलब्ध है कुछ भी करना कठिन नहीं है। लेकिन अवदेशानन्द गिरि महाराज जी का यह तर्क भी ध्यान में रखना अनिवार्य है –
” आज तो 5 दिन के क्रैश कोर्स करके लोग गुरु बन जाते हैं , 7 दिन के ऑनलाइन कोर्स के उपरांत तो एक्सपर्ट बन जाते हैं “
इतना आसान और शॉर्टकट नहीं है इन सभी को समझना और फिर जनसाधारण को समझाना।
उस दिन गुरुदेव की भेंट इतनी ही हुई। अगले दिन की भेंट काफी विस्तारपूर्वक थी जिसका वर्णन अगले लेख में करना ही उचित होगा। तो आज का ज्ञान प्रसाद ,ज्ञान प्रसार बस इतना ही।
जय गुरुदेव