बच्चे अपने माँ बाप से बहुत कुछ चाहते हैं अच्छे कपडे ,अच्छे जूते, अच्छा खाना ,अच्छे खिलोने , अच्छा बिस्तर ,अच्छा घर इत्यादि इत्यादि -the list goes on and on। यह बात तो अटल सत्य है ,हर कोई इसको मानता भी है और सदियों से इसको निभा भी रहा है। पर माँ बाप बच्चों से कुछ न चाहें ऐसी बात भी तो नहीं हैं। माता पिता बच्चों के लिए अगर इतने साधन उपलब्ध करवाते हैं तो यह भी आशा करते हैं कि उन साधनो का प्रयोग ठीक से करें। माता पिता ने बिस्तर देकर अपना दाइत्व तो पूरा कर दिया परन्तु बच्चे को बिस्तर पर मल – मूत्र त्याग न करना उसका दाइत्व है। जब तक बच्चा छोटा है ,समझ नहीं है तब तक तो माँ उसके साथ -साथ साये की तरह चलती है ,ऊँगली पकड़ कर चलने में सहायता भी करती है ,वह गिरता भी है ,गिरने से रक्त भी बहता है ,फिर भी उठने में सहायता भी करती है इसी बात को बच्चे दिन -प्रतिदिन अपने माता पिता से सीखते रहते हैं। ज्यों ज्यों बच्चा बड़ा होता है माता पिता की आशा भी साथ – साथ चलती रहती है । हमारे सहकर्मी इस बात से भली भांति अवगत हैं कि हम जब आशा की बात कर रहे हैं तो किसी भौतिक आशा की बात नहीं कर रहे। माता पिता का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि वह अपना सबकुछ आखिरी दम तक देने की प्रवृति रखते हैं। सारा जीवन भर वह जो कुछ भी प्राप्त करते हैं अपने बच्चों के नाम वसीयत के रूप में बाँट कर अपनी अगली यात्रा पर ( परलोक ) चले जाते हैं। और कोई विकल्प भी तो नहीं है। माता पिता बच्चों को नहीं देंगें तो और किसको देंगें। हमारे सहकर्मी इस बात से भी भली भांति परिचित हैं कि वसीयत में क्या कुछ शामिल किया जाता है। वसीयत को अंग्रेजी में will कहते हैं और विरासत को heritage यां legacy कहते हैं। विरासत में मिलने वाले संस्कार ,चरित्र ,व्यव्हार इत्यादि का भी उतना ही रोल है जितना वसीयत का है ,शायद उससे से अधिक ही है। अगर वसीयत में अच्छा व्यापार मिल जाता है लेकिन उसका पोषण करने के लिए , उसको सँभालने की समर्था नहीं है , परिश्रम के संस्कार नहीं हैं तो व्यापार असफल हो कर गर्त में गिरने में अधिक देर नहीं लगती। आज के इस भागदौड़ और आधुनिकरण के युग में भी अनेकों परिवार हमें मिलते हैं जिनसे केवल बात करने से ही उनकी बैकग्राउंड का प्रतिबिम्भ दर्शित हो जाता है
परमपूज्य गुरुदेव ने भी अपनी पुस्तक ” हमारी वसीयत और विरासत ” में इसी तरह की भावना की आशा की है। ग्वाल बाल की सेना ,रीछ वानरों का योगदान गोवर्धन उठाने में एवं रामसेतु की रचना केवल ग्रंथों की कहानियां नहीं हैं ,इनमें गूढ़ दर्शन ( philosophy छिपा हुआ है। गुरुदेव ने भी अपने बच्चों से ऐसी ही आशा की है। नव-निर्माण ,युग-निर्माण ,मनुष्य में देवत्व का उदय ,21 वीं शताब्दी उज्व्वल भविष्य के उत्तरदायित्व को वहन करना अकेले हम का कार्य कभी भी संभव नहीं हो सकता। हमारे ऊपर हमारे गुरु ,हमारे मार्गदर्शक का निर्देश और संरक्षण तो है ही लेकिन यह सब के मिलजुल कर करने का सामूहिक प्रयास है। अकेले कोई भी ,कुछ भी करने में असमर्थ है। इस विशाल गायत्री परिवार के हर सदस्य का ,हमारे हर बच्चे का , बाल -परिवार के प्रत्येक बच्चे का योगदान अति आवश्यक है।
गुरुदेव ने समयदान और अंशदान पर अत्यंत ज़ोर दिया है। यहाँ तक कि उन्होंने एक मुट्ठी अनाज और एक आना प्रीतिदिन के योगदान का भी सुझाव दिया है। इस अंशदान के साथ- साथ गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में समयदान की परिभाषा को समझाया है। दिन के 24 घंटों में से घर गृहस्थी के कार्यों ,नौकरी के और बाकि के कार्यों को करते हुए समयदान के लिए कुछ घंटे निकालना कोई कठिन है।
गुरुदेव प्रायः कहते हैं –
” हमें अपने बच्चों के बारे में क्या करना है ,इस उत्तरदायित्व का हर पल ख्याल रहा है और जब तक चेतना का अस्तित्व है एक बात बिलकुल स्मरण रखने योग्य है -हमारी आकांक्षा और आवश्कयता को भुला न दिया जाए। यह कहने की बात ही नहीं है कि हमारा और आपका चेतना का सम्बन्ध है। हमने तो कई बार इस बात को दोहराया है – तू मेरा काम कर , मैं तेरे हर कार्य की ज़िम्मेवारी लेता हूँ। हमारे परिवार का हर कोई सदस्य बहुत बड़ा काम करने में समर्थ है ,छोटेपन का तो उसने केवल मुखौटा ही पहन रखा है उस मुखौटे को उतारने की ही देर है। मुखौटा उतारते ही उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। इसका उदाहरण तो हमारे सहकर्मियों ने कई बार देखा होगा। सामान्य से दिखने वाले परिजन कितने महान कार्य कर सकते हैं। यह तथ्य बिलकुल अविश्वसनीय है। सामूहिक प्रयास का उदाहरण अश्वमेध यज्ञों की विशालताऔर सफलता साक्षी है। हमारे यहाँ इधर कनाडा में भी वार्षिक गायत्री यज्ञ और अन्य कार्यक्रम इतनी सफलता से सम्पन होते हैं तो सभी का एक ही भाव होता है -समूहिक पुरषार्थ और गुरुदेव का संरक्षण।
गुरुदेव कहते हैं
” हमारे मार्गदर्शक ने एक ही झटके में क्षुद्रता ( low thinking ) का आवरण उतार कर महानता का परिधान पहना दिया था। हमारा तो कायाकल्प हो गया था। इस कायाकल्प में मात्र इतना ही हुआ कि लोभ और मोह के कीचड़ से बाहर निकल कर आ गए। जो -जो सत्य परामर्श दिए गए ,जिन -जिन महान आत्मायों के आग्रह पूरे करने का आश्वासन माँगा गया सब शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा है। एकाकी चलने का आत्मविश्वास और आदर्शों को भगवान मान कर कदम बढ़ाये गए। इसका परिणाम एक दम सामने आना आरम्भ हो गया। अब कभी भी एकाकी होने का आभास नहीं हुआ ,साधनहीन यां उपेक्षित ( उदासीन ) स्थिति का आभास ही नहीं हुआ। सत्य को अपनाने की देर भर ही थी कि असत्य का अँधेरा अपनेआप ही छटता चला गया। हमारा अपने बच्चों से यही अनुरोध है कि हमारी जीवन यात्रा को घटनाक्रम की दृष्टि से नहीं वरन निरीक्षिक / पर्यवेक्षक की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए। निरीक्षक का अर्थ यही है कि हमने अपने जीवन का पूर्ण तौर से निरीक्षण किया है ,पूर्ण रूप से साधना की है। आध्यात्म को अपनाते हुए ऋषि परम्परा को अपनाने की दिशा में हमारे कदम बढ़ते ही गए। हमारा ऐसा मानना है कि आंतरिक पवित्रता और बहिरंग प्रखरता ( तीव्रता ) का जितना अधिक समन्वय होगा वह मनुष्य उतना ही दैवी विभूतियों से लाभांवित होगा।
हम अपने सहकर्मियों की सुविधा के लिए इन सभी टेक्निकल शब्दों के सिंपल अर्थ ढूंढ – ढूंढ कर इसको आसान बना रहे हैं क्योंकि गुरुदेव के साहित्य को ,गुरुदेव की जीवनी को समझना कोई सामान्य बात नहीं है।
आंतरिक और बहिरंग को थोड़ा डिटेल में देखें तो लगेगा कि साधना आंतरिक शुद्धि के बिना संभव ही नहीं है। नहा धो कर ,स्वच्छ आसान पर बैठ कर ,पूजा स्थली में सफाई और अच्छी धूप बत्ती जलाना जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है आंतरिक शुद्धि ,आपके अन्तः करण की शुद्धि ,आपकी आत्मा की शुद्धि। गुरुदेव जब साधना से सिद्धि की बात करते हैं तो भगवत प्राप्ति के लिए आंतरिक शुद्धि एक पासपोर्ट और visa का काम करता है।
गुरुदेव आगे फिर कहते हैं :
” कहने को तो हमारे परिवार का नाम ,गायत्री परिवार है ,इसके सदस्यों का रजिस्टर भी रखा गया है। समयदान ,अंशदान ,जीवनदान इत्यादि का अनुबंध भो है लेकिन वास्तविकता कुछ इससे अधिक ही है। जो हमें आज तक समझ आया है और जो हम प्रतिक्षण अनुभव करते हैं वह है जन्म -जन्मांतरों से संग्रहित आत्मीयता। इस आत्मीयता के पीछे गुदगुदी उत्पन्न करने वाली अनेकानेक घटनाएं हमें स्मरण हैं। हमारे बच्चे इन घटनाओं को स्मरण रखें य न रखें फिर भी वे विश्वास करते हैं कि हम सब एक मज़बूत डोरी से बंधे हुए हैं वह डोरी जिसका नाम है -आत्मीयता -। यह आत्मीयता की डोरी अधिक से अधिक मज़बूत होती जाती है। यह समर्पण की डोरी ही इस विशाल गायत्री परिवार को एक सूत्र में बांधे रखी है। इस विवरण का जीता जागता उदाहरण गुरुदेव के सहकर्मी जिन्हे हम कई बार मिल चुके हैं और आज के युग के परिजन सब इस आत्मीयता के प्रतीक हैं। कईं बार तो आश्चर्य होता है कि गायत्री परिजन जिनकी एक नियत पीली वेशभूषा है ,व्यक्तित्व भी कुछ उदाहरणीय ही है। गुरुदेव जब मथुरा छोड़ कर शांतिकुंज आ रहे थे तो उन्होंने अपने बच्चों के ,परिजनों के चयन के ऊपर एक बहुत ही प्रेरणादायक बात कही थी उसका संक्षिप्त वर्णन कुछ ऐसा है :
जब मथुरा में बरसात की ऋतु आती है तो सब कुछ जल मग्न हो जाता है। नगर की गलियों और नालियों में कूड़ा- कर्कट बह रहा होता है। गरीब लोग उन नालियों में से हाथ डाल- डाल कर कुछ ढूंढ रहे होते हैं। कई बार उन्हें कुछ मूल्यवान सोना ,चांदी ,हीरे इत्यादि भी मिल जाते हैं। ठीक उसी प्रकार हमने भी परिजनों को इतना परिश्रम करके ढूंढा है। हमारे लिए ऐसे परिजन कितने मूल्यवान हैं हमसे बेहतर कौन जान सकता है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मियों ने अनेकों बार शांतिकुंज जाने, श्रेध्य डॉक्टर साहिब से मिलने ,श्रद्धेय जीजी से मिलने के लिए मार्गदर्शन माँगा है। अगर वह आज वाला लेख अच्छे से अध्ययन कर लें तो उनका समाधान अपनेआप होने का सम्भावना है।