27 जुलाई 2020 का ज्ञान प्रसाद
चेतना की शिखर यात्रा 2
आज के लेख को हमने दादा गुरु द्वारा दर्शाये गए विराट स्वरुप में सम्माहित विश्व की समीक्षा , गुरु -शिष्य समर्पण और विश्वभर में फैले गायत्री परिवार का मार्गदर्शन करने के निर्देश को आधार बनाया है । लगभग 6 दशक पूर्व दिए गए निर्देशों का आज 2020 में भी पूर्णरूप से पालन किया जा रहा। गायत्री परिवार का प्रत्येक सदस्य गुरुदेव के निर्देश का पालन करना अपना कर्तव्य ही नहीं अपना धर्म समझता है।
तो आइये सुनें उस दिव्य गुरु -शिष्य वार्तालाप को :
जब मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव के सिर से अपना हाथ हटाया तो गुरुदेव बिल्कुल मौन होकर दादा गुरु को टकटकी लगा कर देख रहे थे। कोई प्रश्न और जिज्ञासा नहीं ,केवल तृप्ति और शांति का भाव था। दादा गुरु कहने लगे :
” यह जो दिव्य रूप आपने देखा है वह परमसत्ता है जो अपनी अनंत भुजाओं से समस्त लोकों को आलिंगन कर रही है। अपने लाखों हाथों से वह इस सृष्टि का निर्माण कर रही है ,पोषण कर रही है और संहार भी इन्ही भुजाओं से होता है। सूर्य और चन्द्रमा जैसे उस परमसत्ता के नेत्रों में एक साथ भस्म कर देने वाला तेज और दाहक ताप को शांत करने वाली सौम्य शीतलता प्रदान करने की क्षमता है। कल -कल बहते झरनों का मधुर संगीत और उनके सहित वेगवती नदियों की धाराएं उस परमसत्ता के ही स्फुलिंग ( sparks ) हैं। ”
दादा गुरु थोड़ा रुककर मौन हुए तो गुरुदेव ने जिज्ञासा भरे नेत्रों से नतमस्तक होकर उनके चरणों की ओर देखा ,जैसे पूछ रहे हों अब आगे क्या आदेश है। दादा गुरु कहने लगे :
” सर्वशास्त्रमयी मंत्र जिसने तुम्हारी चेतना को इस शिखर तक पहुँचाया है , उसके माध्यम से इस विराट विश्व की, विशाल पुरष की आराधना करो। विश्वरूप परमसत्ता के रोम -रोम को इन अक्षरों से सजाओ। “
गुरुदेव फिर नतमस्तक हुए ,यह उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने का प्रतीक था। दादा गुरु फिर कहने लगे :
” महाकाल एक बार फिर अवांछनीय को नष्ट करने का संकेत कर चुका है। इस नष्ट और ध्वंस से जो स्थान रिक्त होगा उसे भरने के लिए सृजन की देवी गौरी तैयार हो गयी है। जाओ और जागृत आत्माओं को नियंता के इस सन्देश से अवगत कराओ। ” ( गायत्री परिवार का दिव्य सन्देश )
इस सारी लीला और संदेशों के बीच गुरुदेव को याद ही नहीं रहा कि आषाढ़ का शुक्ल पक्ष आरम्भ हुए दो सप्ताह हो गए हैं और आज गुरु पूर्णिमा की वेला है। आकाश में पूर्णचन्द्र खिल हुआ था। बिना किसी पूजा ,उपचार और कर्मकांड सम्पन्न किए गुरुदेव ने मार्गसत्ता के समक्ष आत्मनिवेदन किया। निवेदन यह था कि सारी रात्रि आप के सानिध्य में व्यतीत करनी है। इसके लिए कोई शब्दों का उपयोग तो नहीं किया परन्तु मार्गदर्शक सत्ता ने इस निवेदन को पढ़ लिया। कहने लगे :
” एक रात्रि क्यों ? यह चेतना तो सम्पूर्ण जीवन तुम्हे प्रतिनिधित्व प्रदान करता रहेगा। यहाँ से मिलने वाले सभी निर्देशों का समर्पण भाव से पालन करना ही तुम्हारी गुरुपूर्णिमा की दक्षिणा है।
जब दादा गुरु ने ” यह चेतना ” का सम्बोधन किया था तो अपनी ओर संकेत किया था। अब का निर्देश तो यही था कि अभी कुछ समय हिमालय में ही व्यतीत करना है। मन में बिल्कुल शांति और आश्वासन का भाव था। आगे की यात्रा के लिए कोई मार्गदर्शक की आवश्यकता नहीं थी ,चाहे कोई पता नहीं था , आगे कहाँ जाना है। संवाद और सम्पर्क यहीं पर समाप्त हुआ और दादा गुरु यहाँ से प्रस्थान कर गए।
हमारे पाठकों को गुरु -शिष्य समर्पण के स्तर का आभास तो अवश्य ही हो गया होगा। ऐसे कठिन कार्यपालक ( hard task master ) होते थे प्राचीन शिक्षक। और इसी कारण शिष्य की योग्यता भी चरम स्तर की होती थी। इसका अर्थ यह कदापि नहीं निकलता कि आज के शिष्य में किसी प्रकार कि कमी है। विधि का विधान अटल है , ऐसा कहना ग़लत नहीं होगा जब हम देख रहे हैं कि गुरु -शिष्य का मिलन गुरु पूर्णिमा के पावन दिवस को हो रहा है। हम तो यही विश्वास करेंगें कि गुरुदेव के साथ मिलन दादा गुरु ने ही नियत किया होगा। एक बार और – गायत्री उपासना का निर्देश गुरुदेव ने अक्षर -ब -अक्षर पालन करके विश्व भर में गायत्री साधकों को मार्गदर्शन दिया है।
दादा गुरु के जाने के उपरांत गुरुदेव ने कैलाश मानसरोवर की ओर प्रस्थान किया। रास्ता देखा नहीं था ,न किसी से poocha जा सकता था। वहां कोई था भी तो नहीं। दादा गुरु ने तो अंतरात्मा से इस तरफ जाने का निर्देश दिया था। तापस ऋषि तो चले गए थे ,हवन कुंड भी ठन्डे हो चुके थे। तपोवन से जो प्रतिनिधि साथ आए थे उन्होंने ज़्यादा बात तो की नहीं थी पर इतना शायद कहा था राक्षसताल ( आगे चल कर इस झील के बारे में बताएंगें ) होते हुए मानसरोवर पहुंचा जा सकता है। यह रास्ता करीब 50 मील दूर है परन्तु है दुष्कर। कोई संकेत नहीं ,यह भी पता नहीं किस दिशा में जाना है। दादा गुरु ने भी कोई संकेत नहीं दिया था। इसी उधेड़बुन में गुरुदेव उसी दिशा में चल पड़े जिस तरफ दादा गुरु गए थे।
इस तरफ जा रहे थे तो लगा कि रास्ता भटक गए हैं किसी ने कहा तो नहीं ,मन में ही ऐसा प्रबोध उठा। गुरुदेव तिब्बत की सीमा तक पहुँच गए थे,लेकिन यह नहीं पता कि कहाँ पर हैं। कुछ दूर चलते हुए इक्का -दुक्का युवक दिखाई दिए। यहाँ तक पहुँचने में प्रबल सामर्थ्य होना चाहिए ,पर कैसे पहुँच गए ,यह तो दादा गुरु का सामर्थ्य ही है। उनसे पूछा-कैलाश मानसरोवर जाना है ,क्या ठीक जा रहे हैं ? उन्होंने कहा -नहीं आप कैलाश मानसरोवर से अलग रास्ते की तरफ निकल गए हैं। यह मार्ग थोड़ा भिन्न है पर इस रास्ते से भी आप कैलाश मानसरोवर पहुँच सकते हैं।
तिब्बत का ज्ञानगंज:
गुरुदेव इन युवकों की बातें अनमने मन से सुन रहे थे ,जैसे कुछ समझ ही न आ रहा हो। युवकों ने कहा -आप इस क्षेत्र में कैसे आ गए हैं ,यह एक सिद्ध क्षेत्र है। यहाँ हर किसी का प्रवेश नहीं हो सकता। जो ऋषि सत्ताएं इस प्रदेश की व्यवस्था कर रही हैं वहीँ आमंत्रित करती हैं। जिन्हे वह आमंत्रित करती हैं वहीँ यहाँ पहुँच सकते हैं और कोई कदापि नहीं। वे युवक इसी प्रदेश के निवासी थे और उन्होंने अपना परिचय
” ज्ञानगंज के योगाश्रम के साधक ” के रूप में दिया। ज्ञानगंज योगाश्रम का उल्लेख और स्थानों पर भी आया है। योग साधना के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ चुके यतियों के अनुसार यह क्षेत्र लोकोत्तर साधना स्थली है। यहाँ निवास करने वाले योगी और परमहंस स्तर की चेतना दूसरे साधकों की सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहती हैं। मध्यकाल में महृषि महातपा के शिष्य स्वामी ज्ञानानंद ने सिद्धयोगियों के लिए यह क्षेत्र तीर्थ की तरह बनाया हुआ है। उन युवा साधकों की चर्चा करते -करते गुरुदेव ज्ञानगंज आश्रम की सीमा में पहुंचे। उन्ही ने बताया कि महातपा की आयु लगभग 1500 वर्ष है। किसी भी तरह की आवश्यकतायें उन्हें नहीं होती ,वे दिव्य देहधारी होते हैं ,किसी भी स्थान पर वे किसी भी गति से जा सकते हैं। आश्रम के कई साधकों की आयु 150 वर्ष के भी अधिक है। यहाँ पहुँचने के कई मार्ग हैं परन्तु गुरुदेव भूलते -भूलते दो माह बाद पहुंचे थे।
हमारे सहकर्मियों ने पहले वाले लेख में ज्ञानगंज को जानने की जिज्ञासा जताई थी , हमने तो इसको व्यक्तिगत निर्णय पर छोड़ दिया था। इस तरह के सिद्धाश्रम विभिन्न नामों से कई जगह पर हैं। ज्ञानगंज के रहस्य पर कई तरह की पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं ,कई तरह की वीडियो बन चुकी हैं ,सिद्ध करने के कई तरह के क्लेम ( claim ) आ चुके हैं। यहाँ तक कि अमरीकन राष्ट्रपति फ्रेंक्लिन रूज़वेल्ट से लेकर हिटलर तक जिसने अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास किया था कहीं न कहीं ज्ञानगंज के साथ जुड़े हुए थे। रूज़वेल्ट ने तो अपने गुप्त वेकेशन (vacation ) स्थान का नाम ही शांगरिला रख दिया था। US नेवी के एयरक्राफ्ट का नाम भी शांगरिला है। इधर टोरंटो में तो एक लक्ज़री होटल का नाम भी शांगरिला है। शांगरिला ( शंबाला ) का अर्थ ” धरती का स्वर्ग ” है। आज तक सभी के प्रयास कुछ भी पक्का कहने में असमर्थ ही साबित हुए हैं। हम अपने व्यक्तिगत भाव केवल इतना ही कह कर विराम करेंगें कि ज्ञानगंज या किसी और सिद्धाश्रम को अध्ययन करना अतयंत मनोरंजक है लेकिन इस मनोरंजन की आंधी में हमारे लक्ष्य का खो जाना स्वाभाविक है। तो इसलिए एकबार फिर हम अपने पाठकों से यह निर्णय उन्ही पर छोडने की अनुमति से आगे बढ़ रहे हैं।
राक्षसताल और मानसरोवर झील :
चेतना की शिखर यात्रा 2 में वर्णित गुरुदेव राक्षसताल के मार्ग से कैलाश मानसरोवर पहुंचे थे। कैलाश पर्वत ( ग्लेशियर ) पर विराजमान भगवान भोले नाथ जहाँ हम सबको दिव्यता प्रदान करते हैं ,वहीँ मानसरोवर झील एक दिव्य वातावरण देकर मानवता का पोषण करती है। पौराणिक ग्रंथों के आधार पर मानसरोवर झील का विचार सृष्टि के रचियता ब्रह्मा जी के मन में सबसे पहले आया था। मानसरोवर का शाब्दिक अर्थ मानस -सरोवर है यानि मन का सरोवर। मान्यता है कि यहाँ देवी सती का दायां हाथ गिरा था ,झील के बाहिर एक शिला को उसीका रूप मान कर पूजा जाता है। राक्षसताल मानसरोवर के पास ही दूसरी झील है। इसे रावणताल भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है की रावण ने भगवान भोले नाथ की भक्ति करके इसी झील में अपने शीश अर्पण किये थे। पौराणिक मान्यताओं के साथ -साथ हम वैज्ञानिक तथ्यों को नज़रअंदाज तो नहीं कर सकते। Geology के वैज्ञानिकों के मुताबिक राक्षसताल और मानसरोवर दोनों एक ही झीलें थीं और धरती के हलचल से अलग हो गयीं। मानसरोवर का जल मीठा परन्तु राक्षसताल का जल खारा है समुद्र तल से 15000 फुट की ऊंचाई पर स्थित यह पौराणिक और आधुनिक masterpiece साधकों और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं। चार सम्प्रदाओं -हिन्दू ,जैन ,बौद्ध और बोन धर्म या बॉन धर्म ( तिब्बत ) में इस क्षेत्र की बहुत अधिक मान्यता है।
हम आज का ज्ञानप्रसाद यहीं पर समाप्त करने की अनुमति लेते हैं। गुरुदेव की यात्रा के साथ- साथ हम उस क्षेत्र की जानकारी देना भी अपना कर्तव्य मानते हैं। आशा है हमारे सहकर्मी इन लेखों को पहले की तरह विश्व भर में पहुंचाएंगें और गुरुदेव के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगें।