वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

महाभारत प्रसिद्ध कलाप ग्राम :

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गुरुदेव को तपोवन में नए गुरुभाई का सानिध्य प्राप्त हुआ। उनको भी गुरुदेव नें बिना पूछे ही वीरभद्र नाम दे दिया। यह नाम देने के पीछे एक ही कारण है कि पिछली यात्रा में जो प्रतिनिधि दादा गुरुदेव नें भेजा था उसने अपना नाम बताना तो दूर ,वह सारे मार्ग भर मौन ही रहा था और गुरुदेव उन्हें सारे मार्ग में वीरभद्र ही कहते रहे। जब आज वाले प्रतिनिधि ने वीरभद्र कहने का कारण पूछा तो गुरुदेव ने कहा ”

मैं अपने गुरुदेव को भगवान शंकर के रूप में देखता हूँ। आप उनके गण या संदेशवाहक हैं तो भगवान शंकर के गण वीरभद्र ही कहे जाते हैं न “

इन्ही प्रतिनिधि से मालूम हुआ था कि गुरुदेव इस बार कैलाश मानसरोवर के मार्ग में मिलेंगें। गुरुदेव बहुत ही प्रसन्न हुए कि इस बार इन गुरुभाई से हिमालय के बारे में बहुत सी जानकारी मिलेगी। इन नए प्रतिनिधि ने भी कुछ अधिक बात नहीं की। गुरुदेव ने कहा अपने व्यक्तिगत के बारे में चाहे कुछ न बताएं परन्तु गुरुदेव की अनुभूति का तो कुछ बताएं। आप तो बहुत ही भाग्यशाली हैं कि आपको उनका सानिध्य प्रायःमिलता रहा है। मुझे तो दो -तीन दिन से अधिक कभी भी उनका सानिध्य प्राप्त नहीं हुआ। प्रतिनिधि ने गुरुदेव की बात का खंडन करते कहा- हिमालय के सिद्ध क्षेत्र में साधना की अनुकूलता रहती है और यहाँ की दिव्यता सांसारिक मोह ,बंधन से दूर रहती है। उनका कहने का आशय था कि उनके लिए भी दादा गुरु का सानिध्य सुलभ नहीं रहा। हमारे गुरुदेव ने प्रतिनिधि ( सन्देशवाहक ) को कहा – आप गुरुदेव का सन्देश लेकर आए हैं और बहुत ही भाग्यशाली हैं। इस पर प्रतिनिधि कहने लगे :

” अगर यह बात है तो आप मुझसे और मेरे जैसे और हज़ारों शिष्यों की तुलना में अधिक भाग्यशाली हैं । तुम्हे तो दादा गुरु ने लाखों, करोड़ों लोगों का संदेशवाहक चुना है “

चलते चलते सुमेरु पर्वत की सीमा पार हो गयी। गुरुदेव को नंदनवन की पुरानी याद उभर आई। पिछली बार दादा गुरु नंदनवन में ही प्रतीक्षा कर रहे थे। परन्तु इस बार कैलाश -मानसरोवर के क्षेत्र में मिलना था। तपोवन की सीमा भी समाप्त होती दिखने लगी। चौखंबा शिखर सामने दिखाई दे रहा था। चौखंबा का अर्थ चार पर्वत शिखर ,सच में ही है। आप भी गूगल में सर्च करके देख सकते हैं । हिमालय क्षेत्र में पर्वतों के शिखर ,सरोवर ,झरने इत्यादि की भरमार है। चौखंबा शिखर के पास से गुज़रते हुए कुछ झोंपड़िया दिखाई दीं। संदेशवाहक ने झोंपड़ियां देख कर कहा – सैंकड़ों वर्ष पूर्व यहाँ एक बहुत बड़ा गांव था। इस गांव का नाम कलाप है। इस गांव की सीमा एक तरफ हिमाचल प्रदेश से ,दूसरी तरफ उत्तराखंड से और तीसरी तरफ तिब्बत से मिलती है। यह गांव प्रसिद्ध हिन्दू ग्रन्थ महाभारत की जन्मस्थली है , इसी गांव में कौरव और पांडव समय व्यतीत कर चुके हैं। ध्रतराष्ट्र ने यहाँ आकर उग्र तप किया। यहाँ के निवासियों से इस तरह कथाएं अक्सर सुनने को मिलती हैं। द्वापर युग केअंत में जब आसुरी संकट बढ़ने लगा तो सत्ता की होड़ में निति ,अनीति ,पुण्य, पाप ,धर्म ,अधर्म का भेदभाव भुलाया जाने लगा। स्वार्थ और आपाधापी ने मनुष्य को नरपिशाच बना दिया तो कलाप ग्राम में मुनियों का एक सत्र आयोजित हुआ। उस सत्र में नारद ,व्यास ,गौतम ,जमदग्नि आदि ने गहन विचार किया। ईश्वरीय चेतना को हस्तक्षेप करने और सृष्टि का संरक्षण ,पोषण करने वाली दिव्य चेतना को स्थूल रूप में व्यक्त होने के लिए बाधित किया गया।

आज कल तो इस गांव में केवल 500 लोग ही रहते हैं। विकास न होने के कारण और यहाँ पर कोई approach road न होने के कारण आज इस गांव को Forgotten himalayan remote scenic village की संज्ञा दे दी है । हमारा दुर्भाग्य है कि इतने प्रसिद्ध ऐतिहासिक गांव को इस प्रकार की संज्ञा दे दी गयी है। अविकसितता का उदाहरण तो तब देखने में आया जब हम ऑनलाइन इस प्रदेश की रिसर्च कर रहे थे तो पाया कि सुपिन नदी के ऊपर लकड़ी का पुल टूट गया था और और निवासी इतने वेगपूर्ण नदी से अपनी जान को जोखिम में डाल कर पास की बस्तियों में आ जा रहे थे। बंगलुरु स्थित photo – journlist , 38 वर्षीय आनंद संकर की कलाप ट्रस्ट नामक समाजिक आर्गेनाईजेशन ने इस गांव के विकास बारे में कुछ कार्य किया है।

हमारे पाठक हमारी निष्ठा से भली भांति परिचित हैं कि हम कोई भी कार्य अधूरा नहीं छोड़ते हैं। इस लेख को पूरा करने में हमें कितनी ही न्यूज़ रिपोर्ट्स पढ़नी पड़ी, वीडियो देखनी पड़ीं ,नक़्शे देखने पड़ें। इतने प्रयास के उपरांत भी हो सकता है कोई त्रुटि रह गयी हो ,हम क्षमा प्रार्थी हैं। ऐसे लेखों का चित्रण करना और अपने पाठकों के ह्रदय तक पहुंचना कोई आसान कार्य नहीं है। शायद वीडियो के द्वारा बताना अधिक लाभकारी हो ,अगर हमारे पाठकों का निर्देश /सुझाव रहा तो गुरुदेव के इस जीवन पर कुछ वीडियोस बनाने का प्रयास करेंगें।

कलाप ग्राम जहाँ काया न पहुँच पाए :

प्रतिनिधि के साथ जब गुरुदेव ने इस गांव में प्रवेश किया तो तीव्र प्रकाश की अनुभूति हुई। चाहे यह दिन का समय था और सूर्य का प्रकाश पूरी तरह से आभायुक्त लेकिन उसके इलावा कुछ और ही अलौकिक आभास हुआ। ऐसे लग रहा था किसी स्वर्णनगरी में प्रवेश किया हो। गुलाब के फूलों की भीनी -भीनी सुगंध व्याप्त थी। लगता था जैसे किसी उद्यान में आ गए हों। उपवननुमा इस बस्ती में कहीं कहीं हवन कुंड भी बने हुए थे। कुछ सन्यासियों को एक जगह बैठे देख कर गुरुदेव और संदेशवाहक रुके। उनमें से सबसे बुज़ुर्ग सन्यासी ने हाथ उठा कर गुरुदेव को आशीर्वाद दिया। उनका नाम सत्यानंद बताते हैं। वह कहने लगे- मैं पिछले साठ वर्ष से इधर ही रह रहा हूँ। महायोगी त्र्यम्बकं बाबा ने मुझे दीक्षI दी और साधना मार्ग की शेष यात्रा इधर ही पूरी करने के लिए कहा। तब से कलाप गांव छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं हुआ। अपनी बात बीच में छोड़ कर सत्यानंद जी ने गुरुदेव से पूछा – आपने भागवत में कलाप गांव का उल्लेख तो पढ़ा ही होगा। गुरुदेव ने सिर हिला कर हाँ कहा। सत्यानंद जी फिर कहने लगे – इस प्रदेश में नारद जी आदि ऋषियों के आने का और सृष्टि के बारे में विचार करने का उल्लेख आता है। पृथ्वी पर जब भी कोई संकट आता है यां बड़े परिवर्तन आते हैं तो सिद्ध संत मिल कर बैठते हैं और सूक्ष्म जगत में संतुलन लाने पर विचार करते हैं। इस विचार शैली को को आज कल की भाषा में अगर ऋषियों की पार्लियामेंट कहें तो गलत नहीं होगा। सत्यानंद जी ने कहा -यह कोई अकेला स्थान नहीं है। ज्ञानगंज ,सिद्धाश्रम जैसे और भी कई केंद्र हैं।

इसके बारे में हमारे समर्पित पाठकों की तरफ से कुछ जिज्ञासा भरे प्रश्न पहले वाले लेख के संदर्भ में आए थे। उनके प्रश्नो का समाधान हमने अपने विवेक के अनुसार और पाठको के ज्ञान , दोनों के प्रयास से किया था। लेकिन जिस प्रकार का आभास गुरुदेव को कलाप गांव में हुआ एक सिद्ध आत्मा को ही हो सकता है। और इस तरह के बाकि के सिद्ध क्षेत्रों में भी केवल सिद्धि प्राप्त किये साधक ही प्रवेश कर सकते हैं। YouTube पर इस संदर्भ में वीडियोस तो उपलब्ध हैं लेकिन उनकी प्रमाणिकता के बारे में कोई भी निर्णय हम अपने पाठकों पर ही छोड़ने की आज्ञा लेते हैं। यह हम इस लिए कह रहे हैं यह आभास व्यक्तिगत होते हैं। किसी एक को कुछ आभास हो सकता है किसी दूसरे को नहीं।

गुरुदेव की इस यात्रा में कितने ही प्रतिनिधि मिल रहे हैं और कितने ही सिद्ध पुरषों और सन्यासियों के सानिध्य में वह समय व्यतीत कर रहे हैं।  गुरुदेव की हर कोई हिमालय यात्रा दादा गुरु द्वारा एक निश्चित उदेश्य को ध्यान में रख कर plan की गयी थी। दादा गुरु ने इन सभी उदेश्यों को पहले ही निर्धारित किया हुआ था। इस वाली यात्रा का उदेश्य ऋषि परम्परा को पुनः जागृत और स्थापित करना था। इससे पहली वाली यात्रा में दादा गुरु हमारे गुरुदेव को साथ लेकर उन ऋषि आत्मायों के पास गए थे जो व्यथित थे और उन्होंने अपनी व्यथा का निधान गुरुदेव को सौंपा था। ऋषि परम्परा की पुनर्स्थापना देखने के लिए हमारे पाठकों को युगतीर्थ शांतिकुंज जाना पड़ेगा। स्वयं देखना चाहिए किस प्रकार प्रति दिन यज्ञ होते हैं ,गायत्री मन्त्रों का उच्चारण होता है ,ध्यान, साधना, ऋषि क्षेत्र का वातावरण, देवात्मा हिमालय मंदिर आदि आदि एक सम्पूर्ण दिव्य तीर्थस्थली से साधकों को संरक्षण प्रदान करता है।

जिन सिद्ध आत्माओं के साथ गुरुदेव ने कुछ समय व्यतीत किया उनके बारे में भी जानना आवश्यक है। उदासीन बाबा और महावीर स्वामी के बारे में हम पहले दो लेखों में बता चुके हैं , तो आइये जाने सत्यानंद जी के बारे में :

गायत्री माँ द्वारा सत्यानंद जी का मृत्यु योग टला :

सत्यानंद जी को बचपन से ही धुन सवार थी कि जीवन को परमसत्य की खोज में ही व्यतीत करना है। 13 वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत हुआ ,तभी से नियमित रूप से गायत्री जप और पूजा पाठ में लग गए। यज्ञोपवीत संस्कार के डेढ़ वर्ष उपरांत उन्हें मलेरिआ बुखार आया , उन दिनों मलेरिआ का इलाज न होने कारण दशा इतनी बिगड़ गयी कि डॉक्टर ने बचने की आशा ही छोड़ दी। कह दिया कि रोगी जो चाहे खाने को दे दो ,जो उसकी इच्छा है उसे पूरा होने दो। परहेज़ और इलाज से कोई लाभ नहीं। घर के सभी लोग रोने लगे ,पीटने लगे। सत्यानंद अर्धचेतन अवस्था में थे। वे अपने जीवन से निराश हो गए थे। सिरहाने बैठी माँ भगवतगीता का पाठ सुनाने लगी। उस अवस्था में सत्यानंद जी ने अनुभव किया कि एक कन्या सिरहाने बैठी है और कह रही है आप चिंता न करें आपका मृत्यु योग टल गया है। कन्या सत्यानंद जी के सिर पर हाथ फेरती जा रही थी और थोड़ी देर बाद ही बुखार उतरना आरम्भ हो गया। घर वालों के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। डॉक्टर ने देखा तो उसकी भी आश्चर्य की सीमा न रही। सत्यानंद जी को बाद में बोध हुआ कि उनके सिर पर हाथ फेरने वाली कन्या कोई और नहीं बल्कि स्वयं वेदमाता गायत्री थीं। उसके उपरांत सत्यानंद जी ने पढ़ाई छोड़ दी और वैराग्य जागने के कारण हिमालय की ओर निकल गए। उनके गुरु त्र्यम्बकं बाबा ने कलाप ग्राम में ही दर्शन दिए और इधर ही साधना करने का निर्देश दिया।
हम अपने पाठकों को बताना चाहेंगें कि यह बातें जो आज 2020 में कर रहे हैं लगभग 120 वर्ष पुरानी हैं क्योंकि सत्यानंद जी 60 वर्ष से कलाप ग्राम में थे ओर गुरुदेव को यह वर्णन 1958 में कर रहे थे। हमने इन तथ्यों की और सत्यानंद जी के बारे में ऑनलाइन रिसर्च की लेकिन कुछ भी प्राप्त न हुआ। इसी नाम के और कई entries appear हुईं लेकिन उनका इस लेख के साथ कोई भी सम्बन्ध न दिखा।

आज का लेख का यहीं पे पूर्ण विराम- अगले लेख में सिद्ध योगी बाबा कीनाराम जी का सम्पर्क।

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